घोसी उपचुनाव में दिए गए ओम प्रकाश राजभर के इस बयान ने सूबे में जातीय सियासत की चिंगारी सुलगा दी है। सवर्णों के खिलाफ स्वामी प्रसाद मौर्या की जहरीली जुबान तो आग बरसा ही रही थी, अखिलेश यादव के PDA और जातीय जनगणना ने इसे और हवा दी।
इसके काउंटर में उतरे राजभर ने अहीरों की बुद्धि पर सवाल खड़े कर दिए। घोसी से शुरू हुए इस सियासी घमासान से संकेत साफ है कि 2024 तक जातीय जहर और ज्यादा घोला जाएगा। प्रदेश की 80 सीटों की सियासत इसी के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देगी।
जातीय सियासत की इस पटकथा में भाजपा भी पीछे नहीं है। अखिलेश और मायावती को पटखनी देने के लिए पूरी जातीय रणनीति तैयार की गई है। BJP यादवों और मुस्लिमों पर निर्भर रहने वाली सपा को यादवों से ही भिड़वाने की तैयारी में है। इसी तरह मायावती को सिर्फ जाटव के नेता तक सीमित करने की कोशिश है।
जातीय सियासत के संकेत तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से ही दे दिए थे। विश्वकर्मा समाज को लेकर 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिए गए भाषण की आंच यूपी तक पहुंची। भाजपा के नेता यहां भी जातीय गुणा-गणित में सक्रिय हो गए। घोसी चुनाव तो एक ट्रेलर होगा, पूरी पिक्चर 24 के लोकसभा चुनाव में ही दिखाई देगी।
दरअसल, यूपी में जातीय समीकरणों का जो अनुमानित आंकड़ा बताया जाता है, उसमें पहले नंबर पर पिछड़ा वर्ग का है। दूसरे नंबर पर दलित और तीसरे पर सवर्ण व चौथे पर मुस्लिम आते हैं। यहां ओबीसी वोटर्स की संख्या सबसे ज्यादा 52%, दलित वोटरों की संख्या 22 से 23%, सवर्ण 20 से 22% और 5% अदर्स में आते हैं। सभी दलों का सबसे ज्यादा फोकस 52 प्रतिशत ओबीसी पर रहता है। हर दल उन्हें अपने पाले में करने का प्रयास करता है।
दरअसल, यूपी में सरकारी तौर पर जातीय आधार पर कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है, लेकिन अनुमान के मुताबिक, यूपी में 52 प्रतिशत ओबीसी वोट बैंक है। इस ओबीसी समाज में 79 जातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर कुर्मी समुदाय है।
CSDS के आंकड़ों के मुताबिक, ओबीसी जातियों में यादवों की आबादी कुल 20% है, जबकि राज्य की आबादी में यादवों की हिस्सेदारी 11 फीसदी है, जो सपा का परंपरागत वोटर माना जाता है। गैर-यादव में ओबीसी जातियों में सबसे ज्यादा कुर्मी-पटेल 10%, कुशवाहा-मौर्या-शाक्य-सैनी 6%, लोध 4%, गडरिया-पाल 3%, कुम्हार/प्रजापति-चौहान 3 %, राजभर 2 और गुर्जर 2% हैं।
भारतीय जनता पार्टी अखिलेश यादव को सिर्फ यादव और मुसलिम वोट बैंक तक समेट देना चाहती है। कुर्मी समुदाय, मल्लाह-निषाद, लोध समुदाय, राजभर, मौर्या समेत 78 ओबीसी जातियों को अपनी ओर लाना चाहती है।
अपना दल की अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद का पार्टी के साथ गठबंधन इसी स्ट्रेटजी का हिस्सा है। इस प्रयोग से भाजपा 20% सवर्ण, 32% गैर यादव ओबीसी, 11% गैर जाटव दलितों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करेगी। इसी के आधार पर लोकसभा चुनाव में 80 सीटों पर जीत का लक्ष्य रखा है।
उत्तर प्रदेश में यादव समाज 80 के दशक से ही बहुत जागरूक और सत्ता में हिस्सेदारी में रहा है। यही कारण है कि अखिलेश के सत्ता से बाहर होने के बाद से यादव समाज फिर सत्ता में हिस्सेदारी तलाशने लगा। भाजपा ने इसे अवसर बनाया। 2017 से ही यादवों में पकड़ मजबूत करने की कोशिश शुरू कर दी।
वर्तमान में खेल मंत्री गिरीश चंद्र यादव हों या राज्य सभा सांसद हरनाथ सिंह यादव, ये यादव समाज में भाजपा के बड़े चेहरे बन गए। आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में भाजपा दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ को मैदान में उतारा। उन्होंने अखिलेश परिवार के सबसे खास धर्मेंद्र यादव को चुनाव में हराया। अब भाजपा इन्हीं बड़े चेहरों के साथ 24 के चुनाव में उतरेगी ओर यादव वोट बैंक में और सेंध लगाने की कोशिश होगी।
उत्तर प्रदेश में इटावा, मैनपुरी, एटा, फर्रुखाबाद, कन्नौज, आजमगढ़, फैजाबाद, बलिया, संतकबीरनगर और कुशीनगर समेत कई जिलों में यादव समाज का दबदबा रहा है। यह समाज ओबीसी के कुल वोट बैंक में अपनी 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है।
इनकी सियासत की मजबूती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ब्राम्हण-ठाकुर की राजनीति से अलग और मायावती की दलितों की राजनीति को छोड़कर सिर्फ ओबीसी और मुसलिमों के बल पर यादव समाज से यूपी में 5 बार मुख्यमंत्री रहे हैं।
