मैंने बहुत तंगी में जिंदगी काटी है। गरीबी में मिट्टी के कच्चे घर में रहा, जो बारिश में टपकता था। लोगों के पास दो जोड़ी जूते होते थे, एक स्कूल और दूसरे घर के, लेकिन मेरे पास तो कभी-कभार स्कूल वाले जूते भी नहीं होते थे। कुछ वक्त ऐसे भी निकाला है, जब एक जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। अगर वो सूख रहे हैं, तब चड्ढी पहनकर बैठा रहता था। जब सूखेंगे, तब पहनेंगे। जिंदगी में जब कुछ हासिल किया, तब वो सब किया, जो करने का मन करता था। आज जूते और कपड़ों से कमरा भरा पड़ा है। करीब 100 जोड़ी जूते होंगे।
ये कहानी है मशहूर स्टैंड-अप कॉमेडियन, एक्टर और स्क्रिप्ट राइटर बलराज स्याल की। कभी बसों के धक्के खाने वाले बलराज आज एक एपिसोड के 5 लाख रुपए चार्ज करते हैं, लेकिन यही बलराज कभी मां-बाप के गुजरने के बाद सड़कों पर सामान बेचने का काम करते थे। इनके संघर्ष की कहानी काफी फिल्मी है।
अनाथ होने के बाद जब तंगी आई तो बहन को पढ़ाई करवाने के लिए खुद पढ़ाई छोड़ दी। 2 सालों तक घर चलाने के लिए मामूली काम किए और जिल्लत सही। जालंधर से निकलकर जब मुंबई पहुंचे तो 4 सालों का इंतजार करता पड़ा, उन्होंने क्या कहा उनकी जुबानी
मैं दो बड़ी बहनों का इकलौता भाई हूं। मेरे पिताजी गाड़ियों की सेल-परचेज का काम करते थे, जो पहले विदेश में रहते थे, फिर इंडिया आकर सेटल हो गए। फाइनेंशियली सब ठीक था, पढ़ाई अच्छी चल रही थी, लेकिन फिर 3 साल के अंदर ही मां-बाप दोनों गुजर गए।
मां गुजरी तो घर संभालने वाला कोई नहीं था, फिर पिताजी का देहांत हुआ तो खाने-पीने के भी लाले पड़ गए। जिन लोगों ने उनसे पैसे लिए थे, वो कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। चाचा जी के अपने भी बच्चे थे, लेकिन उन्होंने ही हमारी भी जिम्मेदारी ली। मैं सिर्फ 9 साल का था और बड़ी बहन 17 साल की, जो नानी के साथ रहने लगी।
स्कूल की फीस भरने के भी पैसे नहीं होते थे। कभी फीस माफ हुई तो कभी चाचा जी के बच्चों के स्कूल में ही फीस माफ कर मुझे पढ़ाया गया। 10वीं तक सरकारी स्कूल में पढ़कर जब प्राइवेट स्कूल गया तो वहां एडमिशन फीस ही 4 हजार रुपए थी। हमारे पास इतने पैसे नहीं थे, जैसे-तैसे कजिन ने पैसे भरे।
12वीं के बाद तो और मुश्किल बढ़ गई। मेरे पास दो ही रास्ते थे, या खुद पढ़ता या बहन को पढ़ाता। बहन को पढ़ाना था तो मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और काम पकड़ लिया। कभी दवाई की दुकान पर बैठा, कभी कपड़ों की दुकान पर, कभी इंजन ऑयल बेचा।
5-7 जगह नौकरी बदली, लेकिन कहीं बात नहीं बनी। शायद नसीब में यहां रुकना नहीं लिखा था। एक जगह 750 रुपए मिलते थे, लेकिन मालिक का रवैया इतना खराब था कि मैंने नौकरी छोड़ दी।
