भारत सरकार की एक लीक हुई रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि इस समय बेरोज़गारी की दर 1970 के दशक के बाद से सबसे ज़्यादा है. हालांकि इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद नीति आयोग के अध्यक्ष राजीव कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस करके बताया है कि ये कोई फ़ाइनल रिपोर्ट नहीं थी.
बावजूद इसके क्या है इस रिपोर्ट में दावा, क्या है इसके मायने और और ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए इसका क्या मतलब है, जिन पर आरोप है कि वो इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करना नहीं चाहते थे, बता रहे हैं अर्थशास्त्री विवेक कॉल.
रिपोर्ट क्या कहती है?
रिपोर्ट साफ़ कहती है कि भारत में रोज़गार की समस्या है.
भारत में बेरोज़गारी की दर 6.1 फ़ीसदी है जो कि साल 1972-73 के बाद से सबसे ज़्यादा है. साल 1972-73 से पहले का डाटा तुलना योग्य नहीं है. बेरोज़गारी के जिस ताज़ा आंकड़े को मोदी सरकार ने जारी करने से मना कर दिया था, बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार ने उस रिपोर्ट को हासिल कर सार्वजनिक कर दिया है.
6.1 फ़ीसदी बेरोज़गारी की दर अपने आप में शायद उतनी चिंता का विषय नहीं है लेकिन अगर आपको ये बताया जाए कि साल 2011-12 में ये दर केवल 2.2 फ़ीसदी थी तो फिर बात अलग हो जाती है. और तो और शहरी इलाक़ों में 15 से 29 साल के लोगों के बीच बेरोज़गारी की दर ख़ासा अधिक है. शहरों में 15 से 29 साल की उम्र के 18.7 फ़ीसदी मर्द और 27.2 फ़ीसदी महिलाएं नौकरी की तलाश में हैं. इसी उम्र ब्रैकेट में ग्रामीण इलाक़ों में 17.4 फ़ीसदी पुरुष और 13.6 फ़ीसदी महिलाएं बेरोज़गार हैं.
पिछले कुछ वर्षों से भारत के आर्थिक विकास की जब भी बात होती है तो इस बात पर सबसे ज़्यादा बल दिया जाता है कि भारत की जनसंख्या के 65 फ़ीसदी लोग 35 साल से कम उम्र के हैं, यानी यहां युवाओं की एक बड़ी संख्या है जो काम करने के योग्य है. इसका मतलब है कि भारत में हर साल क़रीब एक करोड़ युवा काम करने के योग्य हो जाते हैं. इससे ये अनुमान लगाया जाता है कि जब ये युवा शक्ति पैसे कमाना और ख़र्च करने लगती है तो विकास की दर में तेज़ी आएगी और इससे लाखों लोग ग़रीबी की रेखा के ऊपर आ जाएंगे.
लेकिन जैसा कि ये सर्वे कहता है, नौजवानों में बेरोज़गारी की दर बहुत अधिक है. हर पांच में से एक व्यक्ति के पास कोई नौकरी नहीं है. इसलिए भारत को युवाओं की बड़ी संख्या होने के कारण जो ‘डेमोग्राफ़िक डिविडेंड’ होना चाहिए था, फ़िलहाल दूर-दूर तक ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है.
आम चुनाव से ठीक पहले इस रिपोर्ट का बाहर आना इसकी अहमियत को और बढ़ा देता है. इस रिपोर्ट को भारत की राष्ट्रीय स्टैटिस्टिक्स कमीशन ने अपनी मंज़री दे दी थी. इसी सप्ताह के शुरू में इस कमीशन के दो सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया था, ये कहते हुए कि सरकार ने इस रिपोर्ट को जारी करने से मना कर दिया है.
2014 में चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने रोज़गार पैदा करने को एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था. मोदी ने कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वो क़रीब एक करोड़ नौकरियां देंगे और बार-बार भारत के युवाओं के सामर्थ्य का ज़िक्र करते थे.
इसी साल जनवरी के शुरूआती दिनों में सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनोमी नाम की एक निजी संस्था ने ये कहते हुए ख़तरे की घंटी बजा दी थी कि भारत में बेरोज़गार लोगों की संख्या बढ़ रही है और 2018 में क़रीब एक करोड़ 10 लाख लोगों की नौकरियां गई है.
बढ़ती बेरोज़गारी के लिए कौन है ज़िम्मेदार- सरकार या अर्थव्यवस्था?
इसके लिए दोनों ही थोड़े-थोड़े ज़िम्मेदार हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था और इसको चलाने वाले सरकारी नौकरशाह दोनों ही व्यवसायी और रोज़गार पैदा करने वाली मानसिकता का समर्थन नहीं करते हैं. भारत में लाल-फ़ीताशाही बहुत अधिक है और भारतीय अर्थव्यवस्था में कई महत्वपूर्ण सुधार अभी भी फ़ाइलों में ही पड़े हैं. इसके लिए अकेले मोदी को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है जो कि सिर्फ़ पांच वर्षों से सत्ता में हैं. ये समस्या बहुत पुरानी है और इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं.
लेकिन मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान ‘मिनिमम गवर्नमेंट एंड मैक्सिमम गवर्नेंस’ यानी ज़्यादा से ज़्यादा काम और कम से कम सरकारी दख़ल का वादा किया था. लेकिन मोदी अपना ये वादा पूरा करने में विफल रहे हैं. इसके अलावा उनकी सरकार ने दो और ऐसे काम किए हैं जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है.
