कांग्रेस अब क्षेत्रीय दल को लेकर सामाजिक न्याय में दिखा रही है दम ख़म

उदयपुर चिंतन शिविर के अपने मंथन के बाद कांग्रेस इस निष्कर्ष पर पहुंचती दिख रही है कि पार्टी की राजनीतिक वापसी के लिए केवल भाजपा पर सियासी हमला करना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए उन राज्यों में क्षेत्रीय दलों को चुनौती देना भी अपरिहार्य है जहां इन पार्टियों ने उसकी राजनीतिक जमीन छीन ली है। पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच चिंतन-मंथन में हुए अहसास का ही परिणाम है कि मध्यमार्गी राष्ट्रीय धारा पर चलने वाली कांग्रेस ने भविष्य के लिए सामाजिक न्याय की सियासत की ओर झुकाव बढ़ाने का इरादा कर लिया है। उदयपुर चिंतन शिविर में महिला आरक्षण कोटे में कोटा और जातीय जनगणना पर बदले रुख के साथ पार्टी संगठन में आरक्षण देने जैसे मुद्दों के सहारे सामाजिक न्याय की सियासत का आक्रामक दांव चलकर अब इस चुनौती से सीधे मुकाबला करने के इरादे साफ कर दिए हैं। राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों के वैचारिक खोखलेपन पर निशाना साधकर कांग्रेस के इस राह पर बढ़ने का साफ संदेश भी दे दिया है।
मध्यमार्गी राष्ट्रीय धारा की सियासत करने वाली कांग्रेस के एजेंडे में ओबीसी और एससी-एसटी वर्गों का हित सदैव प्राथमिकता सूची में रहा है। संप्रग सरकार के 10 साल के शासन में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा का अधिकार और उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुरूप 27 प्रतिशत आरक्षण जैसे कदमों के रूप में यह सामने भी आया। लेकिन कांग्रेस इसको लेकर कभी मुखर नहीं रही। शायद इसीलिए चिंतन बैठक के दौरान पार्टी इस निष्कर्ष पर पहुंची कि सामाजिक न्याय की राजनीतिक पताका जब तक क्षेत्रीय दलों के हाथों में रहेगी तब तक उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे अहम राज्यों में उसकी सियासी प्रासंगिकता बहाल नहीं हो पाएगी। कांग्रेस भले इस बात को सीधे स्वीकार नहीं करेगी, मगर चिंतन बैठक से निकले संदेशों का आशय साफ है कि पार्टी इस यथार्थ को स्वीकार करने के लिए तैयार होती दिख रही है कि भाजपा अब वह मुकाम बना चुकी है कि जहां कम से कम 30 से 35 प्रतिशत वोट हर परिस्थिति में उसके पास रहेगा।
राजनीतिक विमर्श की मौजूदा धारा में भाजपा चुनावी नेरेटिव की दिशा निर्धारित कर रही है। ऐसे में सियासी मैदान में केवल भाजपा को ललकारने से काम नहीं चलेगा, कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की बादशाहत को चुनौती देनी ही पड़ेगी। तमिलनाडु की दशकों से चली आ रही सियासत को अपवाद स्वरूप छोड़ भी दिया जाए तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल और महाराष्ट्र जैसे छह बड़े राज्यों में ही लोकसभा की कुल 224 सीटे हैं और इन राज्यों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के हाथों अपनी जमीन गंवा चुकी है। मौजूदा लोकसभा में इन 224 में से कांग्रेस के पास केवल छह सीटें हैं और इन राज्यों में सामाजिक न्याय की सियासत को निर्धारित करने वाला बड़ा वोट बैंक भी है। जाहिर है कांग्रेस को इन राज्यों में सामाजिक न्याय की राजनीति के सहारे क्षेत्रीय दलों को कड़ी टक्कर देकर अपनी सियासी जमीन काफी हद तक वापस हासिल करने का मौका नजर आ रहा है।
पार्टी की इस बदली राजनीतिक धारा का साफ संकेत राहुल गांधी ने चिंतन शिविर के अपने संबोधन में दे दिया, जब उन्होंने क्षेत्रीय दलों पर जातीय सीमाओं में बंधे होने के आरोप लगाते हुए उन्हें वैचारिक आधार पर खोखला तक करार दिया। जबकि इस हकीकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बिहार में राजद और लालू प्रसाद तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और अब अखिलेश यादव वैचारिक आधार पर भाजपा की सियासत का विरोध करते रहे हैं। ममता बनर्जी एक समय जरूर भाजपा-राजग का हिस्सा थीं, पर इस लिहाज से देखें तो महाराष्ट्र में भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी रही शिवसेना के साथ कांग्रेस आज सरकार चला रही है।