कोरोना महामारी के इस दौर में वाराणसी शहर के ज्यादातर घाटों पर अत्यधिक मात्रा में पाए गए हरे शैवाल ने भारत सरकार के गंगा स्वच्छता के नारे एवं परियोजना की पोल खोल दी है और तमाम सरकारी दावे धरे के धरे रह गए हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि कहीं यह गंगा के विलुप्त होने का संकेत तो नहीं है? ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भारत सरकार के द्वारा गंगा पुर्नरुद्धार के नाम पर बनाई गईं कई परियोजनाएं घोटाला तो बनकर नहीं रह गई?
गौरतलब है कि गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के उद्देश्य से यानी कि इसके प्राकृतिक बहाव एवं उनकी निर्मलता को पुनः कायम करने के लिए भारत सरकार के द्वारा अब तक कई परियोजनाएं चलाई जा चुकी हैं और उन परियोजनाओं पर वर्ष 2015 तक भारत सरकार की संस्थाओं के जरिये लगभग चार हजार करोड़ रुपये की राशि भी खर्च की जा चुकी है. लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं दिख रहा है.
गंगा रिवर बेसिन मैनेजमेंट प्लान (2015) की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1985-2010 के दौरान गंगा में फीकल कॉलिफोर्म, निर्धारित मानक से अधिक पाया गया था. इसी तरह सीपीसीबी की गंगा प्रदूषण आकलन (2013) की रिपोर्ट के मुताबिक नदी की जल की शुद्धता को प्रदर्शित करने वाले मानक (पीएच, बीओडी लेवल, डीओ, फीकल कॉलिफोर्म, टोटल कॉलिफोर्म) वर्ष 2002 -2011 के दौरान गंगा में निर्धारित मानक से कही अधिक पाए गए थे.
साल 2014 में केंद्र की सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने नदी के प्राकृतिक बहाव एवं निर्मलता को पुनः कायम करने के उद्देश्य से एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन यानी नमामि गंगे परियोजना शुरू की, जिसके लिए 20 हजार करोड़ की राशि को मंजूरी भी प्रदान की गई थी.
अब तक नमामि गंगे परियोजना के शुरू किये तकरीबन 6 वर्ष बीत चुके है, लेकिन इसके पश्चात् भी गंगा नदी की अविरलता एवं प्राकृतिक बहाव को पुनः कायम नही किया जा सका है. दो वर्ष पूर्व सीपीसीबी (2018) के द्वारा गंगा नदी के जल की स्वच्छता पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 -2018 के दौरान गंगा नदी के जल की गुणवक्ता को बहाल नहीं किया जा सका, उलटे चार और स्थानों पर गंगा नदी का पानी दूषित पाया गया. वर्ष 2019 में सीपीसीबी के द्वारा गंगा की सफाई को लेकर जो प्रतिवेदन जारी किया गया था, उसके मुताबिक गंगा एवं उनकी सहायक नदियां (पांडू , नदी सलोनी, फल्गु, गोमती, रामगंगा, वरुणा) पर दिसंबर 2018 से लेकर मार्च 2019 के समयावधि के दौरान एक भी स्थान पर गंगा नदी का पानी साफ नहीं पाया गया.
अगस्त 2020 तक एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन यानी नमामि गंगे परियोजना के तहत कुल 29 हजार करोड़ से भी अधिक राशि की मंजूरी प्रदान की गई है. इसमें से नौ हजार करोड़ रुपये से भी अधिक की रकम खर्च की जा चुकी है. इस परियोजना के तहत अगस्त 2020 तक कुल 317 परियोजनाओं को मंजूरी प्रदान की गई थी, जिसमें से अगस्त 2020 तक मात्र 132 परियोजनाएं ही पूरी हो पाई थीं.
इधर विश्व बैंक की तरफ से गंगा को कायाकल्प करने के लिए तीन हजार करोड़ की ऋण राशि देने का निश्चय किया गया है. जबकि इसके पूर्व वर्ष 2011 में विश्व बैंक की तरफ से गंगा बेसिन प्राधिकार परियोजना के लिए लगभग 4.5 करोड़ रुपये की राशि प्रदान की थी.