हालांकि 2014 में मोदी की आंधी के बाद से यादवों का दबदबा लगातार घटता चला गया है। इस दौरान यादवों की पूरी सियासत मुलायम सिंह के परिवार के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी। 2017 का विधानसभा चुनाव इनके लिए सबसे खराब दिन लेकर आया।
2012 में 224 सीटें जीतने वाली सपा सिर्फ 47 सीटों पर सिमट गई। जबकि 47 सीटें जीतने वाली भाजपा 324 सीटों पर पहुंच गई। सीएसडीएस के मुताबिक, यूपी की तमाम ओबीसी जातियों में यादव वोटर्स की हिस्सेदारी करीब 20% है। यूपी की कुल 11 प्रतिशत यादव आबादी के 90 प्रतिशत वोट समाजवादी पार्टी को पड़ते हैं।
उत्तर प्रदेश में MY फॉर्मूले का मतलब मुस्लिम और यादव वोटर से है। दरअसल 1992 की बाबरी विध्वंस की घटना के बाद मुलायम ने ‘एम’ समीकरण पूरी ताकत से बिल्ट किया। उन्होंने लगातार इसकी सियासी फसल काटी।
आज भी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को एमवाई वोटबैंक के गणित पर काफी भरोसा है। लेकिन अब इस फॉर्मूले के साथ ही वह पीडीए के फॉर्मूले पर भी चल रहे हैं। जिसमें वह पिछले, दलित और अल्पसंख्यक को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
ऊपर जो ग्राफ आप देख रहे हैं, वह उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन का है। यह ग्राफ बता रहा है कि कैसे मायावती 13 विधायकों से 206 विधायकों तक पहुंची और फिर 1 विधायक तक सिमट कर रह गईं। यानी जिस दलित वोट बैंक ने उन्हें सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया, उसी ने नीचे भी उतार दिया।
वर्ष 2007 में मायावती दलित और ब्राम्हणों के सोशल इंजीनियरिंग से सत्ता में आईं। इसी दौरान एक इंटरव्यू में मायावती से जब उत्तराधिकारी के बारे में सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा कि मेरा उत्तराधिकारी कोई चमार ही होगा। यह दलितों की एक उपजाति होती है। इसके बाद से ही मायावती का डाउनफाल शुरू हो गया।
सीएसडीएस के मुताबिक (2007) यूपी विधानसभा चुनावों में 30.43% वोट के साथ मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इसके बाद 2009 में लोकसभा में बसपा का वोट बैंक गिरकर 27.4% रह गया। हालांकि, उन्होंने 21 सीटें जीती थीं। 2012 का चुनाव आते आते बसपा की चमक और फीकी हो गई।
ब्राम्हण और कुछ दलित वोट मायावती से कट गया, बसपा सिर्फ 80 सीटों पर सिमट गई। यहां तक कि वोट शेयर भी 5% घटकर 25.9% पर आ गया। 2014 लोकसभा चुनाव मायावती के लिए किसी बुरे सपने जैसा साबित हुआ और बसपा ने 20% वोट तो हासिल किए लेकिन उसका खाता नहीं खुल पाया। 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा सिर्फ एक सीट ही जीत पाई।
सूबे में तकरीबन 21 प्रतिशत दलित वोट बैंक है। इनमें 66 उपजातियां पाई जाती हैं, ओबीसी वोट बैंक के बाद सबसे बड़ा वोट बैंक यही है। इसमें जाटव/चमार प्रमुख जाति है, 21 प्रतिशत में इनकी संख्या 10 प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा वाल्मीकि, धोबी, कोरी और पासी भी प्रमुख रूप से इन्हीं में शामिल हैं। यह वोट पूरी तरह से बसपा का कोर वोट बैंक माना जाता था। लेकिन, पिछले दो लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इसमें बिखराव आया है। जाटव के अलावा अन्य दलितों ने बसपा से नाराजगी जताई है। यह वोट बैंक बीजेपी की तरफ खिसक गया है।
राजनीतिक जानकारों के अनुसार, बहुजन समाज आंदोलन में तक़रीबन 60 गैर-जाटव दलित जातियों को नेतृत्व में जगह नहीं मिली। इनमें वाल्मीकि, धोबी, कोरी और पासी शामिल हैं। दलितों में इनका प्रतिनिधित्व 11 प्रतिशत से ज्यादा है। इसीलिए बीजेपी ने इन पर टारगेट किया और तमाम योजनाएं इनको ध्यान में रखते हुए बनाई। इस बार भी बीजेपी का लक्ष्य इस वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखना है। मायावती को सिर्फ जाटव समाज तक सीमित कर देना है।
नगीना, बुलंदशहर, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच,बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर, रॉबर्ट्सगंज
उत्तर प्रदेश में तकरीबन 18% मुस्लिम वोटर्स हैं। जातीय आधार पर यह सवर्ण, ओबीसी और दलितों में शामिल है। राजनीतिक जानकार अभी तक ऐसा मानते रहे हैं कि मुस्लिम वोट बैंक स्टेट में सपा को जबकि केंद्र में कांग्रेस को जाता रहा है। लेकिन सीएसडीएस के मुताबिक, वर्ष 2009 के चुनाव में 3 प्रतिशत मुस्लिमों का वोट बीजेपी को मिला, जबकि 19 तक यह बढ़कर 10 से 12 प्रतिशत तक पहुंच गया। सीएसडीएस के अनुसार यह वोट जनभावनाओं के तहत युवा-बुजुर्ग महिलाओं का रहा है।
अब बीजेपी इसे और मजबूत करने की कोशिश में लगी है। इसीलिए पसमांदा समाज पर विशेष रूप से फोकस किया जा रहा है। तीन तलाक, गरीब मुस्लिमों को योजनाओं का लाभ देकर उन्हें अपनी ओर जोड़ने की कोशिश हो रही है।