जानिए फिल्मों में नकली हथियार देने वाले सत्येंद्र त्यागी कौन हैं, पूरी खबर पढ़िए

‘अक्षय सर अपने सभी स्टंट रियल में करते हैं। वो किसी भी वेपन को हाथ में लेने से पहले उसके बारे में हमसे पूछते हैं। सबसे पहला सवाल यही होता है कि ये रियल तो नहीं। कई बार तो हम अपने ऊपर फायरिंग करके दिखाते हैं, ताकि उन्हें विश्वास हो।संजू बाबा के साथ भी ऐसा ही है। एक बार उनकी फिल्म ‘दौड़’ के वक्त मैं होटल में डमी गन लेकर गया था तो उस वक्त वो गन पकड़ने के लिए तैयार ही नहीं थे। उस वक्त उनकी पर्सनल लाइफ में गन की वजह से कुछ तो हुआ था, जिसके कारण वो अपने हाथ में डमी गन लेने से भी डरते थे।’

ये कहना है सत्येंद्र त्यागी का जो कि फिल्मों की शूटिंग के लिए नकली हथियार सप्लाई करते हैं। फिल्मों में असली दिखने वाले हथियार इन्हीं की फैक्ट्री में बनते हैं। सत्येंद्र ढाई दशक से इस पेशे में हैं। मुंबई के गोरेगांव (वेस्ट) के मोतीलाल नगर में इनका एक गोडाउन भी है। हमने इन हथियारों को नजदीक से देखा, इनसे गोली चलने और एक्टर के घायल होने के सीन कैसे बनते हैं,
सत्येंद्र बताते हैं, फिल्म ‘वास्तव’ में मैंने पहली बार बतौर एक इंडिपेंडेंट डमी हथियार सप्लायर काम किया था। उस वक्त मेरे पास ज्यादा हथियार नहीं थे, केवल 4-5 ही थे। उसके बाद फिल्में बढ़ती गईं और मैं भी हथियारों के नंबर्स बढ़ाता गया। कुछ खुद बनाए, तो कुछ बाहर से मंगवाए। आज मेरे पास कम से कम अलग-अलग तरीके के 1500 वेपन हैं। गन, ब्लास्ट इफेक्ट्स, केबल वर्क्स, फायर वर्क्स मिलाकर हर किस्म के वेपन हैं। इनका मेंटेनेंस मैं और मेरी टीम करती है।
फिल्मों में ओरिजिनल फायर नहीं किया जाता है, इसके लिए डमी वेपन का इस्तेमाल होता है। डमी वेपन हमारे कारीगर बनाते हैं। रियल लुक देने के लिए हम असली सामान का इस्तेमाल करते हैं। इससे किसी को भी नुकसान होने की कोई गुंजाइश नहीं होती है।
फायरिंग सीन के दौरान हम बोर्ड इफेक्ट का इस्तेमाल करते हैं, जिसे हम रिमोट या करंट से फोड़ते हैं। एक्शन सीक्वेंस के दौरान एक्टर को खून से लथपथ दिखाने के लिए हम ब्लड की पैडिंग बनाकर शरीर पर चिपका देते हैं और एक्शन डायरेक्टर के हिंट देते ही उसे फोड़ते हैं।
हमारा एक यूनियन है, MADEA (मूवी एक्शन डमी इफेक्ट एसोसिएशन) जिसकी निगरानी में हम सारा काम करते हैं। यूनियन की परमिशन के बिना किसी को सेट पर जाने की इजाजत नहीं होती। यदि एक वर्कर को भी किसी सेट पर भेजना हो तो हम यूनियन को इन्फॉर्म करते हैं। किसी बाहरी व्यक्ति को हम अपना सामान नहीं दे सकते, खास तौर पर ये डमी हथियार।

मेरे पास कम से कम 15 लोगों का स्टाफ है। वहीं, कभी ज्यादा स्टाफ लगा तो हम उस वक्त यूनियन की मदद लेते हैं। हम बाहरी लोगों को नहीं ले सकते, जिनके पास यूनियन का कार्ड और एक्सपीरिएंस हो, उसी को काम दे सकते हैं।

कब क्या इफेक्ट लगाना है, कब ब्लास्ट करना है, ये सब करने के लिए अच्छा खासा एक्सपीरिएंस होना जरूरी है। एक्टर्स और प्रोडक्शन हाउस हमारे काम पर बहुत भरोसा करते हैं जिसकी वजह से हम इस इंडस्ट्री में टिक पाए हैं। इन सभी हथियारों को रखने के लिए हमारे पास दो बड़े गोडाउन हैं।
नए प्रोजेक्ट में पुराने किस्म के हथियार की आज भी रिक्वायरमेंट होती है। हाल ही में मैंने एक वेब सीरीज ‘दहन’ की, उसमें पुराने हथियार की जरूरत थी। हमने हर दौर के हिसाब से हथियार बनाकर स्टॉक में रखे हैं, कब किसकी जरूरत पड़ जाए, क्या पता।
लखनऊ में मेरे साथ एक घटना हुई थी। हम एक टीवी सीरियल का शूट कर रहे थे और हमारा डबल बैरल हथियार खो गया। कोई लोकल व्यक्ति उसे लेकर चला गया था। फिर हमने तुरंत पुलिस को इसकी जानकारी दी थी।