विकास की अंधी दौड़ ने गंगा नदी को कचरा ढोने वाली वाहिनी के रूप में तब्दील कर दिया है. साल 2019 की सीपीसीबी रिपोर्ट के मुताबिक गंगा प्रवाह वाले पांच राज्यों के 50 से अधिक शहरों के 257 नालों के जरिये गंगा नदी में प्रतिदिन 10612.51 मीलियन लिटर सीवेज छोड़ा जाता है, जिसमें गंगा नदी की मुख्य शाखा पर 194 नाले स्थित हैं. बाकी 63 अन्य नाले सहायक नदियों पर स्थित हैं.
वहीं, गंगा में कुल प्रदूषण भार का 20 फीसदी औद्योगिक प्रदूषण से है. इसके अलावा गंगा नदी में प्रतिदिन 14 हजार टन ठोस कचरा बहाया जाता है. हालांकि सरकारी संस्थाओं के जरिये यह दावा किया जाता रहा है कि औद्योगिक प्रदूषण फैलाने वाले गैर-अनुपालित (जिन्होंने नियमों का उल्लंघन किया हो) पाए गए इकाइयों के खिलाफ कारवाई की गई है. हालांकि जमीनी हकीकत इससे भिन्न है.
वर्ष 2020 में गंगा नदी की मुख्य शाखा यानी कि कुल 97 शहरों के जरिये गंगा नदी में प्रतिदिन 3250 एमएलडी सीवेज छोड़ा जाता था. जबकि दिनांक 30.05.2020 तक इसकी उपचारण क्षमता 2074 एमएलडी ही थी.
नदी की स्वच्छता बनाए रखने में प्राकृतिक प्रवाह का विशेष महत्व होता है, लेकिन दुख की बात यह है कि सरकार के लिए गंगा नदी मुनाफे कमाने की मशीन मात्र बनाकर रह गई है, जिसका उत्तम उदहारण ई-प्रवाह पर सहमति न बन पाना रहा है.
वर्ष 2006-2018 के दौरान गंगा नदी की स्वच्छता को बहाल करने एवं उनकी स्वच्छता को बनाए रखने के लिए कुल 12 प्रतिवेदन सौंपे गए, जिन पर अब तक सर्वसम्मति नहीं बन पाई. कुल चार प्रतिवेदन में 50 फीसदी तक ई-प्रवाह एवं तीन प्रतिवेदनों में 20-30 फीसदी तक ई-प्रवाह की अनुशंसा की गई थी.
वर्तमान समय में सरकार द्वारा 20-30 फीसदी ई-प्रवाह को मंजूरी प्रदान की गई है, जो नदी के जीवंत रहने के लिए अपर्याप्त है. गंगा नदी के ई-प्रवाह को बनाए रखने में सबसे बड़ा रोड़ा गंगा नदी पर स्थित बैराज एवं बांध प्रणाली है, जो मुनाफे के लिए निर्धारित जल गंगा नदी में नहीं छोड़ रहे हैं.
साल 2014 में आई वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की रिपोर्ट के मुताबिक नदियों में बढ़ता प्रदूषण एवं नदियों का होता अत्यधिक दोहन नदी के विलुप्त होने का कारण बन सकते हैं.गंगा नदी की मौजूदा स्थिति को देखते हुए विशेषज्ञों के द्वारा इस प्रकार का संदेह भी व्यक्त किया जाता रहा है कि कही यह गंगा नदी के विलुप्ति का संकेत तो नहीं है. यदि भारत की 43 फीसदी अर्थव्यवस्था को आधार बनने वाली गंगा नदी विलुप्त हो गई, तो भारत की अर्थव्यवस्था तो ध्वस्त होगी. साथ ही गंगा से जुड़े अन्य पक्षों में भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
तमाम सरकारी दावों के पश्चात् भी गंगा नदी की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है क्योकि गंगा में गिरते औद्योगिक एवं घरेलू सीवेज पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है. साथ ही गंगा नदी की अविरलता को तब तक कायम नही किया जा सकता है, जब तक गंगा नदी के सहायक नदियों की उपेक्षा होती रहेगी. जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय के तहत गंगा संरक्षण के मुद्दे पर मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में गठित प्राक्कलन कमेटी की रिपोर्ट ने गंगा नदी की स्वच्छता के लिए उठाए गए कदमों पर घोर निराशा व्यक्त की थी. इसके साथ ही उन्होंने निश्चित एवं जवाबदेही प्राधिकार के न होने की बात कही थी.
