सिर्फ 2 से 3 मिनट का सीन में 1500 से ज्यादा लोग शूट में होते हैं , जानिए शूटिंग की सच्चाई

आज हम आए हैं मुंबई के बांद्रा इलाके के माटुंगा रोड की एक लोकेशन पर। यहां एक फिल्म की शूटिंग हो रही है, जिसकी कहानी 1977 की है। फिल्म का एक सीन शूट हो चुका है, जिसमें बड़ी राजनीतिक जनसभा हुई। अब सेट को डिस्मेंटल किया जा रहा है।
सेट पर मौजूद एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर ने बताया- सिर्फ 2 से 3 मिनट का सीन शूट हुआ है। इसके लिए हम 10 दिन से तैयारी कर रहे थे, अभी सेट को पूरी तरह डिस्मेंटल करने में 2 दिन लगेंगे। 500 लोगों का क्रू शूटिंग में मौजूद है। इसके बाद अगले सीन की शूटिंग के लिए कहीं और सेट लगेगा।
इस 2 मिनट के सीन के लिए 500 लोगों के क्रू ने 10 दिन मेहनत की। 1500 से ज्यादा लोग इस सीन के शूट में थे क्योंकि इसमें एक पॉलिटिकल सभा दिखानी थी, इन डेढ़ हजार लोगों को VFX से 4-5 हजार की भीड़ में बदला जाएगा।
सेट पर पुराने कपड़ों के बक्से भरे पड़े हैं, एक टीम इन कपड़ों पर प्रेस कर रही है, क्योंकि सीन 1977 का है तो इन 1500 लोगों के कॉस्ट्यूम भी वैसे ही यूज होंगे। दो वक्त के खाने से लेकर एम्बुलेंस की व्यवस्था तक, सेट पर सब कुछ मौजूद है। इसी सेट पर हमें मिले एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर आयुष बिल्लौरे, जिन्होंने प्रोडक्शन से जुड़ी बारीकियां हमसे शेयर कीं।
आयुष बताते हैं, शूटिंग शुरू होने से पहले हमें फिल्म की स्क्रिप्ट मिलती है। उसी के मुताबिक शूटिंग लोकेशन की तलाश की जाती है। इसमें काफी वक्त लगता है। अलग-अलग शहरों में जाकर लोकेशन तलाशनी पड़ती है।
आयुष कुल 8 लोगों के साथ मिलकर प्री-प्रोडक्शन वर्क करते हैं। बेस चेक करना, ग्राउंड प्लानिंग, टेक्नोलॉजी और इक्विपमेंट्स की जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से पूरी टीम का काम बंटा हुआ है।
3-4 जगह शाॅर्ट लिस्ट करने के बाद हम डायरेक्टर को उन शूटिंग लोकेशन के बारे में बताते हैं। फिर टीम उसे देखने जाती है, जिसमें प्रोड्यूसर और डायरेक्टर भी शामिल होते हैं। जो लोकेशन सबको पसंद आ जाती है, उसको लाॅक करके हम अपना काम शुरू कर देते हैं। कई बार कुछ लोकेशन कॉमर्शियली बजट में फिट नहीं बैठतीं, फिर हमें दूसरा ऑप्शन ढूंढना पड़ता है।
आयुष बताते हैं कि फिल्म में 2 मिनट के सीन का सेट लगाने में 10 दिन तक लग जाते हैं। सेट बनाने से पहले हमें पूरी ग्राउंड प्लानिंग करनी पड़ती है। जिसमें हम लोकेशन पर शूटिंग से जुड़ी सभी चीजों का इंतजाम करते हैं। वैनिटी वैन पहुंचाने से लेकर जनरेटर तक का सारा इंतजाम हमारी टीम को ही करना पड़ता है। हर जगह ट्रैक मार्क लगाना जरूरी होता है। रात भर जाग कर पूरी टीम काम करती है, ताकि अगले दिन सुबह से शूटिंग बिना देरी के शुरू हो सके। ग्राउंड प्लानिंग में पूरे 2 दिन लग जाते हैं।
आयुष बिल्लौरे ने एक फिल्म के शूटिंग सेट से हमसे बात की। उन्होंने इस दिन की शूटिंग के बारे में बताते हुए कहा- आज इस सेट पर कुल दो हजार लोग हैं। लगभग डेढ़ हजार लोग एक सीन की शूटिंग के लिए बुलाए गए हैं, जो जूनियर आर्टिस्ट हैं, बाकी 400-500 लोग क्रू मेंबर्स हैं।

सीन में हम 3-4 हजार लोगों की भीड़ दिखाने के लिए उतने लोगों को इकट्ठा नहीं कर पाते हैं, इसलिए डेढ़-दो हजार लोगों के साथ शूटिंग कर लेते हैं, फिर उसे VFX के जरिए 3-4 हजार लोगों की भीड़ में बदल देते हैं।

शूट करने से पहले ही डिसाइड था कि आज इस लोकेशन पर 6-7 जनरेटर लगेंगे, तो उस हिसाब से उतने ही जनरेटर लगे हैं। 10-15 वैनिटी वैन भी हैं। शूट के लिए बाहर से बुलाए गए लोगों के लिए अलग से टेंट लगे हुए हैं। इस 2 मिनट के सीन के लिए हम 3 कैमरे से शूट कर रहे हैं।
आयुष की टीम मेंबर संतोष वाघमारे ने हमें बताया कि जिस फिल्म की शूटिंग वो अभी कर रहे है, वो एक पीरियॉडिक फिल्म है, जिसकी कहानी 1977 की है। इसकी शूटिंग के लिए चीजों को इकट्ठा करने के बारे में संतोष बताते हैं- सीन के हिसाब से पूरे सेट की डिजाइनिंग होती है। सीन के हिसाब से जिन शूटिंग प्राॅप्स की जरूरत होती है, उनको सप्लाई कराने की जिम्मेदारी आर्ट डिपार्टमेंट की होती है। ये सब किराए पर मंगवाया जाता है। अगर कुछ ऐसा है जो सप्लायर के पास भी नहीं होता है, तो उसे हम खरीदते हैं।

विंटेज प्रोडक्ट का मिलना थोड़ा मुश्किल होता है। हालांकि हमारी कोशिश यही रहती है कि सीन के लिए जरूरी सभी प्राॅप्स हमें समय पर मिल जाएं। प्राॅप्स के अलावा एक्टर से लेकर क्राउड और आर्टिस्ट तक, उनकी हर बारीकी पर हमें काम करना होता है।
लोकेशन की तरह ही स्क्रिप्ट में गाड़ियों के बारे में भी लिखा होता है। उसी के हिसाब से हम गाड़ियां अरेंज करते हैं। शूट के हिसाब से जिन गाड़ियों की जरूरत होती है, पहले उनको डायरेक्शन टीम के साथ मिलकर शाॅर्ट लिस्ट किया जाता है। फिर जिन वेंडर्स के पास वैसी गाड़ियों का कलेक्शन होता है, उनसे हम ये गाड़ियां लेते हैं।
शूटिंग प्लेस पर कॉस्ट्यूम को रखने का इंतजाम भी हम करते हैं। सीन के हिसाब से जिस कॉस्ट्यूम की जरूरत होती है, उसे कॉस्ट्यूम डिजाइनर से बनवा कर फाइनल कर लिया जाता है। जूनियर आर्टिस्ट के साइज के हिसाब से बाॅक्स होता है, जिनमें उनके कपड़े रखे होते हैं।

कपड़े और एक्सेसरीज रखने के लिए एक बड़ी जगह की जरूरत होती, जिसका इंतजाम हम करते हैं। कपड़ों को प्रेस करने की भी सुविधा देते हैं। शूटिंग शुरू होने से पहले इन सारी चीजों को हम एक जगह प्रॉपर तरीके से रख देते हैं।
शूटिंग सेट पर हमने जो फायर मार्शल हायर किए हैं, वो गवर्नमेंट सर्टिफाइड होते हैं। सेट पर कभी कोई हादसा हो जाता है, तब फायर मार्शल पूरी सहजता के साथ आग पर काबू पा लेते हैं, जिस वजह से बड़े नुकसान से हम बच जाते हैं। इसके अलावा हम जिस जगह शूटिंग कर रहे होते हैं, वहां के नजदीकी अस्पताल और फायर ब्रिगेड की जानकारी रखते हैं। साथ ही सेट पर इमरजेंसी के लिए एम्बुलेंस और डॉक्टर की सुविधा भी होती है।
जिस लोकेशन पर शूटिंग होती है, उसके लिए लीगल परमिशन लेनी पड़ती है। BMC, PWD और पुलिस परमिशन इसमें शामिल होती है। शूटिंग लोकेशन के जो प्रोटोकॉल होते हैं, वो हमें फॉलो करने पड़ते हैं। सेट और उसके आस-पास की सफाई भी हमें ही करनी पड़ती है।