दूसरा किस्सा रोनित रॉय की सीरीज ‘होस्टेजेस 2’ के दौरान हुआ था। मुंबई में इस सीरीज की शूटिंग के दौरान, हमारी नकली पिस्टल चोरी हो गई थी। उस वक्त भी हमने पुलिस कंप्लेंट की थी, जिसकी कॉपी हमने अपने पास रख ली, ताकि आगे चलकर कोई परेशानी ना हो।

कई बार इन हथियारों को सेट पर ले जाने के समय पुलिस हमें रोक देती है। उन्हें डमी प्रोडक्ट और रियल प्रोडक्ट में डिफरेंस समझाना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है। वह हमें पुलिस स्टेशन ले जाते हैं, फिर हमें उन्हें अपने डाक्यूमेंट्स दिखाने पड़ते हैं। तब वो हमें जाने देते हैं।
कुछ प्रोडक्शन हाउस हमें एडवांस देते हैं। बाकी पेमेंट यूनियन के जरिए होता है, जिसमें सारे वर्कर्स का पेमेंट जाता है। बाकी जो मटेरियल सप्लाई होता है, वो हमारे नाम से होता हैं, यानि कि ओनर के नाम से। बेसिकली, पेमेंट 3 महीने के अंदर मिल जाता है। वहीं 15 दिन के अंदर डायरेक्ट वर्कर्स के अकाउंट में पेमेंट आ जाता है। हम कम से कम दिन में 12 प्रोजेक्ट पर एक साथ काम करते हैं।
मेरी पहली फिल्म ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ थी, जिसके डायरेक्टर सतीश कौशिक थे। उस वक्त मैं एक असिस्टेंट के तौर पर काम करता था। इस काम के लिए मुझे रोज 100 रुपए मिलते थे। मैंने 4-5 साल असिस्टेंट बनकर काम किया और उसके बाद अपना इंडिपेंडेंट काम शुरू किया।
जब मैंने 1998 में अपनी पहली फिल्म इंडिपेंडेंट हैंडल की तब डेढ़ से दो लाख रुपए मिले थे। मैंने अपनी पहली कमाई से हथियार ही बनवाए। मम्मी मेरे इस काम से काफी खुश थीं। मैं पिछले 30 साल से ये काम कर रहा हूं और अब मेरा बेटा ऋषभ इसे आगे ले जाएगा।

अक्षय कुमार, बॉबी देओल, संजय दत्त की ज्यादातर एक्शन फिल्मों में हमारे ही हथियार यूज होते हैं। अक्षय कुमार की ‘खिलाड़ी’ फ्रैंचाइजी, संजय दत्त की ‘वास्तव’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘आरजू’, ‘दावा’, ‘कीमत’, बॉबी देओल की ‘बरसात’, ‘क्रांति’, ‘सोल्जर’ जैसी कई फिल्में की हैं।

अभी एक फिल्म की जिसका नाम ‘बारामुला’ है। उसके प्रोड्यूसर आदित्य धर हैं। फिल्म की शूटिंग कश्मीर में हुई है। इसके अलावा फिल्मों और वेब सीरीज की लिस्ट बहुत लंबी है जिसमें हमने नकली हथियार दिए हैं।
करीना कपूर, रानी मुखर्जी, रवीना टंडन, सोनाली बेंद्रे, शिल्पा शेट्टी, उर्मिला मातोंडकर जैसी एक्ट्रेसेस के साथ भी काम किया है। इनमें से कुछ डरती भी थीं, कई बार वो फायरिंग करने से इंकार कर देती थीं। ऐसे में हम फिर उनका सिर्फ हाथों का शॉट लेते और फिर खुद फायरिंग करते थे।
साउथ की एक फिल्म ‘सैनिका’ मेरे लिए बहुत स्पेशल थी, क्योंकि उसमें बहुत सारे अलग-अलग किस्म के हथियार का इस्तेमाल किया गया था। कई सीन्स में फायरिंग थी। साउथ सुपरस्टार शिवराज कुमार की AK 47 की शूटिंग मुंबई में 3 महीने तक चली थी। उसमें भी अलग-अलग तरह की ब्लास्टिंग की थी।
सत्येंद्र के इस काम में उनके बेटे ऋषभ त्यागी भी उनका हांथ बंटा रहे हैं। वो कहते हैं- जो हथियार हम बाहर से मंगवाते हैं उसकी कीमत मॉडल के हिसाब से होती है। किसी की 50 हजार, तो किसी की एक लाख तक कीमत चली जाती है। नकली का असली रेप्लिका बनाना इतना भी आसान और सस्ता काम नहीं है।
ऋषभ आगे बताते हैं- बचपन में पापा हमारे लिए खिलौने नहीं, नकली या डमी बंदूकें लाते थे। बचपन से ही मुझे पापा के इस काम में काफी इंटरेस्ट था और अब इसे आगे अपने तरीके से ले जाना चाहता हूं।

पापा की बनाई गई टेक्नोलॉजी को अपने तरीके से एक्सपैंड करूंगा। आने वाले समय में इसमें जरूर बदलाव देखने को मिलेगा। मैंने अपनी ग्रेजुएशन पूरी की, लेकिन कोई जॉब करने के बजाय ये काम इसलिए करना चाहता हूं, क्योंकि इस फील्ड में हर दिन आपको नया अनुभव मिलता है। नए-नए प्रोजेक्ट पर काम करना, नए-नए लोगों से मिलना अच्छा लगता है। अब पापा सिर्फ बड़े प्रोजेक्ट में शामिल होते हैं, बाकी छोटे-मोटे प्रोजेक्ट मैं खुद संभालता हूं।