एक सीएम जिसके खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए विपक्ष ने 10 हजार लोगों को इकट्ठा किया। जमकर नारेबाजी हुई। शाम हुई तो प्रदर्शन करने आए लोगों ने अपने नेताओं से कहा कि भूख लगी है। विपक्षी नेताओं के पास इतना पैसा नहीं कि वह खाना खिला सकें। वह परेशान हो गए। आखिर में वह उसी सीएम के पास पहुंचे और कहा कि खाने की व्यवस्था कर दीजिए। उस सीएम ने कहा- मुझे पता था, “मेरे खिलाफ लोगों को तो बुला लोगे, लेकिन उन्हें खाना नहीं खिला पाओगे।”
ये सीएम कोई और नहीं बल्कि चंद्रभानु गुप्त थे। आज ही के दिन 1902 में वह अलीगढ़ में पैदा हुए थे। तीन बार सीएम रहें। उपचुनाव लड़ा तो अफवाह उड़ी कि जीतने पर हारने वाले प्रत्याशी से शादी करेंगे। पार्टी में कद इतना बड़ा बना लिया कि विधायक पहले इनसे मिलते फिर नेहरू के पास जाते। आज जयंती के मौके पर हम चंद्रभानु के उन्हीं किस्सों के बारे में जानेंगे।
चंद्रभानु गुप्ता का जन्म 14 जुलाई 1902 में अलीगढ़ के बिजौली में हुआ था। उनके पिता हीरालाल एक सामाजिक व्यक्ति थे। उनके पास बहुत पैसे नहीं थे, लेकिन गांव की छोटी-छोटी समस्याओं को तुरंत सुलझा देते थे। गांव में जब भी कोई लड़ता तो वो उनके झगड़े को तुरंत निपटा देते। यही वजह है कि गांव वाले उनकी बहुत इज्जत करते थे। हीरालाल चाहते थे कि उनका बेटा चंद्रभानु पढ़-लिखकर उनका नाम रोशन करे।
भाइयों में सबसे छोटे होने की वजह से चंद्रभानु बहुत हठी स्वाभाव के थे। उन्होंने शुरुआती पढ़ाई लखीमपुर खीरी से की। फिर लखनऊ चले आए। वो लखनऊ विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई कर रहे थे। चन्द्रभानु को अपने एक प्रोफेसर बिल्कुल पसंद नहीं थे। एक दिन प्रोफेसर के कुछ बोलने पर चन्द्रभानु को बहुत गुस्सा आया।
अगले दिन जब प्रोफेसर क्लास में आने वाले थे तो उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर उनकी कुर्सी पर छोटी-छोटी पिन लगा दीं। क्लास में आने पर प्रोफेसर जैसे ही कुर्सी पर बैठे तो दर्द से चिल्ला उठे। प्रोफेसर ने हेड से शिकायत भी की, लेकिन वो शरारत करने वाले स्टूडेंट्स का नाम पता नहीं कर पाए इसलिए किसी को सजा नहीं हुई।
चंद्रभानु 17 बरस की उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन में उतर आए थे। सीतापुर में रॉलेट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल हुए। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाना उस दौर में जवानी की निशानी थी। इसलिए ना उठाने का ऑप्शन ही नहीं था। चंद्रभानु भी साइमन कमीशन के विरोध में भी खड़े हुए। जेल गए। एक बार नहीं बल्कि पूरे आंदोलन में 10 बार। उन्होंने वकालत की पढ़ाई की थी इसलिए जब काकोरी कांड के क्रांतिकारियों के बचाव में उतरने का मौका मिला तो वह कोर्ट में उनके पक्ष से खड़े हो गए।
चंद्रभानु गुप्ता के राजनीतिक करियर की शुरुआत साल 1926 में हुई। उनको यूपी कांग्रेस और ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनाया गया। चंद्रभानु ने राजनीति में आते ही बहुत कम समय में कांग्रेस में अपनी पहचान बना ली। पहले वह यूपी कांग्रेस के ट्रेजरार, फिर उपाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष बने। साल 1930 आया।
अंग्रेजों ने भारतीयों पर तमाम बंदिशें लगाई हुईं थीं। एक बंदिश नमक को लेकर भी थी। नमक तक के लिए भी भारतीयों को मुंह मांगी कीमत देनी पड़ती थी। इसके विरोध में महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम से दांडी गांव तक पदयात्रा निकाली। लखनऊ में भी नमक कानून तोड़ने की घोषणा हुई।
