3 मई 1913, भारत के लिए एतिहासिक दिन साबित हुआ, जब दादा साहेब फाल्के की बनाई भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र रिलीज हुई। पहली फिल्म बनाने के लिए दादा साहेब फाल्के ने अपने घर के बर्तन, फर्नीचर और पत्नी के गहने तक गिरवी रख दिए, तो लोग उन्हें पागल और सिरफिरा कहने लगे। भारत में सिनेमा का नामोनिशान नहीं था तो फाल्के खुद लंदन गए और फिल्म मेकिंग सीखी
इसके बाद भी उनका सफर आसान नहीं था। हीरोइन बनना इतना असभ्य पेशा था कि रेड लाइट एरिया में काम करने वाली तवायफों ने भी हीरोइन बनने से इनकार कर दिया। तमाम दिक्कतों के बाद जब दादा साहेब ने एक आदमी को हीरोइन बनाया तो तलवार लिए लोगों को शूटिंग करते देख पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, क्योंकि शूटिंग शब्द भारत के लिए अनसुना था
पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के 110 साल पूरे होने पर इस फिल्म के बनने की कहानी जानेंगे फादर ऑफ इंडियन सिनेमा दादा साहेब फाल्के के नाती चंद्रशेखर पुसालकर से-
चंद्रशेखर बताते हैं- ‘दादा साहेब फाल्के के पास कोई प्लान नहीं था। वो उस समय लक्ष्मी प्रेस चलाते थे। उनके पार्टनर को पैसों की हवस थी और नानाजी को क्वालिटी की। एक समय ऐसा आया कि उन्होंने कह दिया कि मुझे इससे एक रुपया भी नहीं चाहिए, लेकिन मैं आगे काम नहीं करूंगा, उन्होंने अपनी लक्ष्मी आर्ट प्रिंटिंग प्रेस छोड़ दी। घर में पत्नी थी सरस्वती फाल्के जो उन्हें नौकरी छोड़ने पर डांट रही थी। इसी बात की उलझन में वो अपने छोटे बेटे बालाचंद्रा के साथ गिरगांव में टहलने निकले।’
‘रास्ते में उन्होंने देखा एक टेंट में थिएटर बना था। रात का समय था, अंदर से उजाला दिख रहा था, बैंड बज रहा था। जब बेटे बालाचंद्र ने कहा, दादा (पिता) क्या हम अंदर जाकर फिल्म देखें, तो वो राजी हो गए। अंदर जाकर दोनों ने अमेजिंग एनिमल नाम की विदेशी फिल्म देखी। घर जाकर बालचंद्र ने मां को जब बताया कि पर्दे पर उसने चलते हुए जानवर देखे, तो उन्हें यकीन नहीं हुआ। दादा साहेब ने पत्नी से कहा कि मैं आपको भी कल दिखाऊंगा। अगले दिन उसी जगह लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट नाम की विदेशी फिल्म लगी थी। ये फिल्म ही उनकी जिंदगी के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुई
फिल्म देखकर उन्होंने सोचा कि कब तक हम वेस्टर्न कल्चर या उनके देवी-देवताओं को देखेंगे, कौन राम-कृष्णा बनाएगा। हमारा कल्चर कौन बताएगा। तब उन्होंने ये जिम्मेदारी उठाई। उस समय कोई सिनेमा के बारे में नहीं जानता था। उन्होंने सिनेमा के बारे में जानने की काफी कोशिश की, लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। कई किताबें पढ़ीं, लेकिन वहां भी कुछ नहीं मिला। उन्हें एक बुक एबीसी सिनेमा मिली जरूर, लेकिन उसमें भी सिर्फ मशीनों का जिक्र था।
