लोकसभा चुनाव: यूपी में बसपा की चुनावी रणनीति की होगी कड़ी परीक्षा

लोकसभा चुनाव में 25 साल बाद बसपा एक बार फिर समाजवादी पार्टी के साथ मैदान में है। पिछले चुनाव में बसपा को एक सीट भी नहीं मिल पाई थी, इस लिहाज से यह चुनाव उसके लिए काफी अहम है। इस बार बसपा की सोशल इंजीनियरिंग पर आधारित चुनावी रणनीति की भी कड़ी परीक्षा होगी। पार्टी के लिए बदले हालात में सामाजिक समीकरणों को साधना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।

दलित-यादव को साथ लाना आसान नहीं
यूपी के चुनाव में जातीय समीकरण बहुत मायने रखते हैं। माना जा रहा है कि बसपा-सपा का गठबंधन भी इसी जातीय समीकरण के आधार पर हुआ है। बसपा दलित को हमेशा से अपना आधार वोट बैंक मानती रही है, तो सपा यादव और मुस्लिम वोट बैंक पर दावा करती है। बसपा इस बार भी इन्हीं समीकरण को ध्यान में रखकर उम्मीदवार तय कर रही है। इन तीनों बिरादरियों के वोट बैंक को एकसाथ लाने की चुनौती बसपा पर बढ़ गई है। माना जाता है कि यादव बहुत कम मौकों पर ही दलितों के साथ आते हैं। ऐसे में बसपा के लिए यादवों और मुसलमानों को अपने पाले में लाना आसान नहीं होगा।

 

सोशल इंजीनियरिंग बड़ी चुनौती
इस लोकसभा चुनाव में बसपा अब तक 17 उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है। इसमें छह दलित, चार पिछड़े, तीन मुस्लिम, दो वैश्य और ठाकुर व ब्राह्मण समुदाय से एक-एक उम्मीदवार शामिल हैं। बसपा को अभी 21 और उम्मीदवार घोषित करने हैं। बसपा सोशल इंजीनियरिंग यानी दलित-ब्रह्मण और बनिया-ठाकुर समीकरण के आधार पर ही वर्ष 2007 में यूपी विधानसभा के चुनाव में मैदान में उतरी थी। यह समीकरण उसके लिए फलदायी साबित हुआ और राज्य में उसकी सरकार बनी। मगर, 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का यह फार्मूला फेल हो गया था। इसके बावजूद वह इस बार भी इसी फार्मूले को आजमा रही है, जो उसके लिए बड़ी चुनौती है।

भीम आर्मी से टक्कर
बसपा के लिए पश्चिमी यूपी में अपना दलित आधार वोट बैंक बचाए रखने की भी चुनौती है। इस क्षेत्र में उसे भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद से टक्कर मिल रही है। माना जा रहा है कि पश्चिमी यूपी के कई जिलों के युवाओं के बीच चंद्रशेखर की अच्छी पैठ है। दलित चेहरा होने की वजह से वह इस समुदाय के वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं।