दुष्यंत चौटाला को मिली सफलता में जाट फ़ैक्टर कितना मददगार?

दुष्यंत चौटाला को बीते वर्ष इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) से बाहर किया गया था और इसके बाद अपने पिता अजय चौटाला के नेतृत्व में उन्होंने जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) का गठन किया.

9 दिसंबर 2018 को जननायक जनता पार्टी का गठन जींद में हुआ और महज़ एक वर्ष के भीतर उसने हरियाणा की राजनीति में अपनी पहली अहम छाप छोड़ी है.

विधानसभा चुनावों में 10 सीटों पर जीत के साथ दुष्यंत हरियाणा की जाट राजनीति के नए कद्दावर नेता बनकर उभरे हैं.

प्रधानमंत्री का पद ठुकराने वाले चौधरी देवीलाल के परपौत्र दुष्यंत ने यह साबित किया है कि उनमें न केवल हरियाणा की राजनीति की अच्छी समझ है बल्कि वह एक दूरदृष्टि भी रखते हैं.

हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 में न तो बीजेपी और न ही कांग्रेस को बहुमत मिला लेकिन 90 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत बनाने के लिए आज सत्ता की चाबी जेजेपी के हाथ में है.

कौन हैं दुष्यंत चौटाला?

26 साल की उम्र में लोकसभा चुनाव जीतने वाले दुष्यंत चौटाला ने उससे 10-12 साल पहले ही प्रचार का काम शुरू कर दिया था.

वरिष्ठ पत्रकार जतिन गांधी कहते हैं, “रणदीप सुरजेवाला के ख़िलाफ़ जब उनके दादा चुनाव लड़ रहे थे तब पहली बार दुष्यंत ने चुनाव प्रचार किया था. तब 14-15 साल की उनकी उम्र थी. अपने पिता के साथ उन्होंने तब पहली बार सक्रिय चुनाव प्रचार किया था.”

वह कहते हैं, “हरियाणा की राजनीति में जाटों का प्रभुत्व रहा है. वहां यह कहावत है कि जाट एक वोट डालता है और चार डलवाता है. लिहाज़ा इंडियन नेशनल लोकदल और दुष्यंत की नई पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जाटों का समर्थन उनके दादा और पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला की तरफ़ न जाकर दुष्यंत की पार्टी की तरफ़ मुड़ गया है.”

चुनाव प्रचार के दौरान दुष्यंत की रैलियों में बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति देखने को मिली

जाटों ने बीजेपी को माफ़ नहीं किया

दुष्यंत महज़ 31 साल के हैं लिहाज़ा उनमें बहुत राजनीतिक ऊर्जा दिखती है.

जतिन गांधी कहते हैं, “लोकसभा के कार्यकाल के दौरान दुष्यंत का हरियाणा के मुद्दों को उठाना हो या उनके बोलने का तरीक़ा दोनों ही बहुत प्रभावित करने वाले रहे हैं. उनकी कद काठी बहुत हद तक उनके परदादा देवी लाल से मिलती जुलती है. इंडियन नेशनल लोकदल से अलग होकर जेजेपी बनी और इस समय ख़ुद ओमप्रकाश चौटाला जेल में हैं तो हरियाणा के जाटों ने दुष्यंत की पार्टी को समर्थन दिया है.”

“लेकिन दुष्यंत को जाटों के मिले समर्थन की वजह के बारे में जतिन कहते हैं कि यहां यह भी देखना होगा कि हरियाणा में दो बार मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कांग्रेस ने पार्टी की कमान न देकर अशोक तंवर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया.”

“पांच साल तक तंवर अपने पद पर बने रहे. इससे जाटों में यह संदेश भी गया कि कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर विश्वास नहीं करती है. दूसरा यह कि बीजेपी ने पिछली बार तीन जाट नेताओं को उतारा था. झज्जर से ओम प्रकाश धनखड़, रोहतक में कैप्टन अभिमन्यु और उचानाकलां से वीरेंद्र सिंह को. उचानाकलां से ही दुष्यंत ने वीरेंद्र सिंह की पत्नी को इस चुनाव में हराया है.”

“जाट आरक्षण प्रकरण को लेकर जाटों ने बीजेपी को माफ़ नहीं किया. साथ ही उन्हें यह भी दिखा कि भले ही बीजेपी जाटों को मैदान में उतारा लेकिन गैर जाट खट्टर को मुख्यमंत्री बना दिया. ऐसा कहा जा रहा था कि खट्टर ने गैर जाट वोटों को एकतरफ कर लिया है तो आज वह ग़लत साबित हुआ है.”

