2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को बुरी तरह हराकर बहुमत हासिल किया। बीजेपी का अगला शिकार क्षेत्रीय पार्टियां बनने लगी। बीजेपी ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए कई राज्यों में सहयोगी पार्टियों पर भी नए पैंतरे आजमाए। नतीजतन कई सहयोगी दलों ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया।
2024 लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दल एकजुट होने लगे हैं। मसलन- नए संसद भवन के उद्घाटन का एकसाथ 19 पार्टियों ने विरोध किया था। केजरीवाल सरकार की ताकत कम करने वाले अध्यादेश के विरोध में भी एक दर्जन पार्टियां आम आदमी पार्टी के साथ हैं।
अब बीजेपी ने अपनी स्ट्रैटजी में एक बड़ा बदलाव किया है। भास्कर एक्सप्लेनर में जानेंगे 2024 लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी अपनी स्ट्रैटजी बदलने को क्यों मजबूर हुई और इससे बीजेपी क्या हासिल करना चाहती है?
बीजेपी की नई स्ट्रैटजी अपने आक्रामक विस्तारवादी एजेंडे को दरकिनार कर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए एलायंस यानी सहयोगियों पर ध्यान केंद्रित करना है। इसके संकेत इन 2 खबरों से मिलते हैं…
28 मई 2023: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और उप मुख्यमंत्रियों के साथ 6 घंटे की बैठक की। मोदी ने पार्टी नेताओं से कहा कि वह एनडीए में शामिल सहयोगी दलों को भरोसा दिलाएं कि भाजपा अपने साथियों को पूरा मौका और सम्मान देती है। बीजेपी का ध्यान हमेशा से ही क्षेत्रीय आकांक्षाओं पर केंद्रित रहा है और यह धारणा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए कि वह क्षेत्रीय दलों के साथ सहज नहीं है।
अप्रैल 2023: केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह बीजेपी नेताओं के साथ मीटिंग कर रहे थे। इसी दौरान वहां डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस के करीबी एक उत्साही MLC बताना चाह रहे थे कि शिव सैनिक शिंदे की सेना में नहीं आ रहे हैं। शाह ने उनसे कहा, ‘आप बैठ जाइए, बैठ जाइए। मोदी जी को सबकुछ पता है।’
तमिलनाडु में एआईएडीएमके, महाराष्ट्र में शिंदे की शिवसेना और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी को छोड़कर, केंद्र में बीजेपी के पास कोई महत्वपूर्ण सहयोगी नहीं है जो राज्य स्तर पर खास फर्क डाल सके। 2024 में इन तीनों की चुनावी क्षमता पर भी सवालिया निशान हैं।
दक्षिण में अपना सबसे सुरक्षित किला कर्नाटक खोने के बाद बीजेपी उन राज्यों के बारे में आशावादी नहीं हो सकती, जहां उसकी जड़े कमजोर हैं। इनमें से ज्यादातर दक्षिण और पूर्व के राज्य हैं। यहां पर कांग्रेस को हटाकर क्षेत्रीय ताकतें मजबूत हुई हैं और ये ही बीजेपी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। राज्यों के हिसाब से हालात जानते हैं…
नई संसद के उद़्घाटन का बहिष्कार जिन 19 पार्टियाें ने किया उनमें जेडीयू और उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी शामिल थी। ये दोनों पार्टियां 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सहयोगी रही चुकी हैं।
2019 में बीजेपी ने 303 सीटें जीतीं। वहीं सहयोगियों ने 50 सीटें। इनमें भी जेडीयू और शिवसेना ने अकेले 34 सीटें जीतीं। यानी एक बड़ा हिस्सा इन दोनों पार्टियों ने जीता जो अब बीजेपी की सहयोगी नहीं बल्कि विरोधी हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव के समय NDA में 26 पार्टियां थीं। बीजेपी ने इस चुनाव में 282 सीटें जीतीं जबकि सहयोगियों ने 54 सीटें जीती थीं। शिवसेना ने सबसे ज्यादा 18, टीडीपी ने 16, एलजेपी ने 6, अकाली दल ने 4, आरएलएसपी ने 3 और अन्य सीटें बाकी छोटे दलों ने जीतीं।
इनमें से टीडीपी के साथ ही अकाली दल जैसी पार्टियां भी अब बीजेपी की सहयोगी नहीं है। बीजेपी गठबंधन ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से 31 सीटें जीती थीं, लेकिन 2019 में जेडीयू के साथ आने से यह संख्या 39 पहुंच गई थी। यानी जेडीयू के आने से बीजेपी को सीधे-सीधे 8 सीटों को फायदा हुआ।
जेडीयू अब बीजेपी से दूर जा चुकी है। एलजेपी में दो फाड़ हो चुकी है। ऐसे में यह सवाल है कि क्या एलजेपी के पशुपतिनाथ पारस अब रामविलास पासवान की जगह ले सकते हैं। वहीं पशुपतिनाथ पारस को रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी उन्हें चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में 2024 के चुनाव में बीजेपी को यहां पर नए सहयोगियों की जरूरत पड़ेगी।