सबसे ज्यादा मुझे ढाई हजार रुपए महीने के मिले थे। जहां मैं नौकरी करता था वो जगह मेरे घर से 10 किलोमीटर दूर थी और मेरे पास साइकिल तक नहीं थी। कई बार पैदल गया। एक दोस्त भी उस तरफ जाता था तो मैं उसकी साइकिल पर साथ में चला जाता था। वो लड़का रोज लेट जाता था, तो मुझे भी रोज देरी हो जाती थी। मालिक ने एक बार गुस्सा होकर मुझे नौकरी से भी निकाल दिया।
एक दिन दोस्त ने कहा कि चलो पढ़ाई करते हैं, वर्ना अनपढ़ का ठप्पा लग जाएगा। एक कॉलेज गए जहां दोस्त ने मदद कर मेरी 50% फीस माफ करवा दी। वहां क्रिकेट कोटा में मुझे स्कॉलशिप मिलती थी। मुझे पता चला कि थिएटर करने वालों की स्कॉलरशिप, क्रिकेट वालों से ज्यादा है तो मैं भी थिएटर करने लगा।
अगर थिएटर करते हुए आप कोई यूथ फेस्टिवल जीतते हैं तो फीस माफ भी होती थी, ऐसे ही थिएटर की बदौलत मेरी फीस माफ हो जाती थी। एक प्ले के लिए तो हमारे ग्रुप ने सिर मुंडवा लिया था। पहले तो कोई बाल कटवाने को राजी नहीं था क्योंकि हिंदू धर्म में कुछ अशुभ होने पर ही सिर मुंडवाते हैं।
मैंने हिम्मत करके सिर मुंडवा लिया, लेकिन फिर गाली खाने के डर से कई महीने तक घर नहीं गया। कॉलेज के बच्चे भी हमारा खूब मजाक उड़ाते थे। थिएटर में ऐसा व्यस्त हुआ कि अपनी ही बहन की सगाई में नहीं जा सका। हां, शादी में जरूर गया, वर्ना घर से निकाल देते।
जब कॉमर्शियल आर्ट से आगे की पढ़ाई करने दूसरे कॉलेज गया तो वहां का एक टीचर थिएटर करने पर मुझसे बहुत चिढ़ता था। उस टीचर के एक साइन की वजह से मुझे पहले सेमेस्टर के एग्जाम में नहीं बैठने मिला था। कुछ करने के लिए पढ़ाई ही मेरा एकमात्र जरिया था। पढ़ाई करता तभी नौकरी करके हालात सुधार पाता। एक तरफ एग्जाम नहीं दे पाया और दूसरी तरफ घर में खाने के लाले पड़े हुए थे। हमारी फाइनेंशियल कंडीशन बहुत खराब थी।
मुझे याद है, ग्रेजुएशन में फाइनल ईयर का एग्जाम था, जहां 3-4 हजार रुपए एग्जाम फीस भरनी थी। फीस भरने पर ही रोल नंबर आता था, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे। एग्जाम की डेट आ गई और मेरा रोल नंबर नहीं आया। एक दिन मैं अकाउंटेट के पास गया और उसे अपनी मजबूरी बताई। उन्होंने मुझे प्रिंसिपल के पास भेज दिया
प्रिंसिपल ने कहा कि फीस भरना जरूरी है, तो मैंने कहा मेरे पास हैं ही नहीं, होते तो दे देता। मुझे आज भी याद है कि मैंने प्रिंसिपल को चिट्ठी लिखी थी, जिसमें लिखा था, जैसे ही डिग्री मिलेगी और मेरी नौकरी लगेगी, वैसे ही मैं ये फीस कॉलेज को वापस कर दूंगा। मुझे रोल नंबर मिल गया, लेकिन उन लोगों ने मुझसे कभी फीस नहीं ली। जब मैंने थोड़ा काम शुरू किया तो उन्हें भी प्राउड फील होता था।
जब कॉलेज में पढ़ता था, तब पार्ट टाइम जिम ट्रेनर था। वहां मुझे 1200 रुपए मिलते थे, साथ में दो वक्त का खाना मिलता था। सुबह 5 बजे जाता और रात 8:30 बजे आता था। शाम को 6 बजे जाता था, तब रात 10 बजे आता था। जिम में दो साल काम किया। यहां भी मेरा पैसा मारा गया। उसने मुझे डरा-धमका और डांटकर भगा दिया था। यह भी हुआ है। अभी उन लोगों के फोन आते हैं कि यार! कभी आना तो हमें मिलकर जाना। यह वक्त का तकाजा है। वक्त के साथ लोगों का रवैया बदल जाता है।