दुष्यंत की दूरदृष्टि

पार्टी बनने के एक साल के भीतर ही जेजेपी को मिली इस सफलता के पीछे दुष्यंत का ही कमाल है.

वरिष्ठ पत्रकार अदिति टंडन कहती हैं, “दुष्यंत चौटाला ने क़रीब दो साल पहले ही यह समझ लिया था कि अब चौधरी देवी लाल की धरोहर की लड़ाई है और इसमें वही आगे निकल सकता है जो ग्राउंड को हिट कर ले. वे बीते डेढ़ सालों से प्रदेश चुनावों को मद्देनज़र रखते हुए हरियाणा के ज़िलों में घूम रहे थे. इस बीच हरियाणा में जाट आरक्षण की मुहिम चली जिसमें बहुत हिंसा हुई. उसके बाद यहां की राजनीति में जाटों और ग़ैर-जाटों के बीच बड़े स्तर पर ध्रुवीकरण हो गया. मनोहर लाल खट्टर सरकार पर आरोप लगे कि उन्होंने इसे रोकने के कुछ ख़ास क़दम नहीं उठाए.”

विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन भरने पहुंचे दुष्यंत के समर्थन में उमड़ा लोगों का हुजूम

वह कहती हैं, “इस प्रकरण की वजह से जाटों में बीजेपी के प्रति बहुत नाराज़गी हुई. ऐसे में दुष्यंत चौटाला को यह लगा कि जाट नेतृत्व में ख़ुद को स्थापित किया जाए. इधर कांग्रेस ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनावी चेहरा नहीं बनाया तो जाटों को यह समझ नहीं आ रहा था कि हमारा नेतृत्व कौन करेगा. तो दुष्यंत चौटाला ने इस कमी को पूरा किया. पूरे प्रदेश का भ्रमण किया. पहले से प्रत्याशी तय किए और चुनाव की तैयारी पहले से कर के रखी. उसका नतीजा यह हुआ कि बीजेपी से जाटों की नाराज़गी का लाभ उनकी पार्टी को मिला.”

अदिति कहती हैं, “अब चाहे कांग्रेस सरकार बनाए या बीजेपी दोनों को ही जेजेपी की ज़रूरत पड़ने वाली है. इसके साथ ही हरियाणा की राजनीति में दुष्यंत चौटाला के रूप में एक नया अध्याय जुड़ने जा रहा है क्योंकि चौधरी देवी लाल, बंशी लाल और भजन लाल के बाद अब वो जाट नेता बनकर उभरे हैं.”

दुष्यंत ने जाट फ़ैक्टर को भुनाया

हरियाणा की राजनीति में जाटों का दख़ल रहा है. वहां 10 में से 7 मुख्यमंत्री जाट समुदाय से रहे हैं. 2016 में जाट आरक्षण आंदोलन हुआ था जिसके बाद से ही जाटों में बीजेपी के प्रति ग़ुस्सा है.

अदिति कहती हैं, “चौधरी देवी लाल के बाद यदि हरियाणा में कोई बड़ा नेता बनकर उभरा है तो वो हैं दुष्यंत चौटाला. उनकी रैली में यह दिखता है कि वो अच्छे वक्ता है. लोगों से जुड़ाव के दौरान दिखता है कि वो अपनी राजनीतिक धरोहर पर बातें नहीं करते हैं. उन्होंने बहुत सूझबूझ से उस धरोहर से ख़ुद को अलग भी किया है और उसका फ़ायदा भी उठाया है. उन्होंने लोगों के बीच अपनी इमेज बनाई है. उन्होंने जाटों के बीच यह मैसेज छोड़ा है कि मैं इस क़ाबिल हूं कि आप मुझ पर विश्वास कर सकें.”