दादा साहेब ने उसी दिन एक टॉय कैमरा, रील्स और मोमबत्ती खरीदीं। उन्होंने घर पर ही एक्सपेरिमेंट शुरू कर दिया। वो अपना दिन यही काम करते हुए गुजारने लगे, रोज रात को एक सिनेमा देखते थे और नोट्स बनाते थे। वो मुश्किल से 3 घंटे सोते थे। उन्होंने लंदन जाकर कुछ सीखा और वहां की बायोस्कोप मैगजीन के मेंबर बन गए। इससे फायदा ये हुआ कि उन्हें वहां से कैटलॉग मिलने लगे, लेकिन इसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे। प्रिंटिंग प्रेस छोड़ने के बाद कमाई का कोई जरिया नहीं था। पैसे जमा करने के लिए दादा साहेब ने अपने घर का फर्नीचर और बर्तन बेचे थे।’
‘उनके काम का जुनून ऐसा बढ़ गया कि एक दिन काम करते हुए वो पूरी तरह अंधे हो गए। ये बहुत बड़ा हादसा था, लेकिन सिनेमा के नसीब से उन्हें एक अच्छा डॉक्टर मिला, डॉक्टर प्रभाकर। डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि दादा अब पर्दे के ऊपर का नाटक (जो पहले फिल्म को कहा जाता था) करना कम करो और आंखों को जोर मत दो, लेकिन दादा तो दादा थे, वो कहां सुनते।
दादा साहेब को आगे सिनेमा समझने के लिए लंदन जाना था, जिसके लिए पैसों की जरूरत थी। उन्होंने अपने सारे दोस्तों में खबर भेज दी कि मुझे फिल्में बनाना है, जिससे कई लोगों को रोजगार मिलेगा, इसके लिए मुझे 10 हजार रुपयों की जरूरत है।
ये सुनते ही लोग उन्हें पागल कहने लगे। लोग कहते थे कि ये दिन में सपने देख रहा है, इसे पागलखाने में भर्ती करना चाहिए। उस समय दादा साहेब फाल्के के एक दोस्त थे, जिनका नाम नाणकर्णी था। उनकी मेट्रो सिनेमा के पास स्पोर्ट्स शॉप थी। उन्हें दादा पर भरोसा था। जैसे ही दादा ने बताया कि लंदन जाने के लिए रुपयों की जरूरत है तो उनका पहला सवाल था कि तुम्हारे पास गिरवी रखने के लिए क्या है। दादा ने कहा कि उनके पास 12 हजार रुपए की इंश्योरेंस पॉलिसी है। ये सुनते ही उन्होंने मारवाड़ी एग्रीमेंट से 10 हजार रुपए दिलवाए।’
‘लंदन में दादा की जान-पहचान का कोई शख्स नहीं था, तो वो सीधे बायोस्कोप के दफ्तर पहुंचकर वहां के एडिटर केब्बत से मिले और कहा- मुझे भारत में सिनेमा बनाना है। एडिटर ने जवाब दिया, यहां बहुत प्रोड्यूसर हैं, आप पागल हैं क्या जो भारत में फिल्म बनाने के बारे में सोच रहे हैं। दादा डटे रहे और जब उन्होंने अपना किताबी ज्ञान शेयर किया तो वो एडिटर दंग रह गया।
एडिटर ने दादा को पर्क नाम के मशहूर प्रोड्यूसर के पास भेजा, जिसने उन्हें शुरुआत से फिल्म बनाने की प्रोसेस सिखाई। 20-25 दिनों में दादा की ट्रेनिंग पूरी हुई तो वो लंदन में ही फिल्म कैमरा, रील्स और प्रोसेस मशीन का ऑर्डर देकर भारत लौट आए। (उस समय भारत में सिर्फ फोटो कैमरा ही उपलब्ध था)’
‘उस समय दादा गिरगांव में रहते थे और दादर सिर्फ एक जंगल था। उस समय दादा को मथुरादास नाम के एक आदमी का बंगला मिला, जो बहुत बड़ा था। बंगला मिलने पर परिवार गिरगांव से दादर रहने चला गया। जब लंदन से कैमरा आया तो उन्होंने अपने लड़कों की मदद से ही गाइड बुक पढ़कर उसके सारे पुर्जे जोड़कर कैमरा तैयार कर लिया। सवाल था कि फिल्म कैसे शुरू करेंगे। शुरुआत में उन्होंने झगड़ते हुए बच्चों की रिकॉर्डिंग कर, रील प्रोसेस करके देखी। अब सवाल था कि फिल्म का सब्जेक्ट क्या होगा। उन्होंने देखा कि बॉम्बे में धार्मिकता ज्यादा थी, तो उन्होंने राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म बनाने का फैसला किया। इस सब्जेक्ट पर वो पहले नाटक बना चुके थे।