पढ़ाई चल ही रही थी, उसी समय मैं पंजाब में लाफ्टर चैलेंज के ऑडिशन में सिलेक्ट हो गया। इसके कारण मैं मास्टर डिग्री लेते-लेते रह गया। मैंने एमएच-1 चैनल का हसदे-हसांदे शो किया, शो हिट था, लेकिन मुझे उसके पैसे ही नहीं मिले। लोग पहचानने लगे, लेकिन मेरी जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं थी।
कई शो मिलते थे, लेकिन मंच देने के बाद कोई पैसे नहीं देता था। अब क्या करता, क्योंकि पंजाब में ज्यादा काम नहीं था। 1-2 साल बहुत इंतजार किया और दिक्कतों का सामना किया कि शायद कोई काम मिल जाए। घर खर्च भी चलाना था और बहन की शादी भी सिर पर थी।
पिता की मौत के बाद सेल परचेज मार्केट एसोसिएशन ने हम तीनों भाई-बहनों की एफडी करवाई थी। मैंने वो तोड़कर पैसे अपने दोस्त को ब्याज पर दिए, जिससे मुझे महीने के 800-900 रुपए मिलने लगे। जब छोटी बहन की शादी हुई तो मैंने दोस्त से पैसे उधार लिए थे।
हमारा घर मिट्टी का था। बारिश में जगह-जगह से पानी रिसकर अंदर गिरता था और हम हर जगह बाल्टी, टब से पानी रोकते थे। कई बार छज्जे पर कपड़ा लगाना पड़ता था, वो भी तेज हवा में उड़ जाता था। वो भी एक टाइम था। जब घर बनना शुरू हुआ तो मेरे चाचा जी के बेटे और मैं हम खुद मजदूरों के साथ काम करते थे, जिससे कम मजदूरी देनी पड़े।
धीरे-धीरे घर बना, बहनों की शादी हुई। चाचा जी ने हमें बहुत प्यार से पाला। नए लोगों को लगता है कि वही हमारे असली मां-बाप हैं। उन्होंने कभी किसी चीज में कमी नहीं आने दी, लेकिन मसला ये था कि अगर उनकी जेब में सौ रुपए हैं तो कहां से हजार रुपए खर्च करते।
जहां जाता था भीड़ लग जाती थी और लोग ऑटोग्राफ लेते थे, लेकिन कमाई तब भी नहीं होती थी। कोई बोलता था बैंक में नौकरी करो, यहां करो, वहां करो। कई लोग तो ऑडिशन फॉर्म के नाम पर 500-1000 रुपए लूट लेते थे। 2006 में मैंने घर चलाने के लिए क्रेडिट कार्ड बांटने तक का काम किया।
उसी समय खुशकिस्मती से एमएच-1 का शो द ग्रेट पंजाबी कॉमेडी शुरू हुआ। उसके लिए मुझे जालंधर से दिल्ली जाना पड़ता था। 1500 रुपए आने-जाने के मिलते थे, लेकिन कोई फीस नहीं मिलती थी। मैं पैसे बचाने के लिए टैक्सी की जगह बस से जाता था और 1000 रुपए बचाता था।
दो बार जाने से महीने में मैं 2000 रुपए तक बचा लेता था। टीवी पर भी दिखता था। उस समय मैं पैसे बचाने के लिए दिल्ली के पालिका बाजार से 250 रुपए की जींस खरीदता था। फिर धीरे-धीरे मैं अच्छे नए कपड़े खरीदने लगा।
B4U चैनल में लाफ इट लाउड शो में परफॉर्म करते हुए बलराज।
B4U चैनल में लाफ इट लाउड शो में परफॉर्म करते हुए बलराज।