चन्द्रभानु भी इस कानून को तोड़कर अंग्रेजों को चुनौती देने का मन बना चुके थे। उन्होंने कुछ साथियों से सलाह-मशविरा करके योजना बनाई। सब लोग अमीनाबाद पहुंचे। चारों तरफ पुलिस लगी हुई थी। सब लोगों से पूछताछ हुई। एक-एक करके सब अमीनाबाद के गूंगे नवाब पार्क पहुंच गए। जब तक कोई कुछ समझता ये लोग पार्क के अंदर घुस चुके थे। सबने नमक बनाकर कानून तोड़ा और भारत माता जिंदाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए। नारों के शोर से हड़बड़ाई पुलिस पार्क पहुंची और चन्द्रभानु जी को गिरफ्तार कर लिया। यह उनकी पहली गिरफ्तारी थी।
9 अगस्त 1942. करो या मरो नारे के साथ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन का शंखनाद हुआ। देशभर में आंदोलन शुरू हो गया। चन्द्रभानु पर लिखी किताब, “सफर कहीं रुका नहीं, झुका नहीं” में लिखा है कि उस वक्त चन्द्रभानु बहुत बीमार थे, लेकिन भारतीयों पर अंग्रेजों का अत्याचार देखकर उनसे रहा नहीं गया। वो भी आंदोलन में शामिल होने पहुंच गए।
जैसे ही चन्द्रभानु आंदोलन की जगह पर पहुंचे उन्हें शहर कोतवाल ओंकार सिंह ने गिरफ्तार कर लिया। किताब में बताया गया कि इससे पहले चन्द्रभानु को जब भी जेल भेजा गया उन्हें ‘ए क्लास’ दिया जाता था। लेकिन इस बाद उन्हें कोई सुविधा नहीं मिली। भीषण गर्मी में उन्होंने बाहर खुले में सोने की इजाजत मांगी तो उसके लिए मना कर दिया गया।
जब उन्होंने बैरकों में जाने से मना किया, तो जेल अधिकारियों ने उन पर लाठी-डंडों से पीटना शुरू कर दिया। उसके बाद जबरदस्ती उन्हें जेल की कोठरी में ठूंस दिया गया। वहां उन्हें ना दातून करने की इजाजत मिलती ना नहाने की। जब चन्द्रभानु जेल से रिहा हुए, तो उन्हें दांतों में पायरिया हो गया था। उन्हें अपने सारे दांत निकलवाने पड़े।
1958 में चंद्रभानु हमीरपुर की मौदहा सीट से विधानसभा के उपचुनाव में उतरे। उनके सामने बुंदेलखंड में राठ के दीवान शत्रुघ्न सिंह की पत्नी रानी राजेंद्र कुमारी निर्दलीय कैंडिडेट थीं। चंद्रभानु चुनाव जीतने को लेकर एकदम बेफिक्र थे। चुनाव से ठीक पहले अफवाह उड़ी कि चुनाव जीतने पर सीएम चंद्रभानु शादी के लिए निर्दलीय प्रत्याशी रानी को जबरन ले जाएंगे। ये अफवाह इतनी तेजी से फैली कि चुनाव ही पलट गया। नतीजे आए तो वह सब चौंक गए। क्योंकि चंद्रभानु चुनाव हार गए।
1960 में वह रानीखेत साउथ की सीट से विधायक चुने गए। कांग्रेस ने उन पर भरोसा जताया और उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया। मुख्यमंत्री बनते ही चंद्रभानु का कद इतना बढ़ गया कि दिल्ली तक में हलचल मच गई। पीएम जवाहर लाल नेहरू चंद्रभानु को कम पसंद करते थे लेकिन यह वक्त ऐसा था कि कांग्रेस के भीतर ही दो गुट बनने लगे थे। यूपी के विधायक पहले चंद्रभानु की बात मानते फिर नेहरू की। 7 दिसंबर 1960 से 1 अक्टूबर 1963 तक चंद्रभानु मुख्यमंत्री रहे।
1963 में चंद्रभानु को यह कहकर सीएम पद छोड़ने के लिए कहा गया कि जनता में बगावत है आप इस्तीफा दे दीजिए। चंद्रभानु ने मना कर दिया। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज ने किसी तरह से इस्तीफा देने के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद सुचेता कृपलानी 1967 तक मुख्यमंत्री रहीं। 1967 में चुनाव हुआ तो फिर से कांग्रेस की जीत हुई।
चंद्रभानु गुप्ता को दोबारा सीएम बनाया गया। उनके सीएम बनने से पार्टी के ही नेता नाराज हो गए। चौधरी चरण सिंह ने पार्टी तोड़ दी। समर्थक विधायकों को लेकर अलग हो गए। 19 दिन में ही सरकार अल्पमत में आ गई और चंद्रभानु को इस्तीफा देना पड़ा।
