सिर पर गेरुआ गमछा, शरीर पर भगवा वस्त्र और गले में रुद्राक्ष की माला। ये कोई आम महिला नहीं, बल्कि देश की पहली महिला महंत हैं। नाम है- देव्यागिरी।
देव्या ने उस उम्र में संन्यासी बनना चुना, जिसमें लड़कियां ग्लैमरस जिंदगी जीने…करियर बनाने के सपने देखती हैं। 22 साल की थीं, जब परिवार से महिला साधु बनने की बात कह दी। पहले घरवालों की डांट सुनी। महंत बनी…तो संतों का विरोध झेलना पड़ा। लेकिन देव्या ने कभी हार नहीं मानी।
15 साल बीत चुके हैं…देव्यागिरी लखनऊ के मनकामेश्ववर मंदिर की प्रमुख का दायित्व निभा रही हैं। सिर्फ पूजा-पाठ ही नहीं, उन्होंने महंत रहते हुए 100 से ज्यादा गरीब बच्चियों की शादी भी करवाई है। गोमती नदी की सफाई के लिए खुद को झोंक दिया।
ये तस्वीर मनकामेश्वर मंदिर की महंत देव्यागिरी की है। उन्होंने 22 साल की उम्र में संन्यास लिया। 2008 में मनकामेश्वर मंदिर की महंत बनी। 15 साल से मंदिर की महंत हैं।
बाराबंकी की रहने वाली अरुणिमा सिंह। पिता वीपी सिंह एक अखबार के ब्यूरो चीफ हैं। मां मीरा हाउसवाइफ हैं। अरुणिमा 6 भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं। पढ़ने में काफी होनहार। बाराबंकी से 12वीं तक की पढ़ाई की। बॉयलॉजी से बीएससी किया। इसके बाद दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ एंड हाइजिन कॉलेज से पैथोलॉजी की पढ़ाई करने चली गई। परिवार में सब चीज काफी ठीक चल रहा था। अरुणिमा के सभी भाई-बहन धीरे-धीरे अपनी जिंदगी में सेटल हो रहे थे।
साल 2001 में अरुणिमा का भी रिजल्ट आने वाला था। रिजल्ट आने के बाद परिवार वाले एक बड़ी लैब खोलने की तैयारी में थे। इसके लिए जगह मुंबई तय की गई। लैब तैयार होने की फॉरमैलिटी भी लगभग पूरी हो चुकी थी। बस अब रिजल्ट का इंतजार था।
रिजल्ट के कुछ दिन पहले अरुणिमा लखनऊ के मनकामेश्वर मंदिर में शिव जी के दर्शन करने आईं। मंदिर के गर्भगृह में जाते ही उन्हें अलग-सी अनुभूति हुई। उन्हें ऐसा लगा कि भगवान के साक्षात दर्शन हो गए। गर्भ गृह में दर्शन अरुणिमा की जिंदगी का टर्निंग पाइंट था। गर्भ गृह में प्रवेश के बाद उसके विचार बदल गए। उन्हें लगने लगा कि भोलेनाथ की सेवा में उनके सामने ही रहना चाहिए। इसके बाद अरुणिमा ने शिव जी शरण में आने का निर्णय लिया। लेकिन ये आसान नहीं था।
अरुणिमा पैथोलॉजी का कोर्स पूरा करने के बाद लखनऊ आ गईं। परिवार मुंबई में पैथ लैब खोलने की तैयारी थी। पूरे घर में सभी लोग काफी खुश थे। अरुणिमा को घरवालों से दीक्षा लेने की बात कहने में डर भी लग रहा था। लेकिन उन्होंने पूरा मन बना लिया था
आखिरकार सोमवार के अरुणिमा ने ये बात पिता को बताई, तो वो काफी नाराज हुए। उन्होंने कहा- सारी चीजें हो चुकी हैं। अब लैब शुरू होने में कम वक्त है। अब तुम ये सब बातें कर कह रही हो। अपने करियर के बारे में सोचो…वह तुम्हारे लिए ज्यादा बेहतर रहेगा।
साल 2001 के दिसंबर की बात है। अरुणिमा ने शिव जी सेवा में रहने का फैसला ले लिया था। उनकी उम्र तब 21 साल रही होगी। करीब 15 दिन बाद 10 जनवरी, 2002 को अरुणिमा को मनकामेश्वर मंदिर के महंत केशव गिरी से दीक्षा मिली। संन्यास लेने के बाद वह ‘देव्यागिरी’ बन गई। देव्यागिरी ने पूर्ण संन्यास साल 2004 में उज्जैन के कुंभ में लिया। आगे हम अरुणिमा की जगह ‘देव्यागिरी’ नाम ही लिखेंगे।
देव्या का मानना है कि इस उम्र में आने के बाद परिवार का विरोध तो नहीं कहेंगे। क्योंकि जिस उम्र में ये सब हुआ, कोई भी माता-पिता चिंतित हो जाएंगे। दूसरी तरफ संन्यास लेना बाकी चीजों से अलग होता है। इसलिए मेरे इस कदम से मां-बाप परेशान हो गए थे।
साल 2008 के बाद से जब मेरा पूरी तरह मनकामेश्वर मंदिर में रहना स्वीकार हुआ, तब घरवाले खुश थे। उन्हें ऐसा लगा कि संन्यास तो ले लिया है, लेकिन चलो लखनऊ में ही रहेगी। इस चीज से काफी संतुष्ट थे।
