नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली
ऐसे समय में जब नेपाल की संसद भंग कर दी गई हो और देश की व्यवस्था की कमान एक कार्यवाहक सरकार के हाथों में हो, उसके विदेश मंत्री की क्या अहमियत होगी?
यही सवाल भारत के कूटनीतिक हलक़ों में तबसे पूछा जा रहा है जबसे नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली के भारत के दौरे पर आने की बात कही जा रही है.
रविवार को नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपनी संसद के ऊपरी सदन यानी राष्ट्रीय सभा को संबोधित करते हुए कहा कि वो कालापानी-लिपुलेख और लिम्पियाधुरा के 370 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े को नेपाल के अधीन लाना चाहते हैं.
उन्होंने ये भी कहा कि वो ऐसा भारत के साथ बातचीत के ज़रिये ही करना चाहते हैं.
प्रधानमंत्री ओली ने संकेत दिए हैं कि आगामी 14 जनवरी को नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली जब भारत के दौरे पर जाएंगे तो वो इस मुद्दे को उठाएंगे और इसके हल के लिए वार्ता भी करेंगे.
ग़लतफ़हमियां कम करने की कोशिश
ओली के बयान को भारत के लिए अच्छी ख़बर नहीं माना जा रहा है क्योंकि पिछले साल के अंत से ही भारत ने नेपाल के साथ अपने रिश्ते बेहतर करने के लिए क़दम उठाने शुरू किए हैं.
पिछले साल के अक्टूबर माह से लेकर नवंबर तक भारत की तरफ़ से ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ यानी ‘रॉ’ के निदेशक सामंत कुमार गोयल, विदेश सचिव हर्ष वर्धन श्रृंगला और भारतीय सेना के प्रमुख जेनरल एमएम नरवणे ने बारी-बारी से नेपाल का दौरा किया और दोनों देशों के बीच पैदा हुईं ग़लतफ़हमियों को कम करने या ख़त्म करने की कोशिश भी की.
वैसे नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को हमेशा से ही भारत के विरोधी के रूप में देखा जाता रहा है.
उन्होंने अपनी संसद के उपरी सदन में स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा था, “कुछ लोग भारत के साथ ख़राब होते हुए रिश्तों के लिए मुझे ही दोषी ठहराते हैं. क्या मैं अहम मुद्दों को लेकर अपने होंठ सी लूं?”
मगर साथ ही साथ उन्होंने ये भी कहा कि उनका विश्वास है कि सभी लंबित मामलों का हल बातचीत के ज़रिये निकल सकता है. उन्होंने ये दावा भी किया कि भारत के साथ चीज़ें बेहतरी की दिशा में आगे बढ़ भी रही हैं.
सुगौली की संधि
ओली के बयान पर भारत ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है.
भारत में विदेशी मामलों के जानकारों को लगता है कि भारत को नेपाल के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि नेपाल की संसद फ़िलहाल भंग है और ओली सिर्फ़ कार्यवाहक प्रधानमंत्री ही हैं.
विदेशी मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी के अनुसार, “ओली ने जो अपनी संसद के ऊपरी सदन में कहा, वो उनकी राजनीतिक मजबूरी है. ज़रूरी नहीं है कि भारत उसपर कोई प्रतिक्रया ही दे.”
जोशी के अनुसार नेपाल की राजनीति में भारत हमेशा से अहम मुद्दा रहा है. अब ओली क्या कह रहे हैं, वो उतना मायने नहीं रखता जबकि संसद को भंग करने का मामला नेपाल के सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
बीबीसी से बात करते हुए मनोज जोशी कहते हैं कि दोनों देशों के बीच सुगौली की संधि को लेकर पेंच फँसा हुआ है. ये इलाक़ा कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा में भारत-नेपाल और चीन का एक तरह का तिराहा है. ये इलाक़ा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में आता है.
नेपाल और भारत की सरहद
साल 1816 में हुई सुगौली की संधि के अनुसार काली नदी के ‘वाटर-शेड’ यानी पानी के बंटवारे को लेकर पेंच फँसा हुआ है जिसे नेपाल और भारत की सरहद के रूप में माना गया.
इस संधि पर भारत की ओर से ब्रिटेन और नेपाल के राजा के हस्ताक्षर हुए थे. अब नेपाल का कहना है कि 1816 के बाद से 1962 तक इस इलाक़े पर नेपाल का नियंत्रण रहा था.
भारत का दावा है कि उसने इस इलाक़े को चीन के साथ साल 1962 की जंग के बाद बंद कर दिया था.
पिछले साल मई महीने में भारत ने इस रास्ते को खोलने की घोषणा की ताकि कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने वालों को आसानी हो सके.
इस घोषणा के फ़ौरन बाद नेपाल ने अपना नया मानचित्र जारी किया जिसमें कालापानी को नेपाल के अभिन्न अंग के रूप में रेखांकित किया गया.
इसके बाद दोनों देशों के बीच संबंध ख़राब होते चले गए और नेपाल के प्रधानमंत्री ओली भी भारत पर निशाना साधते रहे.
