ब्रिटिश विश्विद्यालयों में यौन हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं लेकिन उनसे निपटने का कोई ठोस ढांचा नहीं है. कैंपसों में हिंसा के खिलाफ आई शिकायतों पर दबे छुपे कार्रवाई करना, उच्च शिक्षण संस्थानों के रवैये की पोल खोलता है.ब्रिटेन के सौ विश्वविद्यालयों में हाल ही में हुए दो ऑनलाइन सर्वे में पुरुष छात्रों ने पिछले दो साल के दौरान बलात्कार, उत्पीड़न या किसी अन्य यौन अपराध में लिप्त होने की बात स्वीकार की. पांच सौ चौवन छात्रों पर किए गए सर्वे में 63 ने महिलाओं के प्रति दकियानूसी सोच जाहिर करते हुए माना कि उन्होंने कभी ना कभी यौन हिंसा की है. ये रिपोर्ट एक बहुत बड़ी समस्या का बहुत छोटा लेकिन अहम सुबूत सामने रखती है. इससे पहले भी विश्वविद्यालयों में यौन अपराधों पर रिपोर्टें आती रही हैं हांलाकि उच्च शिक्षा में यौन हिंसा का ये मसला जटिलताओं से भरा है. हिंसा की घटनाएं आम हैं लेकिन इस पर आंकड़े जुटाना इतना आसान नहीं है. उदाहरण के लिए ब्रिटेन में बड़ी संख्या में भारतीय और चीनी छात्र-छात्राएं पढ़ने आते हैं लेकिन वे यौन हिंसा पर खुलकर बात करने से कतराते हैं. इसकी तह में सांस्कृतिक वजहें तो हैं ही, विश्वविद्यालय के रवैये और छात्रों के अकादमिक भविष्य पर उसके असर का डर भी उन्हें कुछ बोलने से रोकता है. उच्च शिक्षा में यौन हिंसा पर शोध और लॉबी करने वाली संस्था 1742 ग्रुप से जुड़ीं डॉक्टर अद्रिजा डे कहती हैं कि भारतीय या दक्षिण एशियाई छात्र ही शिकायत करने से डरते हैं, ऐसा नहीं है.
अद्रिजा कहती हैं, “भविष्य का डर किसी भी छात्र-छात्रा को बोलने से रोकता है लेकिन भारतीय घरों में कुछ खास किस्म की बातें आम हैं जैसे एक लड़की ने मुझसे कहा कि अगर मैंने ऐसी किसी भी बात का जिक्र किया तो वापस बुलाकर मेरी शादी कर दी जाएगी.” छात्रों में डर अगर एक बात है तो ध्यान देने वाला दूसरा पहलू ये भी है कि जहां शिकायतें दर्ज हुईं, क्या वहां कोई ठोस नतीजा निकला. चुप्पी और गुप-चुप कार्रवाई अमेरिका से ब्रिटेन के कार्डिफ शहर स्थित रॉयल वेल्श कॉलेज ऑफ म्यूजिक ऐंड ड्रामा में पढ़ने आईं सिडनी फेडर का अनुभव कैंपस में हिंसा रोकने की नीयत पर सवालिया निशाना लगाता है. 2017 में अपनी स्नातक डिग्री के आखिरी साल में एक रिहर्सल के दौरान सिडनी को यौन हिंसा झेलनी पड़ी. कॉलेज की लाइब्रेरी में काम करने वाले एक साथी छात्र की इस करतूत की शिकायत उन्होंने अधिकारियों से की. सिडनी से इस घटना के बारे में एक बार पूछताछ हुई लेकिन कॉलेज की जांच में क्या हुआ, इसे गुप्त रखा गया. सिडनी बताती हैं, “मुझे ना कुछ बताया गया ना ही कार्रवाई के नतीजे के बारे में संपर्क किया गया. बाद में जब मैंने कानूनी केस किया तब पता चला कि उस लड़के ने अपराध स्वीकार किया था लेकिन मुझे इस सबसे बिल्कुल अलग रखा गया. उसे सजा मिली या नहीं मिली इसका भी कुछ पता नहीं चला बल्कि उसने बाकायदा अपनी पढ़ाई वहीं से पूरी की” सिडनी ने जिस लड़के के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी बाद में कॉलेज की करीब एक दर्जन लड़कियों ने उस लड़के के अवांछनीय व्यवहार की बात उठाई लेकिन ये कोई गंभीर मसला बनकर मीडिया में छाया हो, ऐसा नहीं हुआ.
सिडनी ने हिंसा झेलने वाली लड़कियों के साथ एक मोर्चा बना लिया जिसमें बहुत से विश्वविद्यालयों की छात्राएं शामिल हैं. दरअसल विश्वविद्यालयों में यौन हिंसा पर जुबानी जमा-खर्च के अलावा उनसे निपटने में कोई गंभीरता दिखती नहीं है. ब्रिटेन के 140 विश्वविद्यालयों की प्रतिनिधि संस्था यूनिवर्सिटीज यूके ने 2016 में एक टास्क फोर्स गठित की जिसने विश्वविद्यालयों में यौन हिंसा समेत छात्रों के दुर्व्यवहार से निपटने के लिए गाइडलाइन जारी की. गौरतलब है कि ये महज सलाहें हैं, हिंसा के मामलों में कार्रवाई को दिशा देने के लिए विश्वविद्यालय स्वतंत्र हैं. यानी कोई बाध्यकारी नियम-कायदे नहीं बनाए हैं. यौन अपराधों के लिए किसी विशेष कमेटी या निश्चित सेल जैसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है. न्याय बनाम व्यावसायिक हित ये सवाल उठना लाजमी है कि विश्वविद्यालय आखिर अपने छात्र-छात्राओं के साथ हो रही हिंसा या दुर्व्यवहार के मामलों पर सख्ती दिखाने के बजाय दबाना-छिपाना क्यों चाहते हैं. 1752 ग्रुप के साथ मिलकर रिसर्च कर रहीं ऐरिन शैनन का मानना है कि ब्रिटेन में विश्वविद्यालय एक व्यवसाय है और छात्र उसके ग्राहक. कोई भी बिजनेस गलत वजहों से खबरों में आने का जोखिम नहीं उठाना चाहता. एरिन बताती हैं कि बहुत कम विश्वविद्यालय ऐसे हैं जहां शिकायत दर्ज करने या मदद की कोई प्रक्रिया रखी गई है.
हालांकि कुछ विश्वविद्यालयों में सामने आए मामलों की संख्या पिछले कुछ सालों में खासी बढ़ी है. ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी एक स्वतंत्र नियामक संस्था ऑफिस फॉर स्टूडेंट ने साल 2020 में रखे प्रस्तावित उपायों में विश्वविद्यालयों को हिदायत थी कि अगर कैंपस में होने वाली यौन हिंसा पर शिकायत, कार्रवाई और मदद के समुचित प्रबंध नहीं होते हैं तो संस्थानों को मिलने वाली सरकारी फंडिंग बंद हो सकती है. इन प्रस्तावों पर संस्था दो साल बाद दोबारा नजर डालेगी यानी यहां भी धीमी चाल और कारगर योजना जैसा कुछ नहीं रखा गया. स्थिति को देखते हुए अद्रिजा डे दलील देती हैं कि अगर सवाल बदलाव का है तो वो इस तरह के आधे-अधूरे तरीकों से नहीं लाया जा सकता.