भाजपा विरोधी खेमा केंद्र में सरकार बनाने के प्रयासों में जुटा हुआ है। हालांकि इसके लिए अभी उन्हें लंबा इंतजार करना होगा, क्योंकि आम चुनाव 2024 में निर्धारित हैं। लेकिन बंगाल में तीसरी बार जीत हासिल करने के बाद मोदी विरोधियों की उम्मीद बनकर उभरीं ममता बनर्जी एक तरफ जहां कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग लेने की कोशिश करती नजर आ रही हैं तो वहीं दूसरी ओर वह कांग्रेस में ही सेंध लगा रही हैं। गोवा में कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री एडवर्ड फलेरियो को तृणमूल में शामिल करके उन्होंने कांग्रेस को झटका दिया है। मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के भी कांग्रेस छोड़ तृणमूल की पतवार के सहारे राजनीति की नैया पार लगाने की तैयारी भी अब छिपी हुई नहीं है।
ममता के इन कदमों का संदेश साफ है। दरअसल वे अपने दल को बंगाल की सीमाओं से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्वरूप देने की तैयारी में हैं। भारतीय राजनीति में तीन और दल ऐसे हैं, जो लगातार खुद को अपने राज्य की सीमा से बाहर निकालकर राष्ट्रीय बनाने की कोशिश में हैं। 80 वर्ष से अधिक उम्र होने के बावजूद मराठा क्षत्रप शरद पवार प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना छोड़ नहीं पाए हैं। इसी कड़ी में अरविंद केजरीवाल की कोशिशें छिपी नहीं हैं। वहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने के बावजूद जदयू की यह चाहत रह-रहकर बाहर आ ही जाती है।
राष्ट्रीय इतिहास के उबड़-खाबड़ पत्थर पर अपना नाम खुदवाने की ममता बनर्जी की कोशिश भले ही नई हो, शरद पवार अरसे से ऐसा प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को वे शाब्दिक जाल और राजनीतिक पैंतरेबाजी के माध्यम से हर मुमकिन मौके पर जाहिर करते रहे हैं। वर्ष 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जदयू नेता नीतीश कुमार तो मोदी विरोधी खेमे के प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार के तौर पर उभर भी चुके थे। लेकिन बाद में बिहार की सरकार को सहयोगी लालू प्रसाद यादव ने जब अपनी लालटेन की रोशनी में राह दिखाना तेज किया, तो नीतीश ने राष्ट्रीय इतिहास रचने के अपने सपने को कुछ वर्षो के लिए भुला दिया। बेशक वे भाजपा के साथ हैं, लेकिन उनकी भी महत्वाकांक्षा छिपी हुई नहीं है। यही स्थिति आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की भी है। चारों नेताओं को पता है कि राष्ट्रीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अपना नाम उनके लिए दर्ज कराना ज्यादा आसान तब होगा, जब उनके दल क्षेत्रीयता की सीमाओं को पार कर जाएंगे। उन्हें पता है कि अगर उन नेताओं के पास कम से कम 50 लोकसभा सांसद होंगे, तो देश के नेतृत्व पर उनके लिए दावेदारी आसान होगी, बशर्ते भाजपा को अगले आम चुनावों में बहुमत न मिले।