नेपाल के विदेश मंत्री का दौरा
एक बार तो संबंध इतने ख़राब हुए कि दोनों देशों की सीमा पर तनाव पैदा होने लगा.
नेपाल की राजधानी काठमांडू में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमिरे का कहना है कि भारत और नेपाल के बीच इस मामले को लेकर एक संयुक्त आयोग मौजूद है जिसकी बैठकें होती रहती हैं. उनका कहना है कि इस मुद्दे को लेकर द्विपक्षीय वार्ता ही दोनों देशों के बीच पैदा हुई तल्ख़ी को कम कर सकती है. इसलिए नेपाल के विदेश मंत्री का ये दौरा महत्वपूर्ण है.
घिमिरे कहते हैं कि सुगौली की संधि स्पष्ट रूप से पारिभाषित है. इसलिए इसे लागू करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.
लेकिन भारत में कूटनीतिक हलक़ों में नेपाल के विदेश मंत्री के दौरे को लेकर उतनी हलचल नहीं है.
सामरिक और विदेशी मामलों के जानकार कहते हैं कि किसी भी देश के साथ द्विपक्षीय वार्ता से पहले नेपाल की सरकार और प्रधानमंत्री को अपनी ही संसद का विश्वास प्राप्त करना अधिकार की सबसे बड़ी कसौटी है. उनके अनुसार ये अधिकार, फ़िलहाल केपी शर्मा ओली के पास नहीं है.
नेपाल का सुप्रीम कोर्ट
नेपाल की राजनीति पर पिछले कुछ महीनों से संकट के बादल छाये हुए हैं.
मामला अदालत तक पहुँच चुका है और अब वहाँ का सुप्रीम कोर्ट ही तय करेगा कि क्या प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली द्वारा संसद को भंग करने की सिफ़ारिश संविधान विरोधी थी या नहीं? सुप्रीम कोर्ट ये भी तय करेगा कि क्या नेपाल में अप्रैल और मई महीने में फिर से चुनाव होंगे या नहीं जिसकी अनुशंसा ओली ने संसद भंग करते हुए की थी.
ताज़ा घटनाक्रम की वजह से नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही काफ़ी रस्साकशी चल रही है क्योंकि 20 दिसंबर को जैसे ही ओली ने संसद भंग करने का प्रस्ताव राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी को भेजा, वैसे ही पार्टी ने ओली की जगह संगठन का नेतृत्व माधव नेपाल और पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के हाथों में सौंप दिया.
नेपाल में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अभी तक ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि देश का राजनीतिक भविष्य क्या होगा क्योंकि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों गुटों में से किसी ने भी चुनाव आयोग के समक्ष ये नहीं लिख कर दिया है कि पार्टी टूट गई है.
नेपाल की राजनीति
अलबत्ता ओली और उनके विरोधी ख़ेमे ने अपने-अपने स्तर पर पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह पर अपनी दावेदारी ज़रूर पेश की है.
काठमांडू में मौजूद बीबीसी नेपाली सेवा के संपादक जितेंद्र राउत का कहना है कि अभी तक नेपाल में तस्वीर साफ़ नहीं है जबकि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के एक महत्वपूर्ण नेता बामदेव गौतम दोनों गुटों के बीच समझौता कराने की कोशिश कर रहे हैं.
काठमांडू के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर पुष्प अधिकारी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि जिस संविधान की दुहाई इन दिनों नेपाल की राजनीति में दी जा रही है उस संविधान का ‘न कोई ओर न कोई छोर’ नज़र आता है.
वो कहते हैं कि जिस संविधान के प्रावधान की बात केपी शर्मा ओली भी कर रहे थे, वो 1990 वाला संविधान था जिसके तहत प्रधानमंत्री के कई अधिकार स्पष्ट रूप से उल्लेखित किए गए थे.
पुष्प अधिकारी कहते हैं, “नए संविधान में प्रधानमंत्री को संसद भंग करने की सिफ़ारिश करने का अधिकार है ही नहीं.”
राजनीतिक संकट का नया अध्याय
लेकिन रविवार को नेपाल के ऊपरी सदन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ओली ने कहा कि संसद को भंग करना एक राजनीतिक फ़ैसला है जिसका सुप्रीम कोर्ट से लोई लेना देना नहीं है. उन्होंने विरोधी गुट के सांसदों के बहिष्कार के बीच पूछा, “क्या प्रधानमंत्री को इतना भी अधिकार नहीं, वो संसद को भंग करने की अनुशंसा भी नहीं कर सकता?”
विश्लेषकों को लगता है कि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में अगर मौजूदा स्थिति बने रहते हुए चुनाव हो भी जाते हैं तो उससे ओली और पार्टी के अंदर उनके विरोधी गुट – दोनों को भारी नुक़सान का सामना करना पड़ सकता है.
जबकि नेपाली कांग्रेस और दूसरे दल इसका पूरा फ़ायदा उठाने की कोशिश करेंगे.
जानकार ये भी मानते हैं कि अगर नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने संसद को बहाल करने का फ़ैसला दे भी दिया, तो उससे देश में राजनीतिक संकट का एक नया अध्याय खुल जाएगा जिसकी आशंका ओली पहले ही जता चुके हैं.