चुनाव सुधारों की दिशा में भारत में प्रयासों का लंबा इतिहास, बदलाव की राह पर बढ़ना जरूरी

भारत में चुनाव सुधारों की दिशा में प्रयासों का लंबा इतिहास है। कुछ सुधारों की पहल चुनाव आयोग की तरफ से हुई तो कुछ की न्यायपालिका और सरकार की ओर से। जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के पारित होने और 1952 में पहले आम चुनाव के बाद से ही प्रक्रिया में सुधार की मांग उठने लगी थी। इन सुधारों में चुनाव के दौरान पैसे और ताकत के प्रयोग को कम करने से लेकर मतदान की न्यूनतम आयु घटाने जैसे कई कदम थे। चुनावों में पारदर्शिता और निष्पक्षता भी राजनीतिक चर्चा का विषय रहा है।
चुनाव सुधारों को लेकर कुछ उम्मीदें हमेशा रहती हैं, जैसे सभी सुधार मतदाताओं को केंद्र में रखकर होने चाहिए और साथ ही इनसे लोकतांत्रिक तरीके से निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनावों को बढ़ावा मिलना चाहिए। पैसे और अन्य प्रकार के प्रलोभन पर रोक लगाने या अन्य किसी प्रकार से मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश पर लगाम भी बहुत जरूरी है।

मतदाताओं को केंद्र में रखने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग बिना किसी दबाव के और सोच-विचारकर करे। मतदाता को उम्मीदवार के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। लोगों को किसी उम्मीदवार के पीछे खड़ी पार्टी के लक्ष्य एवं उद्देश्य को लेकर भी जागरूक होना चाहिए। यदि कोई प्रत्याशी निर्दलीय चुनाव लड़ना चाह रहा है, तब भी उसकी शिक्षा और आपराधिक पृष्ठभूमि समेत सभी बातें मतदाताओं के समक्ष आनी चाहिए। साथ ही राष्ट्रीय मुद्दों पर उसके विचारों के बारे में भी लोगों को पता होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस बात का निर्देश दे चुके हैं कि नामांकन के समय उम्मीदवार की तरफ से उसके आपराधिक रिकार्ड की जानकारी दी जानी चाहिए। साथ ही यह भी कहा गया है कि यदि कोई राजनीतिक दल किसी आपराधिक छवि के व्यक्ति को प्रत्याशी बनाता है, तो वह इस बात का कारण बताए कि उसने अपेक्षाकृत सही छवि के लोगों की तुलना में उसे क्यों प्राथमिकता दी। इस संदर्भ में बस एक और सुधार की जरूरत है कि यदि ऐसे किसी मामले में समीक्षा के बाद अदालत चार्जशीट को स्वीकार कर ले और उसमें यदि ऐसा कोई अपराध हो, जिसके लिए दो साल या इससे ज्यादा की सजा हो सकती है, तो उस प्रत्याशी को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए।
राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों से भी स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान प्रभावित होता है। विभिन्न दलों और उम्मीदवारों द्वारा किए गए झूठे वादों को चुनाव खत्म होने के बाद सत्ताधारी दल भूल जाते हैं। इसे रोकने के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र को कानूनी दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाए और उसमें किए गए वादों को कानूनी रूप से लागू करने की बाध्यता हो। यह बात निर्वाचित उम्मीदवारों द्वारा व्यक्तिगत रूप से किए गए वादों पर भी लागू होनी चाहिए। जनहित याचिकाओं के माध्यम से मतदाताओं को भी इस बारे में जानने व पूछने का अधिकार मिलना चाहिए।
चुनावों में धन बल के प्रयोग को कम करने के लिए चुनाव आयोग को प्रत्येक उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा को सख्ती से लागू करना चाहिए। सीमा से अधिक खर्च के मामलों में चुनाव आयोग द्वारा सख्ती से कार्रवाई की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट पहले कह चुका है कि सांसदों व विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई के लिए अलग-अलग अदालतें बनाई जाएं। इन मामलों में चुनाव आयोग द्वारा दायर मामलों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना चाहिए कि ऐसे मामलों का फैसला छह महीने के भीतर हो। ऐसा कोई निर्देश नहीं होने की स्थिति में ऐसे मामले कई साल तक चलते रह जाते हैं।
एक और चुनावी सुधार जो किया जाना चाहिए वह यह है कि एक मतदाता को पूरे देश में किसी भी राज्य के किसी भी शहर से मतदान करने की अनुमति मिले। यह तभी संभव हो सकता है जब मतदाता के पास आधार कार्ड जैसा कोई पहचान पत्र हो और सभी मतदान केंद्रों को इलेक्ट्रानिक रूप से जोड़ा जाए। इसके लिए मतदाता पहचान पत्र को आधार से अनिवार्य रूप से जोड़ने जैसा प्रविधान किया जाना चाहिए। आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने की अनुमति नहीं देने के अपने पहले के फैसले पर पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट में भी अपील की जानी चाहिए। बैंक खाता, राशन कार्ड और हवाई टिकट की तरह मतदान के लिए भी इसे अनिवार्य किया जाना चाहिए।