सड़कों पर, स्कूलों में, नौकरियों में, रैलियों और संसद में, जहां भी नज़र दौड़ाएं महिलाएं संख्या में कम ही नज़र आती हैं.
लेकिन, ये दृश्य इस बार के लोकसभा चुनाव में थोड़ा अलग है. हर जगह महिलाएं भले ही कम हों लेकिन पोलिंग बूथ पर वो बढ़ चढ़कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं.
2019 लोकसभा चुनाव के पहले चार चरणों में महिलाओं ने वोट देने के मामले में पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है. उन्होंने खुलकर मतदान के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया है.
महिलाओं और पुरुषों में मतदान प्रतिशत का अंतर भी लगातार कम हो रहा है. शुरुआती चार चरणों के आधार पर देखें तो इन लोकसभा चुनावों में ये अंतर सबसे कम रहा है. 2019 में ये अंतर 0.3 प्रतिशत है जबकि 2014 में 1.8 प्रतिशत और 2009 में 4.4 प्रतिशत रहा था.
अगर इस बार कुछ और चरणों में भी महिलाओं का मतदान प्रतिशत ज़्यादा रहा तो नया रिकॉर्ड बन सकता है. कुल मतदान में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों से आगे निकल जाएगी.
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक़ 11 अप्रैल को हुए मतदान के पहले चरण में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 68.53 रहा है जबकि पुरुषों का 68.02 प्रतिशत.
18 अप्रैल को दूसरे चरण में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 69.47 और पुरुषों का 69.40 प्रतिशत रहा. तीसरे और चौथे चरण में महिलाओं का मतदान प्रतिशत कुछ राज्यों में पुरुषों से ज़्यादा रहा है.
चार चरणों के आंकड़ों को मिलाकर राज्यों में दमन और दीव सबसे आगे है. यहां पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने 7.25 प्रतिशत ज़्यादा वोट किया है. इसके बाद बिहार में ये अंतर 6.62 प्रतिशत और उत्तराखंड में 5.69 प्रतिशत है. आंध्र प्रदेश में महिला और पुरुष मतदान प्रतिशत एक समान है.
अंतर छोटा, मायने बड़े
इस बार के चुनावों में ये अंतर देखने में भले ही कुछ प्वाइंट का दिखता है लेकिन राजनीति विशेषज्ञ प्रवीण राय इसे बड़ा बदलाव मानते हैं.
प्रवीण राय कहते हैं, “ये बहुत बड़ा अंतर है क्योंकि आज़ादी के बाद से जितने भी चुनाव हुए उनमें हमेशा पुरुषों का मतदान ही ज़्यादा रहता था. ये अंतर बहुत दिनों तक बहुत ही ज़्यादा था. पिछले दो दशक में ये गिरना शुरू हुआ है और महिलाओं की भागीदारी को लेकर ये बहुत सकारात्मक संदेश है.”
महिलाओं के पास मतदान का अधिकार भारत की आज़ादी के बाद से ही रहा है. लेकिन, आज वो ख़ुलकर इस अधिकार का उपयोग कर रही हैं. इस परिवर्तन के पीछे कई कारण बताए जाते हैं.
प्रवीण राय कहते हैं, “महिलाएं ख़ुद तो आगे आ ही रही हैं लेकिन सरकार की भी इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. चुनाव आयोग पिछले 10 सालों से महिलाओं को मतदान के लिए प्रेरित करने की तरह-तरह से कोशिश कर रहा है. जैसे पिंक बूथ बनाए जाते हैं और विज्ञापन दिखाए जाते हैं.”
“दूसरा एक महत्वपूर्ण कारण ये है कि सरकार ने बहुत सी योजनाएं सिर्फ़ महिलाओं के लिए निकाली हैं या उन्हें केंद्र में रखा है. जैसे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, उज्जवला योजना, उनकी सुरक्षा को लेकर बात करना और तीन तलाक़ जैसे मसलों से महिलाओं को लगता है कि सिर्फ़ उन पर ध्यान दिया जा रहा है. इससे महिलाओं का सशक्तीकरण भी हुआ है और वो राजनीतिक रूप से जागरुक हो रही हैं. इसलिए भी वो ज़्यादा संख्या में बाहर आ रही हैं.”
इस बात से वरिष्ठ पत्रकार नीरजा सहाय भी सहमति जताती हैं. वह कहती हैं कि शराबबंदी, साइकिल देना, युवाओं को लैपटॉप देना, इस सबसे महिलाओं का राजनीतिक दलों के प्रति झुकाव बना है, उन्हें भी लगने लगा है कि उनके वोट का असर होता है और इसलिए वो बाहर निकलकर आती हैं.
2014 में 543 सदस्यों की लोकसभा में महज़ 62 महिलाएं चुनी गई थीं. इस बार कुछ दलों ने पहल करते हुए 33 फ़ीसदी से भी ज़्यादा महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है.
एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म के मुताबिक़, इस साल 9 प्रतिशत महिला उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं. जबकि 2014 में ये आंकड़ा 8 प्रतिशत और 2009 में 7 प्रतिशत था. इस बार ज़्यादा महिला उम्मीदवार होने से संसद में उनकी संख्या और बढ़ने की संभावना है.
प्रवीण राय मानते हैं, “इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों ने भी कोशिश की है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 41% महिला उम्मीदवारों और ओडिशा में नवीन पटनायक ने 33% महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जो सराहनीय क़दम है. एक बड़ा कारण बुनियादी सुविधाओं में सुधार होना भी है. जैसे कई जगह सड़कें बनी हैं और महिलाओं का पोलिंग बूथ तक पहुंचना आसान हुआ है. अब बूथ कैपचरिंग जैसे घटनाएं भी न के बराबर होती हैं जिन्हें लेकर महिलाओं में डर रहता था.”
