पहले फैसला करना फिर यू टर्न लेना, सूबे की योगी आदित्यनाथ की सरकार का शगल बन गया है। कई मौकों पर ये साबित होता रहा है कि नौकरशाही बेअंदाजी के आलम में है। अपने आदेशों से सरकार को असहज करने वाली अफसरशाही अपने जल्दबाजी में लिए गए फैसलों से सरकार की कई बार भद्द पिटवा चुकी है। 6 साल के कार्यकाल में कई ऐसे मौके आए जब बिना सोचे विचारे सरकार ने जल्दबाजी में फैसला ले लिया…हो-हल्ला होने के बाद फैसला वापस लेना पड़ा।
उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्रा ने गुरुवार की सुबह एक शासनादेश जारी किया कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की बैठक की अध्यक्षता जिलाधिकारी करेंगे, जिले के कप्तान नहीं। जिले में थानेदारों की तैनाती के लिए भी जिलाधिकारी का अप्रूवल चाहिए होगा। जिन जिलों में पुलिस कमिश्नर व्यवस्था लागू है, वहां पुलिस कमिश्नर के पास ही ये अधिकार रहेगा।
इस आदेश के बाद से ही पूरी ब्यूरोक्रेसी में बवाल मच गया। IAS और IPS अफसरों में वर्चस्व को लेकर अंदरुनी लड़ाई पिछले चार-पांच सरकारों से देखने को मिलती रही है। IPS अफसरों ने दबी जुबान में अपनी नाराजगी व्यक्त करना शुरू कर दी। अफसरों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया कि कानून व्यवस्था भी IAS अफसर ही संभाल लें।सूत्रों की मानें तो बड़े पुलिस अफसरों ने कप्तानों से क्राइम मीटिंग का बॉयकॉट करने की बात भी कही। मामला मुख्यमंत्री के संज्ञान में भी आया और रात में ही मुख्यमंत्री के आदेश के बाद शासनादेश वापस हो गया। अब सवाल ये उठता है कि जब मुख्यमंत्री ही नहीं चाहते थे तब इस तरह का आदेश क्यों पारित किया गया?
इसके पहले भी साल 2017 में इसी तरह का आदेश आया था, उस वक्त राज्य के पुलिस मुखिया सुलखान सिंह ने काफी नाराजगी व्यक्त की थी। उस आदेश थे कई बड़े पुलिस अफसर भी खफा थे। कई जिलों में क्राइम मीटिंग में कलेक्टर और कप्तान के बीच बहस भी हो गई थी। जिसका असर ये हुआ कि आदेश को वापस करना पड़ा था। पूर्व DGP ओपी सिंह और पूर्व कार्यवाहक DGP देवेन्द्र सिंह चौहान के समय प्रदेश के गृह सचिव कोई भी फैसला बिना उनकी मर्जी के नहीं कर सकते थे। कई बार तो प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए DGP विभागीय मीटिंगों में भी गृह सचिव पर भारी पड़ते थे
नोएडा में पुलिस कप्तान रहे IPS अजय पाल शर्मा और जिलाधिकारी बीएन सिंह के बीच एक थानेदार के ट्रांसफर को लेकर हुए विवाद ने इतना तूल पकड़ा था कि शासन को उसमें दखल देना पड़ा था। बाद में जिलाधिकारी साहब को ही बात माननी पड़ी थी। कानून व्यवस्था के मुद्दे पर गाजे बाजे के साथ सत्ता में आने वाली योगी सरकार में पुलिस अफसरों पर योगी आदित्यनाथ का खासा स्नेह दिखता है तभी चाहें कितनी भी बड़ी घटना हो जाए मगर मुख्यमंत्री किसी भी पुलिस अफसर की जवाबदेही नहीं तय करते।
लखनऊ में अभिषेक प्रकाश डीएम थे और सुजीत पांडे पुलिस कमिश्नर थे। उस समय सुजीत पांडे ने मीटिंग के दौरान किसी काम को लेकर नाराजगी जताई थी। जिसपर विवाद हो गया। सीनियर अधिकारियों के दखल के बाद मामला रफा-दफा हो गया था।
डीके ठाकुर लखनऊ में कमिश्नर थे, डीएम अभिषेक प्रकाश थे। उस समय भी ट्रैफिक के मसले पर दोनों अधिकारियों में विवाद हो गया। मामले में सीएम ने डीजीपी डीएस चौहान और अपर मुख्य सचिव अवनीश अवस्थी को तलब किया था। इसके कुछ दिनों बाद ठाकुर को कमिश्नर पद से हटा दिया गया था।
उत्तर प्रदेश में पुलिस कमिश्नरी प्रणाली IPS अफसरों की IAS अफसरों के ऊपर जीत के तौर पर देखी जाती है। पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के अफसर मजिस्ट्रेट के तौर पर काम करते हैं, जबकि अन्य जिलों में ये काम IAS, PCS अफसर करते हैं।