सेट पर हाउस कीपर होते हैं, जो कचरा उठाकर डस्टबिन में डाल देते हैं, फिर उन्हें BMC की कचरा उठाने वाली गाड़ियां उठा लेती हैं। BMC दिन में 3 बार कचरा उठाने के लिए गाड़ी भेजती है।
सेट पर जूनियर आर्टिस्ट और क्राउड के लिए खाने का इंतजाम भी हमें ही करना पड़ता है। सबके खाने का टेंडर एक कैटरर को देते हैं, फिर वो 10 कैटरर के साथ अपने काम को बांट लेते हैं और सेट पर खाना पहुंचाते हैं। खाने में ब्रेकफास्ट, लंच, शाम को स्नैक्स और डिनर शामिल होता है।
लोकेशन मिलने के बाद हमें बहुत सारे टर्म और कंडीशन को फॉलो करना पड़ता है। जिस कंडीशन में हम प्रॉपर्टी को शूटिंग के लिए लेते हैं, शूटिंग के बाद हमें उसी हालत में लोकेशन को लौटाना पड़ता है। शूटिंग के बाद हम सेट को प्रॉपर तरीके से डिस्मेंटल करते हैं, जिसे करने में 2-3 दिन लग जाते हैं।
आयुष बताते हैं- फिल्म राम सेतु में मैंने अक्षय कुमार के साथ काम किया था, जिसमें काम करने का अनुभव सबसे अच्छा था। फिल्म की शूटिंग हमने अलग-अलग शहरों में जाकर की थी।

इसकी शूटिंग के दौरान अक्षय कुमार ने मेरी तारीफ की थी। उन्होंने ये भी कहा था- समय पर खाना खा लिया करो, काम के सिलसिले में इतनी भाग-दौड़ मत किया करो। उनकी इस तारीफ से मुझे बहुत खुशी मिली, लगा कि मैं लाइफ में कुछ बेहतर कर रहा हूं। ये मेरे लिए प्राउड मोमेंट था।
आयुष अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में बताते हैं- मैं इंदौर से 100 किलोमीटर दूर एक गांव बकानेर का रहना वाला हूं। बचपन से ही क्रिएटिव फील्ड में कुछ करने की ख्वाहिश थी। हमारे गांव में एक छोटा सा मेला लगता था, मैं वहां हर दिन नई-नई फिल्म देखने जाता था। उन फिल्मों से मैं बहुत इंस्पायर होता था। इसी के बाद फिल्ममेकर बनने का फैसला किया।
मैंने गवर्नमेंट स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके बाद फिल्म मेकिंग में ही कुछ करना चाहता था, लेकिन परिवार वालों की खुशी के लिए मैंने सिविल इंजीनियरिंग की। पढ़ाई के दौरान भी मैं बहुत क्रिएटिव चीजों से जुड़ा हुआ था। इंजीनियरिंग खत्म होने के बाद मेरा प्लेसमेंट हो गया और नौकरी के सिलसिले में ड्रीम सिटी मुंबई आ गया।
लगभग एक साल तक मैंने नौकरी की, फिर लगा कि इस काम में मेरा भविष्य नहीं है। मैंने जॉब छोड़ दी और फिल्म इंडस्ट्री में काम करने के लिए निकल पड़ा, लेकिन शुरुआत कैसे करूं, इसका मुझे बिल्कुल भी आइडिया नहीं था।
एक दोस्त के कहने पर कास्टिंग से अपना करियर शुरू किया। कास्टिंग कोऑर्डिनेटर से जुड़ा और वहीं से मेरा स्ट्रगल शुरू हुआ। पैसों की तंगी भी जबरदस्त थी, 4 रुपए लेकर घर से निकलता था। जितना होता था, पैदल ही सफर करता था।
जिस प्रोजेक्ट में मैंने पहली बार काम किया था, उसके लिए मुझे एक दिन के 100 रुपए मिलते थे। तकरीबन डेढ़ साल तक मैंने इसी फीस में काम किया। आज मेरे अंडर 8 लोग काम करते है। मैं उन्हें तकरीबन दिन के 2500 रुपए देता हूं।