अब बात फिर पैसों पर आकर अटक गई। फाइनेंसर ढूंढने के लिए उन्होंने घर के बाहर एक पौधा लगाया, बारिश का मौसम था तो वैसे भी शूटिंग कर पाना मुमकिन नहीं था। दादा रोज उस पौधे की ग्रोथ को शूट करते थे। किसी को भी उस पौधे को छूने की परमिशन नहीं थी। रोज रिकॉर्डिंग से पौधे को बढ़ते हुए शूट किया। जब ये दिखाने के लिए दादा ने गिरगांव में लोगों को इकट्ठा किया तो हर कोई पर्दे पर फट-फट बढ़ते हुए पौधे को देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। सबने काफी तालियां बजाईं और फिल्म अंकुराची वाध (ग्रोथ ऑफ ए पी प्लांट) भारत की पहली साइंटिक फिल्म बनी। उस समय किसी ने कहा कि तुमने सिनेमा का बीज बोया।’
‘पैसों की अब भी कमी थी। दादा की पत्नी सरस्वती उनके साथ हर कदम पर कंधे से कंधा मिलाकर चली थीं। कुछ फाइनेंसर मिले, लेकिन उनके पास गिरवी रखने के लिए कुछ नहीं बचा था। ऐसे में सरस्वती ने कहा कि मैं अपना मंगलसूत्र छोड़कर सारे गहने गिरवी रखने को तैयार हूं। बहुत सारी दिक्कतों के बीच फिल्म राजा हरिश्चंद्र की शूटिंग शुरू हुई।
फिल्म में कलाकारों के लिए नाटक कंपनी वालों से मदद मिल गई, लेकिन फिल्म की लीड तारामति के रोल के लिए कोई नहीं मिल रहा था। उस समय महिलाओं के लिए फिल्मों में काम करना बहुत डाउन ग्रेड माना जाता था। कुछ महिलाएं इस पेशे में थीं, लेकिन वो बहुत महंगी पड़तीं। कोई चारा नहीं मिला तो वो हीरोइन ढूंढते-ढूंढते रेड लाइट एरिया में पहुंच गए। वहां की वेश्याओं ने भी यही जवाब दिया कि इतने डाउनग्रेड पेशे में हम नहीं आएंगे। कुछ राजी हुईं तो पूछा कि कितने रुपए दोगे। दादा ने कहा 80 रुपए तो वेश्याओं ने जवाब दिया कि इतना तो हम एक रात में ही कमा लेते हैं।’
‘निराश होकर दादा लौट आए ये सोचते हुए कि तारामति का क्या करेंगे। एक होटल में चाय पीने बैठे तो उन्हें महिलाओं की तरह शक्ल वाला एक लड़का अन्ना सालुंके चाय देने पहुंचा। दादा को तारामति मिल गई। दादा ने पूछा कि यहां कितनी पगार मिलती है। 15 रुपए पगार थी तो दादा ने 25 रुपए ऑफर कर उसे तारामति बनने के लिए राजी कर लिया।
‘जब शूटिंग के लिए अन्ना सालुंके को साड़ी पहनाकर तैयार किया गया। उस समय अन्ना की मूंछ थीं तो दादा ने डांटा कि तारामति इतनी सुंदर रानी थी तो मूंछ कैसे चलेगी। अन्ना ने बताया कि हमारे समाज में जब पिता की मौत होती है तब ही मूंछें कटवाई जाती हैं। दादा ने अन्ना के पिता को बुलाया और कहा, राजा हरिश्चंद्र की कहानी में काम करके आपका बेटा पुण्य का काम कर रहा है। आपको कैसा लगेगा अगर वो मूंछ लगाकर तारामति बने। क्या वो मूंछ कटवाएगा तो आप मर जाएंगे। ये सुनकर अन्ना सालुंके के पिता राजी हो गए।
