कोहिनूर , टीपू की अँगूठी न जाने क्या क्या भारत से ले गए थे अंग्रेज, पढ़िए खबर

20वीं सदी और उससे पहले तक ब्रिटेन कई देशों पर राज कर रहा था। इनमें भारत उसकी सबसे बड़ी कॉलोनी थी। भारत को अंग्रेजी हुकुमत के ताज का हीरा कहा जाता था। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में राज करने से अंग्रेजों को 45 ट्रिलियन डॉलर यानी 3 हजार 700 लाख करोड़ रुपए का मुनाफा हुआ था।

पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर ब्रिटिश राज के शासन के दौरान अंग्रेज भारत से बहुत कुछ ले गए। इनमें सबसे चर्चित है कोहिनूर हीरा। सितंबर 2022 में क्वीन एलिजाबेथ की डेथ से पहले तक ये उनके ताज की शान था। आज क्वीन एलिजाबेथ की बर्थ एनिवर्सरी पर हम आपको कोहिनूर के साथ उन कीमती हीरे, गहने और सामानों के बारे में बता रहे हैं जिसे अंग्रेज चुरा ले गए थे…
कोहिनूर हीरे का इतिहास विवादों से भरा रहा है। कहा जाता है कि साल 1526 में हुमायूं ने आगरा किला पर हमला किया था। इसे जीतने पर बड़े पैमाने में खजाने के साथ-साथ विश्‍व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी मिला था। बाबरनामा के मुताबिक, कोहिनूर हीरा इतना कीमती था कि इससे पूरी दुनिया को ढाई दिन का भोजन करवाया जा सकता था।

1739 में ईरानी शासक नादिर शाह ने आक्रमण किया। उसने आगरा और दिल्ली में लूटपाट की। वह कोहि‍नूर और मयूर सिंहासन को भी साथ ले गया। नादिर शाह की हत्या के बाद 1747 में यह हीरा अफगानिस्तान के अहमद शाह के पास पहुंचा। इसके बाद कोहनूर हीरा शूजा शाह के हाथों से होते हुए महाराजा रंजीत सिंह तक पहुंचा। औरंगजेब के शासन के दौरान उसने यह हीरा शाहजहां की देख-रेख में रखा था। शाहजहां आगरा किले में कैद होकर इसी हीरे से ताजमहल को देखते थे।

साल 1849 में जब अंग्रेजों ने पंजाब पर कब्जा किया तो इस हीरे को ब्रिटेन की तब की महारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया था। बाद में इसे और कई हीरों के साथ ब्रिटेन के शाही ताज में लगा दिया गया। महारानी एलिजाबेथ की मौत के बाद से कई बार कोहिनूर को वापस भारत लाने की मांग उठ चुकी है।।
5 साल पहले बकिंघम पैलेस ने प्रिंस चार्ल्स के 70वें जन्मदिन पर एक प्रदर्शनी लगाई थी। इसमें प्रिंस के पसंदीदा रॉयल कलेक्शन को शामिल किया गया। कई मूर्तियों, पेंटिंग्स और दूसरे सामानों के साथ इसमें एक 19 एमरॉल्ड( पन्ना रत्न) जड़ा सोने का एक कमरबंद भी शामिल था। द गार्जियन की रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटेन जाने से पहले ये महाराज शेर सिंह के पास था। वो इसका इस्तेमाल अपने घोड़ों को सजाने के लिए करते थे।