चौधरी चरण सिंह ने शुरुआत में पार्टी को एकजुट किया लेकिन कुछ ही दिन में पार्टी टूटने लगी। विधायक फिर से चंद्रभानु के साथ आने लगे। 10 महीने बाद ही चौधरी चरण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा। 26 फरवरी को चंद्रभानु तीसरी बार सीएम बने। करीब 1 साल तक सीएम रहने के बाद कहानी फिर से पलट गई और चरण सिंह दोबारा सीएम बन गए। यह चंद्रभानु का आखिरी कार्यकाल था। इसके बाद वह कभी सीएम नहीं बने।चंद्रभानु गुप्त ने शादी नहीं की। उनके ऊपर कभी कोई आरोप भी नहीं लगा। लेकिन विरोधी लगातार उन पर आक्रामक रहते थे। एक बार एक डिनर पार्टी में उन्होंने खुद ही कहा कि आप लोगों ने नारा तो सुना होगा न, गली-गली में शोर है, सीबी गुप्ता चोर है। इस नारे को लगाकर वह ठहाका मारकर हंसने लगे। यह नारा वह अक्सर रैलियों में बोलते और विपक्ष पर तंज कसते थे।द्रभानु सीएम थे तब समाजवादी नेता चंद्रशेखर ने उनके खिलाफ प्रदर्शन का ऐलान किया। प्रदर्शन में आने का तो इंतजाम था लेकिन खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं थी। 10 हजार लोग लखनऊ में इकट्ठा हो गए। जमकर प्रदर्शन किया। शाम हुई तो सब भूख से बेहाल हो गए। चंद्रशेखर के पास इतना पैसा नहीं था कि वह 10 हजार लोगों को खाना खिला सकें। वह चंद्रभानु के ही पास पहुंच गए। उन्हें देखते ही सीएम ने कहा- आओ भूखे-नंगे लोगों, मुझे पता था कि तुम बुला तो लोगे, लेकिन इन्हें खाना नहीं खिला पाओगे।
चंद्रशेखर ने कहा- आपका राज है, जैसा चाहे वैसा कीजिए। चंद्रभानु ने कहा, पूड़ी सब्जी पहुंचती ही होगी। मुझे पहले ही पता था कि ऐसा ही होगा। यह उस वक्त की राजनीति का एक उदाहरण था। राजनीतिक लड़ाई और पर्सनल व्यवहार एकदम अलग थे।
1970 के दशक में उनकी तबीयत खराब रहने लगी। मोरारजी देसाई पीएम बने तो उन्होंने केंद्रीय मंत्रालय ऑफर किया लेकिन उन्होंने मना कर दिया। 11 मार्च 1980 को चंद्रभानु गुप्त की मौत हो गई। जब उनका खाता खंगाला गया, तो उनके खाते में महज 10 हजार रुपए ही मिले। आज भी उनके विरोधी कहते हैं, चंद्रभानु पर आरोप कितना भी लगा लीजिए लेकिन वह हकीकत में वह गलत साबित होगा।
80 साल पुरानी अटल की वो लव स्टोरी, जिसमें सब कुछ था बस कोई नाम नहीं
कहानी शुरू होती है 80 साल पहले, यानी 1942 से। महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। 9 अगस्त को आंदोलन शुरू हुआ। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी 18 साल के थे। ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से B.A की पढ़ाई के साथ वो RSS के सक्रिय सदस्य थे। उनकी जिंदगी में इस वक्त एक साथ दो चीजें हुईं।
कहानी में दो मुख्य किरदार हैं। पहला किरदार है गरीब परिवार में पला-बढ़ा एक लड़का नंद गोपाल नंदी। पिता डाक विभाग में और मां घर में सिलाई-बुनाई का काम करतीं। 5 लोगों का परिवार, जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी के पैसे जुट पाते थे। पैसे नहीं थे। इसलिए नंदी ने पढ़ाई के साथ काम शुरू कर दिया।
21 साल का एक लड़का घर से नौकरी की बात कहकर निकला। 6 महीने तक घर नहीं लौटे। वापस आए तो सिर घुटा था। दोनों कानों में कुंडल और शरीर पर शर्ट-जींस की जगह गेरुआ वस्त्र। घर पहुंचे तो दरवाजा खटखटाया। घर की मालकिन आवाज सुनकर दरवाजे पर आईं। लड़के को देखा तो आंखें खुली की खुली रह गईं। तभी सामने से लड़के ने कहा, मां, भिक्षा दीजिए। मां के मुंह से कोई शब्द ही नहीं फूटा। आंखों से आंसू बह निकले।