शूटिंग इनडोर हुई थी, उन्होंने दादर में ही घर के आसपास सेट बनाकर शूटिंग की। (जिस जगह फिल्म की शूटिंग हुई थी, वहां अब दादा साहेब फाल्के मार्ग है) क्लाइमैक्स सीन की शूटिंग वांगड़ी में की। सारे लोग ट्रेन से रवाना हो गए, लेकिन दादा को कुछ काम था तो वो अगली ट्रेन से गए। सारे कलाकारों ने ट्रेन में ही कपड़े बदले तो गांव वाले उन्हें देखकर डर गए कि ये माइथोलॉजिकल किरदारों की तरह कपड़े पहने और हाथों में तलवार लिए लोग कौन हैं। गांव वालों ने शिकायत कर दी कि कुछ डकैत ट्रेन में चढ़े हैं। पुलिस ने पहुंचकर उन सभी लोगों को जेल में डाल दिया।’
जब अगली ट्रेन से दादा पहुंचे तो वहां सिर्फ एक ही लड़का बचा था, जो पेड़ पर चढ़कर बच गया था। जब दादा साहेब ने हेड को बोला कि हम शूटिंग करने आए थे, तो कोई बात समझ नहीं सका। उस समय कोई सिनेमा नहीं जानता था तो शूटिंग कैसे जानता। अपनी बात समझाने के लिए दादा साहेब ने पुलिस स्टेशन में ही शूटिंग करके दिखाई।’
‘जैसे-तैसे फिल्म बनी, जिसका प्रीमियर 21 अप्रैल 1913 को ओलंपिया थिएटर में कुछ खास लोगों के लिए हुआ। वो प्रीमियर कुछ खास लोगों के लिए ही हुआ था, जैसे बड़े पत्रकार, इंडस्ट्रियलिस्ट, कोर्ट जजेस और शहर के नामी लोग। उस समय नाना बहुत टेंशन में थे। उस समय दादा की बेटी मंदाकिनी को बहुत तेज बुखार था, जो भारत की पहली फीमेल चाइल्ड आर्टिस्ट है। सरस्वती ने प्रीमियर पर आने से इनकार कर दिया, लेकिन दादा के भाई ने उन्हें समझाकर भेज दिया। दोनों दिल पर पत्थर रखकर प्रीमियर पर पहुंचे थे
जब फिल्म खत्म हुई तो देखने वालों ने उठकर स्टैंडिंग ओवेशन दी। वहां थिएटर के मालिक और एग्जीबीटर चित्रे ने दादा से कहा कि वो इस फिल्म को अपने थिएटर में लगाएंगे। फिल्म रिलीज हुई तो रिस्पॉन्स अच्छा नहीं था, लेकिन दादा ने इसका भी हल निकाल लिया। जो आज फिल्म प्रमोशन होता है वो भी दादा ने ही शुरू किया। उन्होंने कुछ शोज स्टूडेंट्स के लिए रखे, जिसकी टिकट सस्ती थी। कुछ शोज सिर्फ महिलाओं के लिए रखे। लकी ड्रॉ किया।
थिएटर का एक मालिक फ्लोरमिल का मालिक था तो दादा ने ऑफर शुरू किया कि एक किलो आटा खरीदने वाले को बालकनी का एक टिकट मुफ्त मिलेगा। हर तरह से प्रमोशन करने का फायदा फिल्म को मिला। विदेशी फिल्में सिर्फ 3-4 दिनों के लिए लगाई जाती थीं, लेकिन प्रमोशन के चलते फिल्म राजा हरिश्चंद्र 20 दिनों तक चली।
उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए भारतीय कल्चर को विदेश तक पहुंचाया, क्योंकि विदेशी, भारतीयों को जंगली समझते थे। जब दादा ने विदेश में अपनी फिल्में दिखाईं तो वहां के नामी प्रोड्यूसर हेपवर्क ने उन्हें विदेश में ही फिल्म बनाने का ऑफर दिया। ऑफर था- 300 पाउंड सैलरी, फिल्म का 20 प्रतिशत प्रॉफिट, गाड़ी, बंगला। पर दादा ने साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि अगर मैं विदेश में रुक गया तो भारत के सिनेमा का क्या होगा।
राजा हरिश्चंद्र की रिलीज के 110 साल पूरे होने पर हम पहुंचे उसी कस्बे त्र्यंबक में, जहां से दादा साहेब ने अपना सफर शुरू किया था। हैरानी की बात है कि जिस इंसान ने हिंदुस्तान को फिल्में बनाना और देखना सिखाया, उसी को उसके शहर में अब कोई नहीं जानता।