गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन कर भाजपा ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं। मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल की अगुआई में भाजपा गुजरात में अपनी ”सत्ता” बरकरार रखना चाहती है। पर भाजपा के इस बदलाव में कांग्रेस को ”उम्मीद” दिख रही है। पार्टी ने एक बार फिर कोशिश शुरू कर दी है। हालांकि, पिछले चार साल में पार्टी की चुनौतियां बढ़ी हैं।वर्ष 2017 के चुनाव में कांग्रेस काफी हद तक भाजपा को घेरने में सफल रही थी। पार्टी ने बीस साल बाद साठ का आंकडा पार कर 77 सीट हासिल की। वहीं, वह भाजपा को 99 पर रोकने में सफल रही। पर कांग्रेस इस बढत को ज्यादा दिन तक बरकरार रखने में विफल रही। लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी सीट भाजपा से हार गई।
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन में राहुल गांधी की सभी अहम वर्गो तक पहुंचने की कोशिश और विवादित मूद्दों से किनारा करने के साथ तीन युवाओं की ”तिगडी” ने अहम भूमिका निभाई थी। इनमें पाटीदार अमानत आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी शामिल थे। बाद में ठाकोर भाजपा में चले गए। आंदोलन खत्म होने के बाद हार्दिक पटेल ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। पार्टी ने उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया। पर वह पाटीदार समुदाय में अपना दबदबा बनाए रखने में बहुत सफल नहीं रहे। हार्दिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में शामिल हुए। पर पार्टी पाटीदार के असर वाली सीट जीतने में विफल रही।
गुजरात की 26 में करीब आठ सीट ऐसी है, जहां पाटीदार मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है। अहमदाबाद पूर्व में 15,अमरेली में 18, गांधीनगर में 18, आणंद में 16, मेहसाणा में 30, सूरत में 25 और खेड़ा व वडोदरा में लगभग 12 फीसदी पाटीदार वोट हैं। हार्दिक पटेल के बावजूद पार्टी इनमें से कोई भी सीट जीतने में विफल रही।
इसके बाद हार्दिक निकाय चुनाव में भी अपना असर नही दिखा पाए। पाटीदारों का गढ माने जाने वाले सूरत में कांग्रेस अपना खाता तक नहीं खोल पाई। प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हार्दिक से पार्टी को फायदे से ज्यादा नुकसान हुआ है। उनके दबाव में सौराष्ट्र में पार्टी ने चुनाव में पटेल उम्मीदवारों को तरजीह दी, हम उनके साथ कोली समाज को भी प्रतिनिधित्व देते तो शायद ज्यादा बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे।