12 जून,1975 यानी आज से ठीक 48 साल पहले। सूरज उगने से पहले ही इंदिरा गांधी को एक बुरी खबर मिली। उनके करीबी सलाहकार दुर्गा प्रसाद धर की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी। इंदिरा ने कुछ दिन पहले ही धर को मॉस्को से बुलवाया था।
दिन निकला तो प्रधानमंत्री आवास की हलचल रोजाना से अलग थी। इंदिरा गांधी के सबसे वरिष्ठ सचिव कृष्ण अय्यर शेषन बहुत बेचैन थे। वो एक याचिका पर इलाहाबाद होईकोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे थे।
ये याचिका 1971 लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ दायर की गई थी। याचिकाकर्ता थे चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वी और समाजवादी नेता राज नारायण। फैसला सुनाने वाले न्यायाधीश थे जस्टिस जग मोहन लाल सिन्हा।
जस्टिस सिन्हा को फैसला टालने के लिए प्रलोभन से लेकर धमकियों तक सब मिला। उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जज का पद तक ऑफर किया गया, लेकिन साम दाम दंड भेद सब नाकाम रहे।
55 साल के जस्टिस जग मोहन लाल सिन्हा सुबह 9 बजकर 55 मिनट पर कोर्ट रूम पहुंचे। इलाहाबाद हाईकोर्ट का कमरा नंबर 24 खचाखच भरा हुआ था। सुबह के ठीक 10 बजे जस्टिस सिन्हा अपनी कुर्सी पर विराजमान हुए। उनके सामने 258 पन्ने का फैसला रखा था, जिसे उन्होंने तमाम रुकावटें पार करते हुए लिखा था। जो आने वाले वक्त में देश की किस्मत लिखने जा रहा था। जस्टिस सिन्हा ने फैसले को पढ़ते हुए कहा, ‘याचिका स्वीकार की जाती है।’
कुछ ही मिनटों में खबर दिल्ली के प्रधानमंत्री आवास पहुंच चुकी थी। एनके शेषन लपककर इंदिरा के कमरे के पास पहुंचे। कमरे के बाहर उनके बेटे राजीव गांधी खड़े थे, जिन्हें शेषन ने कागज का एक टुकड़ा थमा दिया। उस पर लिखा था, ‘मिसेज गांधी अनसीटेड’। इंदिरा को उनके पॉलिटिकल करियर की सबसे बुरी खबर बेटे राजीव ने सुनाई।स्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा को चुनावी धांधली का दोषी बताया और रायबरेली से उनका निर्वाचन रद्द कर दिया। द रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट के तहत इंदिरा गांधी को 6 साल तक चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया। जिन सात मुद्दों पर कोर्ट ने सुनवाई की थी, उनमें से पांच में इंदिरा को राहत मिल गई, लेकिन दो मुद्दों पर वो घिर गईं।
इस फैसले के बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया। जस्टिस सिन्हा ने अपने ही वर्डिक्ट पर 20 दिन का स्टे लगाया ताकि इंदिरा सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकें और कांग्रेस पीएम पद के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर सके। इंदिरा गांधी 23 जून 1975 को इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं।
1971 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस दो हिस्सों में बंट चुकी थी। किसी जमाने में जवाहरलाल नेहरू के करीबी रहे और इंदिरा को बेटी मानने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने इंदिरा के खिलाफ मोर्चा संभाल रखा था। इंदिरा कमजोर नजर आ रही थीं।
यूपी की रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी को चुनौती दे रहे थे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राज नारायण। राज नारायण अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त लग रहे थे कि नतीजे आने से पहले ही विजय जुलूस तक निकाल दिया, लेकिन इंदिरा गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ नारा भारी पड़ गया। जब नतीजे आए, तब इंदिरा गांधी 1 लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत गईं।
हार के बाद राज नारायण चुप नहीं बैठे। उन्होंने अदालत का रुख किया। चुनाव में धांधली से जुड़े 7 मामलों की लिस्ट कोर्ट को सौंपी जिनके आधार पर इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द किए जाने की मांग की गई। चार साल सुनवाई चली, जिसके बाद 12 जून 1975 को फैसला आया।
इंदिरा के खिलाफ साबित होने वाला पहला आरोप उनके इलेक्शन एजेंट यशपाल कपूर से जुड़ा हुआ था। कपूर प्रधानमंत्री सचिवालय में ‘ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी’ के तौर पर पोस्टेड थे। उन्होंने 13 फरवरी,1971 को पद से इस्तीफा दिया, जिसे अगले दिन 14 फरवरी को स्वीकार कर लिया गया। 25 फरवरी को इसे लेकर नोटिफिकेशन जारी किया गया। कपूर 4 फरवरी, 1971 को इंदिरा गांधी के इलेक्शन एजेंट बनाए गए, लेकिन उन्होंने पहले से ही चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया था। 7 और 19 जनवरी को कपूर ने जो चुनावी भाषण दिए, उन्हें RP एक्ट की धारा 123(7) का उल्लंघन माना गया।