वह कहती हैं, “हरियाणा के लोग चाहते हैं कि वहां जाट नेतृत्व आगे चले. इस चुनाव से पहले वहां जाटों के बड़े नेता के नाम पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही थे. उनके बेटे दीपेन्दर सिंह हुड्डा ने चुनाव नहीं लड़ा, वो केंद्र की राजनीति में व्यस्त हैं. वह लोकसभा का चुनाव भी हार गए थे. कांग्रेस की तरफ से दूसरे बड़े नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला कैथल से चुनाव हार गए हैं. तो जाट नेतृत्व में विकल्प नहीं है. जाट राजनीतिक रूप से सचेत समुदाय है. सत्ताधारी रहने की इनकी आदत है. इस बार उन्होंने जानबूझ कर बीजेपी के ख़िलाफ़ वोटिंग की है. यह बीजेपी के ख़िलाफ़ लामबद्ध हो गए हैं. लेकिन साथ ही बीजेपी के पक्ष में ग़ैर जाट समुदाय का जुड़ाव भी उतना नहीं रहा जितना 2014 में हुआ था.”

क्या ग़ैर जाटों ने भी किया किनारा?

नतीजों में जेजेपी की सफलता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 का सबसे बड़ा चेहरा बन कर उभरे हैं दुष्यंत चौटाला. लेकिन क्या बीजेपी को बहुमत नहीं मिलने के पीछे केवल जाट फ़ैक्टर ही था?

इस पर अदिति कहती हैं कि 2014 के चुनाव में बीजेपी को डेरा सच्चा सौदा का पूरा समर्थन रहा था लेकिन इस दौरान उसके प्रमुख राम रहीम को रेप के मामले में सज़ा हो गई. इसका असर पड़ा और ग़ैर जाट समर्थक समुदाय ने भी बहुत हद तक बीजेपी से किनारा किया.

वह कहती हैं, “इस बार जाटों ने एक रणनीति के साथ हर उस प्रत्याशी को जिताया है जो बीजेपी को हराने की स्थिति में था. हरियाणा में जो भी सरकारें बनी हैं उन्होंने जाटों को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनाई हैं. लेकिन जब 2014 में बीजेपी ने मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया था तब उन्होंने नकारे हुई ग़ैर जाट समुदायों को सत्ता से जोड़ने की कोशिश की. उसमें डेरा सच्चा समुदाय का भी बड़ा किरदार था. अब वो सभी बिखर गए हैं. तो हरियाणा के इस चुनाव में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग टूटती हुई नज़र आई है.”

ओम प्रकाश चौटाला के पोते हैं दुष्यंत चौटाला

राजनीतिक परिवार जिससे है दुष्यंत का ताल्लुक

हरियाणा की राजनीति में दुष्यंत के आगमन को जानने के लिए हरियाणा की राजनीति में उनके परिवार की पकड़ को पहले समझना होगा.

हरियाणा में बड़ी संख्या में जाट समुदाय की मौजूदगी है. यह समुदाय राजनीतिक रूप से भी उतना ही सक्रिय रहता है. राजनीति में इनकी सक्रियता कितनी है इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वहां के 10 में 7 मुख्यमंत्री जाट समुदाय से रहे हैं. दुष्यंत इसी जाट राजनीति की कड़ी हैं.

हरियाणा की राजनीति में किंगमेकर बने दुष्यंत हरियाणा की राजनीति के कद्दावर नेता रहे देवी लाल की चौथी पीढ़ी से हैं. देवीलाल दो बार (1977 से 1979 और फिर 1987 से 1989 तक) हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे. उन्होंने भारतीय लोकदल के नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई जिसने बाद में लोकदल के नाम से चुनाव लड़ा फिर 1998 में इसका नाम इंडियन नेशनल लोकदल कर दिया गया.

इसके बाद 1999 में लोकसभा चुनाव और फिर 2000 में विधानसभा चुनाव में पार्टी ने जीत के परचम लहराए.

1999 में इनेलो बीजेपी की सहयोगी पार्टी के तौर पर लोकसभा चुनाव लड़ी और सभी 10 सीटों पर क़ब्ज़ा जमाया (दोनों पार्टियों के पांच-पांच प्रत्याशी जीते).

इसके अगले साल (2000 में) ही इनेलो ने राज्य विधानसभा के 90 में से 47 सीट जीतते हुए ओम प्रकाश चौटाला के नेतृत्व में सरकार बनाई. लेकिन इसके बाद हुए सभी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पार्टी ने ख़राब प्रदर्शन किया. ओमप्रकाश चौटाला के नाम ही राज्य में सबसे अधिक बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी है.

ओमप्रकाश चौटाला के दो बेटे हैं अजय और अभय चौटाला. दुष्यंत चौटाला बड़े बेटे अजय के बेटे हैं.

अभय सिंह चौटाला

कैसे हुआ जननायक पार्टी का गठन?

