विरासत में कुर्सी मिलती है…मेडल नहीं : मिल्खा सिंह

मिल्खा सिंह से लखनऊ आने पर तीन मुलाकातें हुईं थीं, लेकिन उनसे बात करने का मौका दूसरी बार में मिला। करीब 15 साल पहले एक निजी स्कूल के कार्यक्रम में वह मुख्य अतिथि थे और सोफे पर सबसे आगे लाल ब्लेजर में बैठे थे। परिचय देते ही बोले, पूछो बेटा क्या पूछना है? काफी देर से मन में घुमड़ रहे सवाल आपस में उलझ गए और पहला सवाल ही ऐसा था कि सोचकर हंसी आती है। मैंने पूछा कि लखनऊ आकर कैसा लगा, मिल्खा हंसे और बोले, बहुत अच्छा लगता है, कई बार आ चुका हूं।

मैं दूसरा सवाल सोच ही रहा था कि उन्होंने इशारे से बैठने को कहा। पूछा, कुछ खेलते हो? मैं बोला क्रिकेट। मिल्खा बोले, शाबास कुछ भी खेलो पर फिट रहो। बातचीत का सिलसिला खेलसंघों पर काबिज राजनेताओं तक पहुंचा। चेहरे पर सख्ती और नाराजगी के भाव लाते हुए मिल्खा बोले, खेलसंघों पर काबिज नेताओं और चाटुकारिता करने वालों को सोचना चाहिए कि विरासत में कुर्सी मिल सकती है, मेडल नहीं। मेरा लड़का सिर्फ मिल्खा की औलाद होने की काबिलियत लेकर क्या पदक जीत सकता है, कभी नहीं। स्कूल और कालेजों के कार्यक्रम में इसलिए जाता हूं, क्योंकि बच्चों को मेहनत करते देखता हूं तो अच्छा लगता है। देश में एथलेटिक्स और खेलों की दशा पर चि‍ंता जताते हुए बोले कि मुझे दौड़े हुए पचास-पचपन साल हो गए हैं। मेरी उम्र अस्सी साल की होने वाली है, लेकिन हम एक और मिल्खा सिंह को नहीं निकाल पाए। खेलों में व्याप्त राजनीति के चलते ही मैंने और पत्नी ने फैसला किया था कि बच्चे को स्पोट्र्स में नहीं डालेंगे, लेकिन अपनी मेहनत से जीव (जीव मिल्खा सिंह) इंटरनेशनल गोल्फर है। अपने संघर्ष के दिनों की यादें साझा करते हुए मिल्खा सिंह ने कहा कि जब वह दौड़ते थे, तब देश के अंदर न तो बढिय़ा जूते बनते थे न ही ट्रैक सूट पहना था।

आज भारत में किसी चीज की कमी नहीं है। कमी है तो बस आत्मविश्वास और कड़ी मेहनत की। आजकल अधिसंख्य खिलाडिय़ों का मकसद होता है खेल कोटे से सरकारी नौकरी पाना। खेल के बूते अफसर बनने के बाद तो खिलाड़ी मैदान का रुख नहीं करते तो क्या राजनेता बच्चों को ट्रेंड करेंगे। खुद के राजनीति में आने पर बोले मुझे आना होता तो 1958 में ही आ जाता। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मुझे आफर दिया था। लेकिन यह आफर न स्वीकारने की सिर्फ एक ही वजह थी कि मैं एक खिलाड़ी हूं, राजनीति से मेरा कोई वास्ता नहीं है। मिल्खा आज हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी एक-एक बात आज भी प्रासंगिक हैं। रोम ओलंपिक के हीरो की यादें खेल जगत के रोम-रोम में बसी रहेंगी। अलविदा मिल्खा जी।