देव्या कहती हैं, “ईश्वर जो चाहते हैं, वो करा लेते हैं। लेकिन मनुष्य जो सोचता है, वो कभी होता है और कभी नहीं। अगर हम ये खुद सोचते तो शायद बहुत कठिनाई होती। लेकिन ईश्वर अपनी सेवा में लेना चाह रहे थे। तो ऐसा विधि का विधान बनाया कि हम उनकी सेवा में लग गए।”
“नॉर्मल लाइफ से मंदिर के रूटीन में खुद को ढालना बेहद चुनौती भरा था। लेकिन गुरु जी के तौर-तरीके सीख मैंने खुद को शिवभक्ति में ढाल लिया। अब हालत यह है कि सेवादारी से ही फुरसत नहीं मिलती। ईश्वर की सेवा शुरू करने के बाद ज्यादा कुछ सोचने का समय नहीं मिलता है। बस उन्हीं की आराधना में पूरा दिन निकल जाता है।”
महंत देव्या कहती हैं, ”संन्यासी हो जाना ही जीवन का सार नहीं होता है। संन्यासी होने के तौर पर हमारे कुछ सामाजिक दायित्व होते हैं। मनकामेश्वर मंदिर की महंत होते हुए मैंने गोमती नदी की सफाई और उसे बचाने की कसम खाई।”
”गोमती को बचाने के लिए लखनऊ में सबसे पहले मंदिर की पूरी टीम सफाई अभियान शुरू किया। धीरे-धीरे हमारे काम को देख कुछ समाजसेवी संस्थाएं और जन प्रतिनिधि हमारे साथ आ गए।” मौजूदा समय में मैं नदी पर रोजाना आरती होती है। पूर्णिमा के दिन विशेष आयोजन होता है, जिसमें मेरे साथ पूरा शहर शामिल होता है।
गोमती को बचाने के साथ-साथ देव्या गौ-सेवा और अनाथ बच्चों को पालने और उनकी पढ़ाई की जिम्मेदारी उठाती हैं। उन्हें खुद 5 बच्चों को गोद लिया है। सबकी पढ़ाई से लेकर उनकी शादी का जिम्मा लिया है। बच्चे उन्हीं के साथ मंदिर परिसर में रहते हैं।
महंत देव्यागिरी समय-समय पर गरीब परिवार की बेटियों की शादी में मदद करती हैं। जिसके लिए एक समिति भी बनी है। हर साल 21 लड़कियों का विवाह कराया जाता है। देव्या लखनऊ में 100 से ज्यादा गरीब परिवारों की बच्चियों का सामूहिक विवाह करवा चुकी हैं।
देव्यागिरी बताती हैं, ”मेरे परिवार में कोई भी संन्यासी नहीं है। कोई भी ऐसा बैकग्राउंड नहीं था। बस जैसा पूजा पाठ हर परिवार में होता है, वैसा ही हमारे यहां भी होता था। आध्यात्मिकता और धार्मिकता परिवार में ननिहाल में माता-पिता में ज्यादा था। लेकिन संन्यास लेने की दिशा में मैं ही बढ़ी। ईश्वर जिसे चाहते हैं, उसे सेवा में बुला लेते हैं। शिव जी ने मेरे परिवार से मुझे ही सेवा में बुलाया तो आज हम उनके साथ हैं।”
देव्यागिरी के लिए केशव गिरी गुरु बनाना आसान नहीं था। जब देव्यागिरी ने महंत केशव गिरी को अपना गुरू माना तो केशव गिरी ने मना कर दिया।
देव्यागिरी वहां भी हार नहीं मानी। उनकी तपस्या और शिव जी पर विश्वास देखकर महंत ने देव्यागिरी को स्वीकार कर लिया। उनके प्राण त्यागने के बाद 9 सितंबर 2008 में देव्यागिरी को मनकामेश्वर मंदिर का महंत बनाया गया।
महंत देव्यागिरी ने पांच बच्चों को गोद लिया है। जिसमें से गौरस सबसे छोटा है। देव्यागिरी बताती हैं, अभी एक बच्ची को कानूनी तौर पर लिया है। बाकी अन्य बच्चे परिवार की सहमति से उनके पास हैं।
देव्यागिरी बताती हैं, “संन्यास लेने पर परिवार की नाराजगी तो ठीक थी। लेकिन जब मनकामेश्वर मंदिर का महंत बनाए जाने की घोषणा हुई तब पूरा संत-समाज नाराज हो गया।कोई भी संत किसी महिला के महंत बनने से खुश नहीं था। इस बात से मैं घबराई नहीं, भगवान हमें हमेशा रास्ता दिखाते रहे।”
“पहले तो लोग महिला और पुरुष को अलग नजरों से देखते थे। लोग संन्यास लेने की अलग-अलग वजह सोचते हैं। ऐसा ख्याल आता था कि क्या संन्यास ऐसा क्षेत्र है, जिसमें आदमी मजूबरी में आता है। विरोध के बाद भी देव्यागिरी ने हार नहीं मानी।”
मेरा संन्यास लेना का फैसला मेरा ही था जो आखिरकार सही साबित हुआ। संन्यास लेने और महंत बनने के बाद जिम्मेदारियां बढ़ गई। 15 साल से मैं मंदिर का कार्यभार संभाल रही हूं। आज यहां के सेवादार और भक्त मेरे काम की तारीफ करते हैं। उन्हें मुझसे काफी उम्मीदें भी हैं।”