आवाज के बादशाह मोहम्मद रफी की डेथ एनवर्सरी पर जानतें हैं उनकी कुछ खास बातें ,

अभी ना जाओ छोड़कर…..पुकारता चला हूं मैं……क्या हुआ तेरा वादा… लिखे जो खत तुझे…….ये एवरग्रीन गाने हैं लीजेंड्री सिंगर मोहम्मद रफी के। अपनी बेहतरीन मेलोडियस आवाज से हिंदी सिनेमा का नया दौर लाने वाले मोहम्मद रफी ने हिंदी समेत 13 भाषाओं और इंग्लिश समेत 7 फॉरेन लैंग्वेज में गाने गाए। देव आनंद, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर जैसे अपने जमाने के दिग्गज अभिनेता को आवाज देकर फिल्मों में चार चांद लगाने वाले मोहम्मद रफी ठीक 42 साल पहले दुनिया से रुख्सत हो गए। इनके चाहनेवालों की तादाद ऐसी कि इनके अंतिम संस्कार में 10 हजार से ज्यादा लोगों पहुंचे थे। भारत सरकार ने इनके निधन पर दो दिनों का सार्वजनिक शोक अनाउंस किया था।
अपने योगदान के लिए पद्मश्री, 6 फिल्मफेयर और नेशनल अवॉर्ड हासिल करने वाले मोहम्मद रफी आज लीजेंड्री नाम न होते अगर 1933 में पाकिस्तान की नाई की दुकान में पंडित जीवनलाल की नजर 9 साल के नाई फिक्को (मोहम्मद रफी) पर ना पड़ती।
मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को कोटला सुल्तान सिंह, अमृतसर में हुआ था। 6 भाई-बहनों के परिवार में रफी दूसरे सबसे बड़े भाई थे। इन्हें घर में सब प्यार से फिको बुलाया करते थे। रफी एक रूढ़ीवादी परिवार का हिस्सा थे, जहां नाच-गाने पर पाबंदी थी, लेकिन रफी अलग थे। गांव की गलियों में गाना गाने हुए एक फकीर को देखकर रफी ऐसे प्रभावित हुए कि रोजाना उसे सुनने का इंतजार करते थे। उस फकीर की नकल उतारते हुए रफी साहब खुद भी रियाज किया करते थे। 9 साल की उम्र में रफी का परिवार लाहौर में रहने पहुंच गया। रफी को कभी पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी, तो उनके पिता ने उन्हें बड़े भाई के साथ खानदानी नाई की दुकान में लगा दिया। 9 साल के रफी नूर मोहल्ला, के भाटी गेट की दुकान पर नाई बन चुके थे।
1933 की बात है जब पंडित जीवनलाल बाल कटवाने पहुंचे। रफी यहां काम करते हुए अमृतसर स्टाइल में वारिस शाह का हीर गुनगुना रहा था। इस आवाज में एक जादू था, जिसने जीवनलाल को प्रभावित किया। जीवनलाल ने रफी को ऑडीशन के लिए बुलाया, जिसे उन्होंने आसानी से पार कर लिया। जीवनलाल ने ही उन्हें पंजाबी संगीत की ट्रेनिंग दी और ये गायिकी में माहिर होते चले गए। ,
1937 में रफी ने महज 13 साल की उम्र में ऑल-इंडिया एक्जीबिशन, लाहौर में पहली पब्लिक परफॉर्मेंस दी। ये मौका उन्हें संयोग से मिला था। दरअसल स्टेज पर बिजली ना होने पर उस जमाने के पॉपुलर सिंगर कुंदनलाल सहगल ने स्टेज पर गाने से इनकार कर दिया। ऐसे में आयोजकों ने रफी साहब को परफॉर्म करने के लिए कहा।

गाना सुनने बैठे दर्शकों में के एल सहगल भी थी, जिन्होंने कहा था, ये लड़का एक दिन बड़ा गायक बनेगा। डायरेक्टर श्याम सुंदर की मदद से रफी फिल्मों में आए। पहला गाना रहा गल बलोच फिल्म का परदेसी..सोनिए ओ हीरिए। लगातार गाने गाते हुए रफी पाकिस्तान में खूब नाम कमा रहे थे।
एक्टर और प्रोड्यूसर नजीर ने मोहम्मद रफी को 100 रुपए और एक टिकट भेजकर बॉम्बे बुलाया। यहां उन्होंने पहले आप (1944) का गाना हिंदुस्तान के हम हैं रिकॉर्ड किया।
नौशाद ने इस रिकॉर्डिंग का किस्सा सुनाते हुए बताया, देशभक्ति गाने में साउंड इफेक्ट देने के लिए सभी सिंगर्स और कोरस गाने वालों को मिलिट्री वालों के जूते पहनाए गए थे। जूतों की आवाज से ही साउंड क्रिएट कर रिकॉर्ड किया गया था। जब रिकॉर्डिंग पूरी हुई तो मोहम्मद रफी के पैरों से खून बह रहा था, लेकिन उनके चेहरे में चमक थी। ये चमक दी अपना पहला हिंदी गाना रिकॉर्ड करने की।

