अधिकतर लोग यह समझ नहीं पाते है की कोई सख्श ड्रग एडिक्ट कैसे बन जाता है। वे समझते हैं कि ड्रग एडिक्ट में या तो विल पावर नहीं होती या फिर उनमें नैतिक मूल्यों की कमी रहती है। बल्कि वास्तविकता में ड्रग एडिक्शन एक जटिल और गंभीर समस्या है और इसके साथ ही एक कॉम्पलैक्स बिमारी भी जिस वजह से इस लत को त्यागना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। क्योंकि इसका सीधा संबंध हमारे दिमाग में मौजूद न्यूरॉन्स से होता है। दिमाग में मौजूद इन्हीं न्यूरॉन्स की वजह से अगर ड्रग्स एडिक्ट अपनी इस लत को छोड़ना भी चाहे तब नहीं छोड़ पाता है।
ड्रग एडिक्ट बनने की 90 प्रतिशत तक शुरूआत किशोर अवस्था या उसके बाद होती है। जब हम लोगों की बात में आकर ‘ट्राय’ लफ़्ज के शिकार हो जाते हैं। जिस दिन आप उसे ट्राय कर लेते हैं फिर वो ही ट्राय आपको धीरे-धीरे कब उस नशे की आदत लगा देती है आपको पता भी नहीं चल पाता है। मानवीय प्रकृति के अनुसार 99 प्रतिशत लोग जब कुछ नया ट्राय करते हैं तो पहले गूगल पर जाकर उसका फीडबैक देखते हैं। उदाहरण के तौर पर फिल्म देखने से पहले उसे कितने स्टार मिलें वो चैक करते हैं। ऑनलाइन शॉपिंग से पहले उस सामान पर अन्य उपभोक्ताओं का रिव्यू चैक करते हैं। मेरा सवाल है कि जब हम नशीले ड्रग्स को ट्राय करते हैं तो हमारी यह मानवीय प्रकृति कहा चली जाती है। तब क्यों नहीं सोचा जाता कि इसके बारे में सही से जांच पड़ताल कर इसका सटीक रिव्यू कर लें?
एक ड्रग एडिक्ट को वापस से अपनी आम जिंदगी में लाने के लिए एक डॉक्टर अपनी हर कोशिश करता है। उसकी इस लत से निजात दिलवाने के लिए वह उसे भर्ती करता है उसकी आत्मशक्ति को मजबूत करने की कोशिश करता है। मरीज़ की काउंसलिग की जाती है और जब उन्हें लगता है कि वो अब ठीक हो चुका है तो उसे उसके घर भेज दिया जाता है। कुछ समय पश्चात वही सख्श फिर रास्ता भटक जाता है और उसी ड्रग के चुंगल में जा फसता है। यह ड्रग मकड़ी के जाल की तरह अपने शिकार को जकड़, उन्हें उसी में गला कर, मौत के करीब और फिर अंतत: मौत ही देता है। इसलिए मेरा सभी नौजवानों से आग्रह कि वो ड्रग को कभी ट्राय ही ना करें क्योंकि ट्राय करना आसान है लेकिन इस लत से बाहर आते आते पूरी जिंदगी खत्म हो जाती है।