दूसरा गंभीर आरोप जो साबित हुआ, वो था चुनाव प्रचार के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करना। कोर्ट ने पाया कि सरकारी खर्चे पर इंदिरा के लिए मंच, शामियाने, लाउड स्पीकर और बैरिकेड्स लगाए गए। इसमें रायबरेली में पोस्टेड यूपी के पुलिस अधिकारियों से लेकर राज्य के गृह सचिव तक ने उनकी मदद की
12 जून को कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी के आवास 1, सफदरजंग रोड पर कैबिनेट मंत्रियों का तांता लगने लगा। सबके चेहरों पर बदहवासी छाई हुई थी। विपक्षी पार्टियों ने एक सुर में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग शुरू कर दी।
इंदिरा के निजी सचिव रहे आर के धवन ने साल 2015 में दिए एक टीवी इंटरव्यू के दौरान कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी इस्तीफा देने के लिए तैयार थीं।
कुलदीप नैयर अपनी किताब में लिखते हैं, “बंद कमरे में इंदिरा अपने परिवार के साथ ये तय करने के लिए बैठीं कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए। उनके दोनों ही बेटे राजीव और संजय उनके इस्तीफा देने के खिलाफ थे। कुछ दिनों के लिए भी नहीं। संजय ज्यादा ही उग्र थे।”
संजय गांधी ने केवल सलाह नहीं दी बल्कि जोर-शोर से ये दिखाने में जुट गए कि इंदिरा गांधी के इस्तीफे का सवाल ही पैदा नहीं होता। गांव से ट्रकों और डीटीसी की बसों में भरकर लोग लाए गए। भीड़ इंदिरा के आवास के सामने उनके समर्थन में इकट्ठी हो गई
इस बीच विपक्ष का विरोध लगातार बढ़ता जा रहा था। 14 जून को सभी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर देशव्यापी इंदिरा विरोधी अभियान शुरू किया।
इस बीच 24 जून को इंदिरा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। इंदिरा को सशर्त राहत मिली। उन्हें सदन की चर्चा में हिस्सा लेने का हक दिया गया, लेकिन वोट डालने पर रोक जारी रही।
25 जून की शाम को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की बड़ी रैली हुई। जेपी ने उस दिन ओजस्वी भाषण दिया। पुलिस और सेना के जवानों से सत्याग्रह में शामिल होने की अपील की। कहा कि सरकार के गलत आदेशों को न मानें। इंदिरा गांधी जो पहले ही भारी दबाव में थीं, जेपी की इस अपील से तिलमिला उठीं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इंदिरा के साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द मौजूद लोगों का मनोबल बढ़ा दिया था। खासकर वो लोग, जो शुरू से ही इस्तीफे के खिलाफ थे। आर के धवन के मुताबिक पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री एसएस रे की सलाह पर आधी रात को देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई।
जस्टिस सिन्हा आज भी न्यायाधीशों के लिए मिसाल हैं। उनके एक फैसले ने देश की सियासत को बदल डाला। सितंबर 2021 में देश के तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने उन्हें याद करते हुए कहा कि जून 1975 में लिया गया जस्टिस सिन्हा का फैसला भारी हिम्मत का काम था।
इंदिरा बनाम राज नारायण केस की सुनवाई से जुड़े एक और मौके पर जस्टिस सिन्हा ने अपनी बेबाकी से सबको चौंका दिया था। इमरजेंसी वाली तारीख से थोड़ा पीछे चलते हैं। 18 मार्च 1975 को देश के इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री की कोर्ट में पेशी होने वाली थी। इंदिरा गांधी के अदालत पहुंचने में थोड़ा वक्त बचा था। तभी जस्टिस सिन्हा ने वहां मौजूद लोगों से कहा, “अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं, जब जज आते हैं। इसलिए गवाह के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए’’। जब इंदिरा गांधी आईं तब ठीक ऐसा ही हुआ। कोई उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ। इंदिरा ने उस रोज करीब 5 घंटे तक अदालत के सवालों के जवाब दिए।
12 जून का फैसला सुनाने से पहले भी जस्टिस सिन्हा ने गजब की पारदर्शिता बरती। कुलदीप नैयर लिखते हैं, “फैसले का ऑपरेटिव हिस्सा 11 जून को ही सिन्हा की मौजूदगी में टाइप किया गया था और स्पष्ट रूप से सिन्हा ने उसी समय अपने स्टेनोग्राफर को कहा होगा कि वह ‘गायब’ हो जाए। सिन्हा ने अपने फैसले को पूरी तरह अपने तक ही रखा था।”
खुद जस्टिस सिन्हा और उनकी पत्नी भी फैसले से एक रात पहले अपने घर से गायब हो गए थे, ताकि कोई उनसे संपर्क न कर सके। जाहिर है जस्टिस सिन्हा नहीं चाहते थे कि फैसला किसी भी तरह से प्रभावित हो।
भारतीय राजनीति के इतिहास में जितनी अहम 25 जून 1975 की तारीख है, उतनी ही, या शायद उससे थोड़ी ज्यादा अहम 12 जून 1975 की तारीख है।