लेकिन 2013 में ओम प्रकाश चौटाला और उनके बड़े बेटे अजय चौटाला को तीन हज़ार शिक्षकों की ग़ैर-क़ानूनी भर्ती के मामले में 10-10 साल की सज़ा सुनाए जाने और 2014 के विधानसभा चुनाव में इनेलो की महज़ 19 सीटों पर जीत दर्ज करने के बाद अभय चौटाला को विपक्ष का नेता बनाए जाने के बाद चौटाला परिवार में अंदरूनी कलह की बात सामने आई.

सबसे पहले इनेलो ने छोटे भाई अभय की मौजूदगी में बड़े भाई अजय सिंह चौटाला की प्राथमिक सदस्यता रद्द करने की घोषणा की.

अजय चौटाला पर ‘पार्टी विरोधी गतिविधियां’ करने का आरोप लगाते हुए पार्टी ने तिहाड़ में बंद ओम प्रकाश चौटाला की चिट्ठी पढ़कर सुनाई और कहा गया कि पार्टी प्रमुख ने उनकी प्राथमिक सदस्यता ख़त्म कर दी है.

शुरुआत में संघर्ष अभय चौटाला और उनके भतीजे दुष्यंत के बीच सामने आया था.

7 अक्तूबर 2018 को सोनीपत ज़िले में इनेलो की रैली आयोजित की गई जिसमें दो हफ़्ते की पैरोल पर बाहर आए ओम प्रकाश चौटाला भी मौजूद थे.

भीड़ के एक हिस्से ने अभय चौटाला के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी शुरू कर दी और ओमप्रकाश चौटाला के सामने ही दुष्यंत के समर्थन में ‘भावी सीएम’ के नारे लगाए गए.

नतीजा ये हुआ कि ओम प्रकाश चौटाला ने इस पूरे मामले को कार्रवाई के लिए अनुशासन समिति को सौंप दिया और जांच के बाद अजय चौटाला के बेटों दुष्यंत और दिग्विजय को पार्टी से निकाल दिया गया. साथ ही इनेलो के युवा मोर्चे को भी भंग कर दिया जिसका नेतृत्व दिग्विजय सिंह चौटाला कर रहे थे.

हालांकि, दुष्यंत और दिग्विजय ने फ़ैसला मानने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि इस तरह की कार्रवाई केवल उनके पिता अजय सिंह चौटाला ही कर सकते हैं. लेकिन बाद में अजय चौटाला को भी निष्कासित कर दिया गया.

अक्तूबर 2018 में ताऊ देवीलाल के जन्मदिन पर आयोजित सम्मान रैली में खुलकर सामने आई फूट की इस घटना और पार्टी से निकाले जाने के बाद दुष्यंत चौटाला ने पूरे हरियाणा में घूमकर बैठकें शुरू कीं और ये मांग की कि पार्टी उन्हें बताए कि उन्होंने कौन-सा अनुशासन तोड़ा है.

दूसरी तरफ़ अभय सिंह चौटाला ने अपने भतीजों से किसी भी तरह के मतभेद से इनकार किया था. उन्हें दुष्यंत और दिग्विजय के बारे में कहा था कि दोनों ही उनके बच्चे हैं.

फिर अभय चौटाला से इस राजनीतिक द्वंद्व के प्रकरण के बाद ही जींद में 9 दिसंबर 2018 को अजय चौटाला ने जननायक पार्टी का गठन किया.

यह कुछ उसी तरह है जब 29 साल पहले ताऊ देवी लाल के दोनों बेटों ओमप्रकाश और रणजीत के बीच रार ठनी थी.

फिर आया 2019 का लोकसभा चुनाव जिसमें जननायक पार्टी ने सभी 10 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन उसे कोई कामयाबी नहीं मिली. लेकिन अब अपने गठन के एक वर्ष के भीतर ही पहले विधानसभा चुनाव में उतरी जननायक पार्टी ने महज़ 10 फ़ीसदी से कुछ अधिक सीटें जीतकर ट्रंप कार्ड अपने हाथ में ले लिया है.

दुष्यंत की राजनीतिक दूरदर्शिता इसी से समझ में आती है कि विधानसभा चुनाव से पहले ही उन्होंने कहा था कि बीजेपी और कांग्रेस में से किसी को भी 40 से अधिक सीटें नहीं मिलेंगी और उनका यह दावा आज सही साबित हो गया है.