साल 2016 में मोदी सरकार ने नोटबंदी की घोषणा करते हुए 500 और 1000 रुपए के नोटों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी. डिमौनेटाइज़ेशन यानी नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों को भारी नुक़सान पहुंचाया और ख़ासकर असंगठित क्षेत्र पर तो और भी बुरा असर पड़ा, क्योंकि वो पूरी तरह कैश लेन-देन से चलता है. कृषि को भी भारी नुक़सान हुआ क्योंकि किसान भी ज़्यादातर लेन-देन कैश में ही करते हैं.
कई छोटे कारोबार बंद हो गए और जो किसी तरह अपना कारोबार बचाने में कामयाब रहे उन्होंने अपने यहां काम करने वालों की संख्या कम कर दी, जिससे लाखों लोग बेकार हो गए. इन हालात में युवाओं के नौकरी से निकाले जाने की आशंका सबसे ज़्यादा बढ़ गई.
नोटबंदी के बाद जुलाई 2017 में मोदी सरकार ने गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) लागू कर दिया. जीएसटी ने कई केंद्रीय और राज्य के टैक्सों की जगह ले ली. जीएसटी ने छोटे व्यापार को तबाह कर दिया क्योंकि जीएसटी बहुत ही ग़ैर-पेशावराना तरीक़े से लागू किया गया था. इसके चलते नई नौकरियां निकलने में और भी देरी हुई, और इससे साफ़ संकेत गया कि अगले साल बेरोज़गारी और बढ़ेगी.
इस रिपोर्ट के लिए जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच आंकड़े जमा किए गए थे. नोटबंदी और जीएसटी के बाद रोज़गार से जुड़ा ये पहला सर्वे था.
क्या इन आंकड़ों में कोई समस्या है?
विपक्षी पार्टियों ने जब इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि पिछले कुछ वर्षों में बेरोज़गारी बढ़ रही है तो नरेंद्र मोदी ने उन आरोपों को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि किसी के पास भी बेरोज़गारी के मामले में सही जानकारी नहीं है. विपक्ष जो आंकड़े दे रहा था, मोदी ने उसे उनकी सरकार के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार कहते हुए ख़ारिज कर दिया था.
मोदी बार-बार असंगठित क्षेत्रों की बात करते थे जो अकेले भारत में क़रीब 75 फ़ीसदी नौकरियां देता है. इसलिए किसी भी गंभीर रोज़गार सर्वे के लिए ज़रूरी है कि इस असंगठित क्षेत्र को शामिल किया जाए.
लेबर फ़ोर्स सर्वे के तहत जो आंकड़े जमा किए जाते हैं उनमें भारत भर में बड़े और छोटे दोनों कारोबार से जुड़े लोग शामिल किए जाते हैं और इस तरह इनमें असंगठित क्षेत्र भी शामिल रहता है. इस सर्वे में हर उस व्यक्ति को बेरोज़गार माना जाता है जो काम की तलाश में है लेकिन उसे काम नहीं मिल रहा है. इसमें वो सारे लोग शामिल हैं जो चाहे रोज़गार एक्सचेंज के ज़रिए या अपने किसी दोस्त, रिश्तेदार, या सीधे मालिकों से नौकरी की तलाश में हैं.
अधिकारियों का कहना है कि अंग्रेजी अख़बार बिजनेस स्टैंडर्ड में छपे आंकड़े ड्राफ्ट रिपोर्ट के हैं, इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया. सरकार की आर्थिक नीतियों की थिंक-टैंक संस्था नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा, “ये डेटा प्रमाणिक नहीं हैं.”
सांख्यिकी आयोग के अध्यक्ष और एक सदस्य के इस्तीफ़े के एक दिन बाद ही उन्होंने ये बात कही. आयोग के दोनों ही सदस्यों ने सरकार पर ये आरोप लगाते हुए इस्तीफ़ा दिया है कि सरकार ने उनकी ओर से दिए गए बेरोजगारी के आंकड़े को जारी नहीं किया.
कुछ लोगों का मानना है कि बढ़ती बेरोज़गारी इस बात का संकेत है कि ज़्यादा लोग नौकरी मांग रहे हैं, क्या ये सच है?
नहीं. बढ़ती बेरोज़गारी को किसी भी हालत में सकारात्मक तरीक़े से नहीं देखा जा सकता है. इस सर्वे में लेबर फ़ोर्स के हिस्सेदारी की दर भी शामिल है जो कि 2012-12 में 39.5 फ़ीसदी से घटकर 2017-18 में 36.9 फ़ीसदी हो गई है.
इसका मतलब तो ये हुआ कि पहले के मुक़ाबले अब तो कम लोग नौकरी तलाश कर रहे हैं. ये तब होता है जब काम तलाश कर रहे लोगों को नौकरी नहीं मिलती है और आख़िरकार थक-हारकर वो नौकरी खोजना बंद कर देते हैं. और इस तरह से वो लेबर फ़ोर्स का हिस्सा भी नहीं रहते हैं.
इसका एक मतलब ये भी है कि अब ज़्यादातर युवा पढ़ाई में ज़्यादा समय लगा रहे हैं, या तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो ऐसा चाहते हैं, या फिर इसलिए कि उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है और वो अभी लेबर फ़ोर्स का हिस्सा नहीं बनना चाह रहे हैं.
विवेक कॉल एक अर्थशास्त्री हैं और ‘ईज़ी मनी‘ के नाम से तीन किताबों की सिरीज़ के लेखक हैं.