कपिल शर्मा और राजीव ठाकुर भी उसी शो में थे। जब वो दोनों पैसों के लिए शो छोड़कर लाफ्टर चैलेंज में चले गए तो चैनल वालों ने डर कर मुझे 3500 रुपए हर एपिसोड के देने शुरू कर दिए। कई पंजाबी फिल्मों में काम किया, लेकिन उसके भी पैसे नहीं मिले। पंजाबी फिल्म धरती के लिए मुझे 10 हजार का चेक मिला, लेकिन वो बाउंस हो गया।
प्रोड्यूसर कहता था मैं मनाली में हूं, मैंने कहा तुम्हें मनाली घूमने का हक ही नहीं है। खैर, वो पैसा आज तक नहीं मिला। इसके बाद एक और फिल्म की, जिसके लिए मुझे सवा लाख रुपए मिलने थे, पर उसमें सिर्फ 75-80 हजार रुपए ही मिले बाकी के पैसे नहीं मिले।
2010 में मैंने मुंबई आकर स्टार वन का शो लाफ्टर के फटके किया। मुझे वहां बेस्ट स्टैंड अप का अवॉर्ड मिला और यहां से मुझे पैसे मिलने शुरू हो गए। मुझे 50 हजार रुपए प्रति एपिसोड मिलने लगे थे। इनमें से 20 हजार डायलॉग लिखने वाले को देता था। 2011 में जब कॉमेडी का महामुकाबला जीता तो मुझे लाफ्टर चैलेंज, लाफ्टर के फटके जैसे 4 शोज मिले। बार-बार आने-जाने से बचने के लिए मैं मुंबई ही शिफ्ट हो गया।
मैं मुंबई आया तो 3 साल काम नहीं था, हर चैनल वाले ये कहकर रिजेक्ट कर देते थे कि आप दूसरे चैनल का चेहरा हो। जब मैंने स्टार प्लस का शो जीता, तब भी उन्होंने यह कहते हुए नहीं लिया कि तुम तो स्टार का चेहरा हो। चार साल कॉमेडी सर्कस का ऑडिशन दिया, लेकिन कभी काम नहीं मिला।
मैं राजीव ठाकुर जैसे कॉमेडियन के लिए स्क्रिप्ट लिखता था, जिससे मुझे महीने के 50 हजार मिल जाते थे। उस समय मैंने हर कॉमेडी शो के लिए लिखा, द कपिल शर्मा शो में भी दो महीने तक लिखा। जब कॉमेडी सर्कस शुरू हुआ तो मैं उनके लिए लिखता था। पहले मुझे 15 हजार मिलते थे, बाद में ढाई लाख प्रति एपिसोड तक मिलने लगे। कभी तो फीस 5 लाख रुपए तक मिलने लगी।
‘खतरों के खिलाड़ी’ शूट करते समय पहले एपिसोड में पानी में गिर गया। दूसरे एपिसोड में जांघ और पेट पर जल गया। उसके बाद मुझ पर मधुमक्खियों ने अटैक कर दिया। मधुमक्खियों के साथ स्टंट कर रहा था। स्टंट खत्म होते-होते मक्खियों ने काटना शुरू कर दिया। फिर तो वहां से उठाकर मुझे एम्बुलेंस में डालकर हॉस्पिटल ले गए।
डॉक्टर ने मुझे गालियां देते हुए कहा कि यहां मरने आए हो। यह सब होने के बावजूद लोगों को लगा यह शो से वापस चला जाएगा, लेकिन वापस जाने का ऑप्शन लाइफ में ही नहीं है। आखिर गिव-अप करके पीछे कहां जाएं। पीछे लौटने के लिए कुछ तो होना चाहिए, इसलिए मुझे सिर्फ डटे रहना आता है।
खतरों के खिलाड़ी करने के बाद मैंने तीन-चार फिल्में भी लिखीं, जिनमें मुझे क्रेडिट मिला है। एक दिलजीत दोसांझ की फिल्म ‘अंबर सरिया’ थी। इसमें मेरा डायलॉग राइटर का इंडिपेंडेंट क्रेडिट था। उसके लिए मेरा फिल्मफेयर पंजाबी में नॉमिनेशन भी हुआ। मैं होस्ट भी कर रहा था और नॉमिनेशन भी मेरा था। वह मेरे लिए बहुत बढ़िया मूवमेंट था। फिर गिप्पी ग्रेवाल के साथ मैंने फिल्म कप्तान लिखी। दिलजीत की एक और फिल्म थी- सरदार जी, उस टीम में भी था।