इधर, कैग की रिपोर्ट में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गैर-गंगा बेसीन के तहत खर्च राशि की निंदा की गई थी. साथ ही इस रिपोर्ट में एनएमसी एवं राज्य प्रबंधन समूह के आला अधिकारियों के द्वारा निश्चित समयावधि के दौरान बैठक न करने, क्लीन गंगा फंड की राशि का उपयोग न करने इत्यादि को रेखांकित किया था. वहीं, एनजीटी ने गंगा कायाकल्प के लिए अधिकृत विभिन्न प्राधिकार प्राप्त संस्थाओं द्वारा वर्ष 2014-17 के दौरान गंगा कायाकल्प पर लगभग 7034.64 करोड़ रुपये की राशि खर्च करने के बावजूद भी कोई ठोस नतीजा न निकलने के कारण न केवल उनकी आलोचना की, बल्कि उन्हें निर्देश भी जारी किए कि वे 36 रियल टाइम मॉनिटरिंग के जरिये गंगा नदी के जल की गुणवत्ता का पता लगाएं.
उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार के द्वारा गंगा स्वच्छता के लिए कोई स्पष्ट रूपरेखा न प्रस्तुत की जाने पर घोर निराशा व्यक्त की थी और कहा था कि गंगा बेसिन प्राधिकार का गठन हुए तकरीबन 8.5 वर्ष बीत चुके है, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उसके बावजूद अब तक सरकार के पास गंगा को स्वच्छ बनाने का कोई रोडमैप मौजूद नहीं है. इस प्रकार की रूपरेखा के जरिये गंगा कायाकल्प करने के लिए तो आगामी 200 वर्ष भी कम पड़ जाएंगे.
संक्षिप्त रूप में, हम यह कह सकते है कि गंगा में बढ़ते प्रदूषण के लिए वे तमाम आला अधिकारी जिम्मेदार रहे है, जिन्होंने गंगा कायाकल्प को सुनिश्चित नहीं होने दिया. ऐसा नहीं है कि भारत की गंगा ही एकमात्र विश्व में प्रदूषित नदी है. दुनियाभर में ऐसे तमाम उदहारण देखने को मिल जाएंगे. यदि लंदन की टेम्स नदी को ही देखें तो पता चलता है कि जनजागरूकता एवं तंत्र में सुधार करके टेम्स नदी की स्वच्छता को पुनः बहाल किया जा सका है.
भारत में गंगा कायाकल्प न सुनिश्चित हो पाने के पीछे सबसे बड़ी वजह गंगा स्वच्छता के तहत गंगा नदी की सहायक नदियों की उपेक्षा करना भी रहा है. ज्ञातव्य है कि गंगा नदी में इनकी सहायक नदियों के जरिए तकरीबन 60 फीसदी तक पानी छोड़ा जाता है, यानी गंगा नदी में बहता पानी का केवल 40 फीसदी ही गंगा नदी का पानी है. बाकि शेष पानी गंगा नदी की सहायक नदियों एक जरिये छोड़ा जाता है. इसके चलते पानी के साथ-साथ अपशिष्ट कचरे भी गंगा में आ जाते हैं. इसलिए गंगा नदी तब तक साफ नहीं हो पाएगी जब तक उसकी सहायक नदियों की साफ न किया जाए.
(लेखक बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में शोधार्थी हैं.)