इस कमरबंद को महाराजा रणजीत सिंह के 19 एमरॉल्ड से बनाया गया था। ये 1843 में उनके बेटे शेर सिंह को मिला। ब्रिटेन के रॉयल कलेक्शन के मुताबिक, 1849 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने पंजाब जीत लिया तो कमरबंद उनके खजाने में शामिल हो गया। 1851 में ब्रिटेन की तब की महारानी विक्टोरिया के सामने ग्रेट एक्जीबिशन लगाई गई। इसमें लाहौर में जीती गई ज्वेलरी को भी शामिल किया गया। यहां से पन्ना जड़ा कमरबंद शाही खजाने में शामिल हो गया।
इंडियन आर्काइव से जुड़े दस्तावेजों में भारत से गए एक रूबी नेकलेस का भी जिक्र है। ये हार 4 बड़े स्पाइनल रूबी (मणिक) से बनाया गया है। इसमें से सबसे बड़ा रूबी 325.5 कैरेट का है जिसे बाद में तैमूर रूबी के तौर पर पहचाना गया। खास बात ये है कि ये स्पाइनल रूबी है जो दिखने में बाकी मणिक जैसा ही होता है लेकिन इसका केमिकल कॉम्पोजीशन अलग होता है।
तैमूर रूबी भारत से होता हुआ ईरान और अफगानिस्तान के महाराजाओं के पास भी रहा है। इस पर उन 5 राजाओं के नाम उकेरे गए थे जिनके पास ये मौजूद था। इनमें मुगल राजा जहांगीर, शाहजहां, फरुखसियार, ईरान के नादिर शाह और अफगानिस्तान के राजा अहमद शाह दुरानी शामिल हैं। 1813 में ये अफगानिस्तान से भारत लौटा और महाराजा रणजीत सिंह के शाही खजाने का हिस्सा बन गया।
जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने लाहौर पर कब्जा किया तो तैमूर रूबी कोहिनूर के साथ क्वीन विक्टोरिया के पास पहुंचा था। 1853 में रॉयल फैमिली के खास ज्वेलर गैरार्ड ने स्पाइनल रूबी पत्थरों के साथ एक नया सोने और हीरे का हार बनाया था। इसे डिजाइन किया गया था ताकि तैमूर रूबी को नेकलेस से हटाकर उसकी जगह कोहिनूर हीरा लगाया जा सके।
टाइगर ऑफ मैसूर के नाम से पहचाने जाने वाले टीपू सुल्तान 1799 में अंग्रेजों से चौथी एंग्लो-मैसूर जंग श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई में हार गए थे। इस युद्ध में ब्रिटिशर्स ने टीपू सुल्तान की हत्या कर दी थी। BBC के मुताबिक, इसके बाद एक ब्रिटिश जनरल उनके शव से सोने की अंगूठी और तलवारें चुराकर ले गया था। इसके बाद अंग्रेजों की सेना ने उनके राज्य और लाइब्रेरी में भी काफी लूटपाट मचाई थी।
टीपू सुल्तान की अंगूठी 41.2 ग्राम की थी। 2014 में इस अंगूठी को करीब 1.50 करोड़ रुपए में नीलाम कर दिया गया था। नीलामी करने वाली क्रिस्टी वेबसाइट के मुताबिक इसे अनुमानित कीमत से 10 गुना ज्यादा कीमत पर बेचा गया था। हालांकि अंगूठी किसने खरीदी इसकी जानकारी नहीं है। इस अंगूठी की सबसे खास बात ये है कि एक मुस्लिम राजा के पास होने के बावजूद इसपर राम लिखा हुआ था।
टीपू सुल्तान की तलवारें विक्टोरिया और एल्बर्ट म्यूजियम में रखी हुई हैं। इस पर उनके राज्य का चिन्ह भी बना है। तलवारों के अलावा अंग्रेज एक टाइगर का शो पीस भी चुराकर ले गए थे। इसे 2009 में करीब 4 करोड़ रुपए में नीलाम कर दिया गया था
1657 में मुगल साम्राज्य के बादशाह शाहजहां के लिए एक सफेद जेड वाइन कप बनाया गया था। इसे 19वीं सदी में कर्नल चार्ल्स सेटन गथरी ने चुरा लिया था। इस कप के नीचे एक कमल बना हुआ है जो एकेंथस की पत्तियों के बीच में खिला नजर आ रहा है। कप के हैंडल पर बकरी का मुंह है जिसमें सींग भी बनी हुई है। ये कप 1962 से लंदन के विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूजियम में रखा हुआ है।
शाहजहां के इस कप को कुछ इस तरह से डिजाइन किया गया था कि ये कई संस्कृतियों को दर्शाता है। इसका आकार चीन से प्रेरित है। वहीं इसका हैंडल हिन्दू संस्कृति से लिया गया है। इसका बेस यूरोपीय कल्चर से प्रेरित है और 17वीं शताब्दी के मुगल साम्राज्य में इस तरह की कलाकारी देखी जाती थी।
महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य में कई कीमती चीजें थीं। इनमें से एक था उनका सोने से बना सिंहासन। ये राजगद्दी 2 कमल के फूलों के आकार में बनाई गई थी। दरअसल, कमल का फूल हिन्दू संस्कृति में पवित्र माना जाता है। कई देवी-देवता भी इसे अपने आसन के तौर पर इस्तेमाल करते थे।
हालांकि, विक्टोरिया और एल्बर्ट की वेबसाइट के मुताबिक, रणजीत सिंह इस सिंहासन पर नहीं बैठते थे। इसकी जगह वो किसी दूसरी कुर्सी या जमीन पर बैठना पसंद करते थे। सिंहासन का इस्तेमाल ज्यादातर शाही समारोह के दौरान ही किया जाता है।
1849 में लाहौर पर कब्जे के बाद दूसरी बेशकीमती चीजों के साथ ही अंग्रेज इस सिंहासन को भी लंदन ले गए थे। वहां 1851 की ग्रेट एक्जीबिशन में इसे शामिल किया गया। इसके बाद ये राजगद्दी लंदन के इंडियन म्यूजियम में पहुंची। वहां से बाकी भारतीय कलेक्शन के साथ इसे विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूजियम में रख दिया गया।
कोहिनूर के अलावा नसक हीरा और दिल्ली पर्पल सैफायर डायमंड भी उन हीरों में शामिल है, जिसे अंग्रेज चुरा ले गए थे। नसक हीरे को द आई ऑफ द आईडल भी कहा जाता है। ये हीरा नीले रंग का है और इसे तेलंगाना के अमरगिरी खदान से निकाला गया था।
1507 से 1817 तक ये नासिक के त्रिम्बकेश्वर शिव मंदिर में रहा। 1818 में एंग्लो- मराठन जंग के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी इसे चुराकर ले गई। बाद में उन्होंने इस हीरे को एक ब्रिटिश ज्वेलर को बेच दिया। फिलहाल ये हीरा लेबनान के एक प्राइवेट म्यूजियम में रखा हुआ है। दिल्ली का पर्पल सैफायर डायमंड लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में मौजूद है। इसे 1857 की क्रांति के वक्त कानपुर के इंद्र मंदिर से चुराया गया था। बाद में इसे कर्नल फेरिस लंदन ले गए। 1890 में लेखक एडवर्ड एलेन ने इसे खरीद लिया था।
ब्रिटेन में अमरावती कलेक्शन को अमरावती मार्बल्स भी कहा जाता है। ये अमरावती के बुद्ध स्तूप की 120 टुकड़े और इन्सक्रिप्शन्स का एक कलेक्शन है। स्तूप के ये टुकड़े पलनाड संगमरमर से बने हैं। इन स्कल्पचर्स में गौतम बुद्ध के जीवन और उनकी विचारधाराओं को दर्शाया गया है। ब्रिटिश म्यूजियम में मौजूद टुकड़े स्तूप के बाहरी हिस्से की सजावट में लगे हुए थे। इन पर बौद्ध धर्म का प्रतीक बना हुआ है।
अमरावती मार्बल्स को सबसे पहले 1861 में व्हाइटहॉल के फाइफ हाउस में रखा गया था। यहां से इसे इंडियन म्यूजियम में शिफ्ट किया गया। इस दौरान ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में इसे बंद करने की मांग उठने लगी। दरअसल, इंडियन म्यूजियम को 1801 में इतिहास से जुड़े सैंपल्स, किताबें, मैनूस्क्रिप्ट्स और भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके अधिकारियों द्वारा इकट्ठी की गई दूसरी कीमती चीजों को रखने के लिए बनाया गया था। ये बाद में कंपनी के गलत कामों के सिम्बल के तौर पर देखा जाने लगा।
1880 में इंडियन म्यूजियम के सामान को ब्रिटिश म्यूजियम सहित दूसरे संग्रहालयों में शिफ्ट कर दिया गया। इसमें अमरावती के बुद्ध स्तूप की टुकड़े और इन्सक्रिप्शन्स भी शामिल थे।
BBC के मुताबिक, बुद्ध की इस मूर्ति को पूरी तरह भारतीय धातु से बनी सबसे बड़ी मूर्ति कहा जाता था। इसे ताम्बे से बनाया गया है। साल 1162 में जब ये पूरी तरह से बनकर तैयार हो गया था तो इसकी सलामती के लिए इसे जमीन में गाड़ दिया गया था। 700 साल बाद 1862 में रेलवे कंस्ट्रक्शन के दौरान ईबी हैरिस ने इसे बाहर निकाला। पहले हफ्ते में मूर्ति को देखने के लिए करीब 30 हजार लोग आए थे।
जमीन से बाहर निकाले जाने के बाद पूरी दुनिया में मूर्ति की चर्चा होने लगी। इसके बाद बर्मिंघम के सांसद सैम्यूल थॉर्नटन ने इसे ब्रिटेन लाने की पैरवी की। इसकी शिफ्टिंग का पूरा खर्चा भी उन्होंने ही उठाया था। ये बर्मिंघम के कलेक्शन में शामिल होने वाली पहली विदेशी वस्तु थी। फिलहाल, ये बर्मिंघम म्यूजियम और आर्ट गैलेरी में मौजूद है।