जब जिमी शेरगिल की फिल्म ‘देहली’ के लिए डायलॉग लिखे, तब मुझे नाम मिलना शुरू हो गया। मैंने लास्ट फिल्म दुआ लिखी, तब क्रेडिट में मेरे साथ किसी और का नाम डाल दिया, तब से मैंने कहा कि अब मुझे लिखना ही नहीं है। मेरा डायरेक्टर के साथ झगड़ा भी हुआ। मैंने कहा कि फिल्म के ट्रेलर से मुझे पता चल रहा है कि दो राइटर हैं। खैर, इसके बाद तो मैंने राइटिंग छोड़ ही दी।
मुंबई शहर में मुझसे भी अच्छे एक्टर कहीं पीछे छूट गए। उस समय लोगों को लगता था कि इसका नसीब बहुत बढ़िया है। ये जुगाड़ू बंदा है। लोगों को यह नहीं पता था कि मैं मेहनती आदमी हूं। उन्हें यह पता नहीं कि जो एक ऑडिशन देकर वो पंजाब चले गए, उन ऑडिशन को मैंने चार साल दिया।
मुझे याद है, कॉमेडी सर्कस का लास्ट ऑडिशन दे रहा था, तब मेरे सामने नया कैमरा लगा था। मैं कैमरे से बात कर रहा था कि बेटा! थोड़ा मेरी इज्जत करना। मैं तेरे बाप के टाइम से यहां पर आ रहा हूं। ऑडिशन लेने वालों को यह बात आज भी याद है। उनकी ऑडिशन लेने वाली जगह चेंज हो गई। दफ्तर बड़ा होता जा रहा था, पर मैं वहां ऑडिशन-पर-ऑडिशन दे रहा था। कहने का मतलब जिंदगी में डटना, जिद, मेहनत आदि चीजें करनी पड़ती हैं।
मैं तुर्की, जापान, ऑस्ट्रेलिया, ग्रीस आदि देश घूमने गया। मतलब उन सारी चीजों को किया, जिन्हें करने की मन में ख्वाहिशें थीं। जिन चाचा-चाची ने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया, उन्हें इंटरनेशनल ट्रिप पर लेकर गया। मुझे अच्छे से याद है, मेरा भाई ऑस्ट्रेलिया में रहता है। उसको परमानेंट रेजीडेंसी मिली थी, वो पांच-छह साल से इंडिया आया नहीं था।
पहले मैं अकेला गया था। वहां भाई, पापा को बहुत याद कर रहा था, तब पापा को भी ऑस्ट्रेलिया लेकर चला गया। मुझे जांच-पड़ताल के दौरान ऑस्ट्रेलिया में रोक लिया। कहने लगे कि आप छह महीने में दूसरी बार आ गए। मैंने कहा- हां, आ गया। पूछने लगे कि किसके साथ आए हो। मैंने कहा- अंकल के साथ आया हूं।
उन्होंने कहा कि चाचा के साथ कौन घूमता है। मैंने कहा कि मैं तो घूमता हूं। मुझे इन्होंने ही पाला-पोसा है। पापा (चाचा) ने इच्छा जताई, तब उनको मलेशिया सोलो ट्रिप पर भेजा। एक बार मेरे चाचा जी मुंबई आए थे, तब ऑटो में घूमता था। उसी समय सोचा कि चाचा को गाड़ी में घुमाऊंगा।
चार महीने बाद ही उन्हें दूसरी बार बुला लिया, तब गाड़ी खरीदकर उन्हें चाबी पकड़ाई तो बड़े खुश हुए, उनकी पलकें खुशी से गीली हो गईं। उधर पंजाब में गाड़ी खरीदी, घर बनवाया। घर के पास नई जगह लेकर चाचा का दफ्तर बनवाया, क्योंकि पहले जिस दफ्तर में थे, वो घर से 15 किलोमीटर दूर था।
यह छोटी-छोटी चीजें कीं और आज भी करता रहता हूं। मैंने लॉकडाउन में शादी कर ली। शादीशुदा जिंदगी बढ़िया चल रही है। मेरी लिखी और डायरेक्शन में बनी पंजाबी फिल्म अपने घर में बेगाने की शूटिंग हाल ही में कनाडा में हुई है।