अनमोल गुड़िया (1946), शहीद (1948), दीदार (1951), कोहीनूर (1960) जैसी फिल्मों में बेहतरीन गाने गाते हुए रफी साहब स्टार बन गए। ‘बैजू-बावरा’ में प्लेबैक सिंगिंग करने के बाद रफी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। नौशाद, शंकर-जयकिशन, एसड। बर्मन, ओपी नैय्यर, मदन मोहन जैसे संगीत निर्देशकों की पहली पसंद बन चुके रफी दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार, धर्मेंद्र, शम्मी कपूर और राजेश खन्ना की आवाज बन गए।
मोहम्मद रफी साहब लग्जरी गाड़ियों के शौकीन थे। उन्होंने अमेरिकी इम्पोर्टेड कार इंपाला खरीदी थी। राइट हैंड ड्राइव वाली ये कार भारत के गिने-चुने लोगों के ही पास थी। रफी साहब का ड्राइवर पुराना था जो राइट हैंड ड्राइविंग समझ नहीं पा रहा था। जब नया ड्राइवर ढूंढा तो पुराने वफादार ड्राइवर सुल्तान का घर कैसे चलेगा इस चिंता में रफी साहब ने उसे टैक्सी खरीदकर दी। ये टैक्सी उस जमाने में 70 हजार की थी। रफी साहब की उस समय की दरियादिली का नतीजा ये निकला की सुल्तान के पास आज 12 टैक्सी हैं।
जब मोहम्मद रफी हज से लौटे तो कुछ मौलवियों ने उन्हें गाने ना गाने की सलाह दी। मोहम्मद रफी ने भी बात मानकर गाना गाना छोड़ दिया, लेकिन कुछ समय बाद जब फैंस उदास होने लगे तो उन्होंने गायिकी को इबादत बताते हुए दोबारा गाना शुरू कर दिया।
रफी साहब की मौत के बाद एक फकीर उनके घस्टर पहुंचा और रफी से मिलने की जिद करने लगा। जब परिवार वालों ने फकीर को बैठाकर वजह पूछी तो उसने बताया कि उसका घर चलाने के लिए रफी साहब हर महीने कश्मीर खर्च भेजते थे, लेकिन कुछ महीनों से खर्च आना बंद हो गया है। रफी साहब के सेक्रेटरी ने इस बात की पुष्टि करते हुए बताया कि रफी साहब बिना किसी को बताए कई लोगों का घर चलाया करते थे।
बायोग्राफी नौशादनामा में रफी साहब के जज्बे का एक किस्सा लिखा गया है। बैजू बावरा फिल्म के गाने ओ दुनिया के रखवालों में रफी को हाई स्केल में रिकॉर्डिंग करनी थी। इसके लिए रफी साहब ने कई दिनों तक लगातार घंटों रियाज किया था। जब गाने की फाइनल रिकॉर्डिंग हुई तो रफी साहब के गले से खून रिस रहा था। इस गाने के बाद कई महीनों तक रफी साहब ने कोई गाना नहीं गाया। बताया जाता है कि एक कैदी ने फांसी की सजा के दौरान ये गाना सुनने की आखिरी इच्छा जाहिर की थी। जेलर ने जेल में ही रिकॉर्डर पर ये गाना बजाया और फांसी दी।

रफी साहब एक शो के लिए ब्रिटेन के कोविंट्री पहुंचे थे। यहां खाना रफी साहब की पसंद का नहीं था, तो उनका मिजाज खराब हो गया। वहीं मिलने पहुंचे बेटे और बहू से रफी साहब ने पूछा कि यहां से लंदन कितना दूर है। जवाब मिला, सिर्फ 3 घंटे। रफी साहब ने तुरंत बेटी यास्मीन को कॉल किया और कहा क्या तुम घंटे भर में दाल-चावल और चटनी पका सकती हो। बात बनी तो रफी साहब तुरंत गाड़ी लंदन रवाना हो गए। भारतीय खाना खाया और दोबारा शाम 7 बजे तक ब्रिटेन लौट आए। लोगों के उनके अचानक होने का कारण जाना तो हर कोई हैरान रह गया।
31 जुलाई 1980 को रात करीब 10ः25 बजे मोहम्मद रफी ने हार्ट अटैक से दम तोड़ दिया। अगली सुबह इन्हें जुहू के कब्रिस्तान में दफनाया गया। इनके अंतिम दर्शन में करीब 10 हजार लोग शामिल हुए थे। भारत सरकार ने रफी के निधन पर दो दिनों का सार्वजनिक शोक अनाउंस किया था।