गैंगस्टर एक्ट, गुंडा एक्ट, ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट सहित कुल 14 एक्ट सीधे तौर पर पुलिस कमिश्नर के अधीन आ जाते हैं, इन जिलों में डीएम महज राजस्व की वसूली, हथियारों का लाइसेंस देने का काम करते है। सूत्रों की माने तो सराय एक्ट को भी पुलिस के अधीन किए जाने पर प्रस्ताव बन रहा है। सराय एक्ट के तहत जिलों में होटल और लॉज चलाने का लाइसेंस दिया जाता है।थोड़ा सा फ्लैश बैक में चले तो पता चलता है कि ये व्यवस्था नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल तक चलती रही थीं, एक कमेटी होती थी जो जिलाधिकारी और कप्तानों का तबादला करती थी। उस वक्त जिलाधिकारी हमेशा सीनियर बैच का होता था। जिसके चलते जिलाधिकारी और कप्तान में कभी वर्चस्व की लड़ाई की नौबत नहीं आती थी। मगर मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से प्रदेश में ये व्यवस्था लगभग खत्म हो गई।
पहलवान से नेता बने मुलायम सिंह यादव ने पुलिस अफसरों को जिलाधिकारी के ऊपर तरजीह देना शुरू कर दिया। सियासी नफा नुकसान को देखकर जब तैनाती होने लगी तब सारी व्यवस्थाएं चरमरा गई। जिले में डीएम जूनियर और पुलिस कप्तान सीनियर तैनाती होने लगी, जिसका नतीजा आपसी खींचतान के रूप में सामने आने लगा।
अफसरों की तैनाती का पैमाना उनका काम नहीं, बल्कि सत्ता के प्रति उनकी वफादारी को देखकर किया जा रहा था, जो कि आज तक जारी है। उत्तर प्रदेश में जातीय व्यवस्था राजनीति में जड़ तक घुसी हुई है, ब्यूरोक्रेसी भी उससे अछूती नहीं रह सकी है।
हैरत की बात ये है कि इस परिपाटी को कोई भी सियासी दल तोड़ना नहीं चाहता, आंख मूंदकर उसका अनुसरण किया जा रहा है।
इसी तरह प्राइमरी स्कूल शिक्षक को सुबह पाठशाला में प्रार्थना के दौरान सेल्फी खींचकर भेजने का शासनादेश जारी हुआ था, मगर कुछ दिनों बाद ही उस आदेश को वापस लेना पड़ा था।
आनन-फानन में फैसले लो फिर जगहंसाई के बाद आदेश वापस ले लो। ये योगी सरकार की कार्यप्रणाली को दर्शाता है। 1-15 सितम्बर तक यूपी के सभी स्कूलों को खुला रखने का आदेश दिया गया था, जिसमें रविवार का दिन और जन्माष्टमी का त्योहार भी शामिल था। मगर अब वो आदेश भी वापस ले लिया गया है।
यूपी के पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन कहते हैं, “मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्रा ने जो आदेश जारी किया है, उसकी जरूरत नहीं थी। जिलाधिकारी जिले का आपराधिक प्रशासन का मुखिया होता है। मेरे मुख्य सचिव रहने के दौरान किसी भी जिले में कोई घटना होती थी तो जिले के कलेक्टर और पुलिस कप्तान दोनों की जिम्मेदारी तय होती थी। कई बार दोनों को ही हटाया गया है। ये सरकार नियम-कानून को मानती कहां हैं।”पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह ने कहा, “ब्यूरोक्रेसी पुलिस पर कब्जा करना चाहती है, ताकि पुलिस से गलत काम करा सके। इसलिए इस तरह के आदेश आते रहते हैं। 1973 CRPC में साफ लिखा है कि कानून व्यवस्था से जुड़े सारे मामले पुलिस के आधीन रहेंगे। फिर भी पुलिस एक्ट 1861 और पुलिस रेगुलेशन के नाम पर IAS अफसर चाहते हैं कि सारी पावर उनके पास रहे।
FIR पुलिस से लिखवाएंगे, गलत काम कराएंगे अगर कहीं फंसते हैं तो गरदन दरोगा की नापी जाती है। मेरे डीजीपी रहते भी इस तरह का प्रयास किया था, जिसका मैंने अपनी फोर्स की तरफ से विरोध किया था जिसके बाद पूर्व की व्यवस्था लागू हुई थी।”
जातीय सियासत के संकेत तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से ही दे दिए थे। विश्वकर्मा समाज को लेकर 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिए गए भाषण की आंच यूपी तक पहुंची। भाजपा के नेता यहां भी जातीय गुणा-गणित में सक्रिय हो गए। घोसी चुनाव तो एक ट्रेलर होगा, पूरी पिक्चर 24 के लोकसभा चुनाव में ही दिखाई देगी।