क्या वोट बैंक बनी हैं महिलाएं
जाति, धर्म, उम्र और पेशे के आधार पर मतदाता कई तरह के वोट बैंक में बंट चुके हैं. ज़रूरत पड़ने पर वो अपनी मांगों के लिए एकजुट होते हैं और उन्हें मनवाने में कई बार सफल भी हो जाते हैं. लेकिन, क्या राजनीतिक दल महिलाओं को ऐसे ही वोट बैंक के तौर पर देखते हैं?
प्रवीण राय का मानना है कि महिलाएं अभी तक एक मज़बूत वोट बैंक नहीं बन पाई हैं. वह कहते हैं, “वोट बैंक कोई स्पष्ट चीज़ नहीं है. अगर किसी वर्ग से 60 से 70 प्रतिशत वोट भी मिलते हैं तो उसे वोट बैंक मान लेते हैं. जहां तक महिलाओं की बात है तो किसी भी पार्टी ने इनके वोट लेने के लिए बहुत कोशिश नहीं की है. जैसे घोषणापत्र में कुछ वादे होते भी हैं लेकिन उन पर अमल नहीं होता. संसद में आरक्षण की मांग को देखें तो कोई भी पार्टी इसे लागू करने की इच्छा नहीं दिखाती.”
हाल में हुई घटनाएं भी इस बात की तस्दीक करती हैं. सबरीमला मंदिर के मसले में महिलाओं के अधिकारों और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ताक पर रखते हुए बीजेपी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल धार्मिक परंपराओं के पक्ष में मज़बूती से खड़े थे. महिलाओं के मुद्दों की बात हो तो सिर्फ़ रेप, छेड़छाड़ और सुरक्षा तक ही रुक जाती है. ये भी महत्वपूर्ण मसला है लेकिन अन्य समस्याओं पर इसके जितनी बात नहीं होती.
पलायन और मातृसत्तात्मक समाज
वोटिंग प्रतिशत में ये बढ़ोतरी 16 राज्यों में देखने को मिली है. दमन एवं दीव, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, दादर और नागर हवेली, मणिपुर, गोवा, केरल, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, पुडुचेरी और तमिलनाडु में महिलाएं आगे रही हैं. प्रवीण राय इसके पीछे पलायन और मातृसत्तात्मक समाज जैसे कारणों की भी भूमिका मानते हैं.
वह कहते हैं, “कुछ राज्यों जैसे बिहार, उत्तराखंड और केरल में पलायन ज़्यादा है. यहां से पुरुष काम करने के लिए दूसरे शहरों या महानगरों में जाते हैं. ऐसे में उनके लिए वोट देने वापस आना मुश्किल होता है. पैसे और समय दोनों की समस्या होती है. इसलिए भी यहां अमूमन महिलाओं का प्रतिशत ज़्यादा होता है. इससे ये भी संकेत मिल रहे हैं कि हर राज्य में रोज़गार बढ़ाया जाए ताकि महानगरों की तरफ़ लोगों का आकर्षण और बोझ कम हो.”
“जहां तक बात उत्तर पूर्वी राज्यों मेघालय और मणिपुर की है तो यहां पर मातृसत्तामक समाज है और महिलाएं अन्य कामों में भी आगे रहती हैं. इसका असर मतदान में भी दिखाई पड़ता है.”
युवा लड़कियों की ताक़त पहचानें
लेकिन, महिलाओं का मतदान में योगदान क्या उन्हें देश में भी मज़बूती दिला पाएगा?
इस सवाल के जवाब में नीरजा चौधरी कहती हैं, “महिलाओं में जितनी जागरुकता बढ़ी है उसके मुक़ाबले सभी दलों ने उन्हें महत्व नहीं दिया है. पर इस बदलाव के साथ राजनीतिक दलों पर दबाव पड़ेगा. वो धीरे-धीरे उन पर और उनकी ज़रूरतों पर ध्यान देने लगेंगे. ज़्यादा महिला उम्मीदवार उतारना इसी कड़ी का एक हिस्सा है. साथ ही जब ऐसे आंकड़े सामने आते हैं तो महिलाओं का उत्साह बढ़ता है. जिन्होंने वोट नहीं दिया है, उनमें भी वोट देने की चाह पैदा होती है.”
नीरजा चौधरी नौजवान महिला मतदाताओं की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानती हैं, ख़ासकर की जो पहली बार वोट दे रही हैं.
उनका कहना है, “ये लड़कियां सिर्फ़ तालीम ही नहीं चाहतीं बल्कि वो नौकरी करना, कंप्यूटर और अंग्रेज़ी सीखना चाहती हैं, वो सिर्फ़ घर जाकर सिलाई नहीं करना चाहतीं. लड़कियां कुछ करना चाहती हैं. उनमें देश को बदलने की ऊर्जा है. अगर पार्टियां उस ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगी तो देश बहुत आगे निकल जाएगा.”
हालांकि, विश्लेषक महिलाओं की राह को बहुत आसान नहीं मानते. उनके मुताबिक़ अब भी ऐसी बाधाएं हैं जो महिलाओं को वोट देने से रोकती हैं. अभी महिलाओं का मूवमेंट बहुत बिखरा हुआ है. कहीं न कहीं महिलाओं को एकजुट होकर राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना होगा. उन्हें अपने वोट के महत्व का अहसास कराना होगा.
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