वहीं बीजेपी शिवसेना में भी दो फाड़ कर चुकी है। कुछ सर्वे भी सामने आए हैं जिनमें कहा जा रहा है कि इससे बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह सर्वे महाराष्ट्र के प्रमुख मीडिया हाउस सकाल टाइम्स ने किया है।
इसमें बताया गया है कि यदि राज्य में अभी विधानसभा चुनाव होते हैं तो बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी रहेगी, लेकिन शिंदे की शिवसेना का प्रदर्शन कुछ खास नहीं होगा। हालांकि यहां गौर करने वाली बात है कि महाराष्ट्र का पवार परिवार सकाल टाइम्स के मालिक हैं।
आंध्रप्रदेश का सिनैरियो इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जगन मोहन रेड्डी की अगुवाई वाली YSR कांग्रेस अब राज्य में कांग्रेस को उभरने नहीं दे रही है और बीजेपी को पैर जमाने से रोक रखा है।
बीजेपी के लिए जगन ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक जैसे हैं। जगन भी पूरी तरह से पटनायक के रास्ते पर चल रहे हैं। वह पटनायक की तरह ही बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी बनाए हुए हैं। मिड पॉइंट पर खड़े रहकर पटनायक और जगन ने मोदी सरकार के साथ वर्किंग रिलेशन बनाए हैं। इससे उनके राज्यों को केंद्र की लगातार सहायता भी मिल रही है।
बीजेपी का सेंट्रल कमांड 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जगन और पटनायक को जरूरतमंद दोस्त मान रहा है। यानी उस वक्त ज्यादा सहयोगियों की जरूरत पड़ने पर ये काम आ सकते हैं। हालांकि आंध्र में बीजेपी अभी असमंजस की स्थिति में है।
ऐसे में यह सवाल है कि बीजेपी राज्य में किसके साथ जाना पसंद करेगी टीडीपी या YSR कांग्रेस। बीजेपी के पास आंध्र में पवन कल्याण की जन सेना पार्टी जैसी सहयोगी भी है, लेकिन आंकड़े सुकून देने वाले नहीं हैं।
2019 के विधानसभा चुनाव में YSR कांग्रेस क्लीन स्वीप करते हुए 175 में से 151 सीट जीती थीं। टीडीपी ने 23 और जन सेना को 1 सीट मिली, जबकि कांग्रेस और बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली।
हालांकि वोट शेयर से पता चलता है कि टीडीपी को भले ही सीट कम मिली लेकिन उसका वोट बैंक बहुत नहीं खिसका। इस दौरान YSR कांग्रेस को 49.95% और टीडीपी को 39.26% वोट मिले। वहीं जन सेना को 5.53%, कांग्रेस को 1.17% और बीजेपी को 0.84% वोट मिला था।
आंध्र प्रदेश बीजेपी जगन की ईसाई धर्मांतरण नीति से भी असमंजस में है। इसकी वजह है बीजेपी धर्मांतरण को लेकर काफी सख्त नीति की बात करती है। वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों में YSR कांग्रेस ने 25 में से 22 सीटों पर जीत हासिल की थी। अब तक जगन की लोकप्रियता और जनाधार में की या नायडू की वापसी दिखाता हुआ कोई संकेत भी नहीं है।
यहां तक कि पड़ोसी तेलंगाना में जहां से बीजेपी को बड़ी उम्मीदें हैं। वहां पर 2018 के विधानसभा चुनाव में टीडीपी एक मामूली खिलाड़ी के रूप में सिमट गई और उसे सिर्फ 3.5% वोट के साथ सिर्फ तीन सीटें मिलीं। ऐसे में तेलंगाना में भी टीडीपी को सहयोगी बनाने को लेकर पसोपेश है। हालांकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी अब रिस्क लेने के मूड में नहीं है।
पंजाब दूसरा राज्य है जहां भाजपा को एक सहयोगी की जरूरत है और अकाली दल एक पुराने दोस्त की प्रतीक्षा कर रहा है। बीजेपी सूत्रों ने दावा किया कि 2017 के बाद से लगातार हार के बाद अकाली दल को बीजेपी के समर्थन की ज्यादा जरूरत थी। यह उतना ही मजबूत है जितना हाल ही में जालंधर लोकसभा सीट के उपचुनाव के नतीजों ने दिखाया।
जालंधर सीट को आप ने जीता और उसे 34.05 वोट मिला। कांग्रेस को 27.4%, बीजेपी को 15.2% और अकाली दल को 17.9% वोट मिले यानी अगर दोनों को मिला दें ता यह 33.1% होता है। यह आप से सिर्फ 1% कम है और कांग्रेस से ज्यादा।
हालांकि जमीन पर क्या यह गठबंधन फिर से बीजेपी के हिंदू समर्थकों के साथ अकालियों के पारंपरिक जाट वोटों को एक साथ लाने का काम करेगा या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा।
कर्नाटक में लोकसभा की कुल 28 लोकसभा सीटें है। 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 28 सीटों में से 26 सीटों पर जीत दर्ज की थी। वहीं कांग्रेस और जेडीएस को एक-एक सीट से संतोष करना पड़ा था। हालांकि, अब विधानसभा चुनाव के बाद राज्य के सियासी समीकरण बदल गए हैं।
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी यहां पर भी सहयोगी की तलाश है। बीजेपी की नजर देवगौड़ा की जेडीएस पर है। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 42.9% वोट शेयर के साथ 135 सीटें जीतीं।
वहीं बीजेपी ने 36% वोट शेयर के 66 सीटें और जेडीएस ने 13.3% वोट शेयर के साथ 19 सीटें जीतीं। यानी यहां पर अगर बीजेपी और जेडीएस का वोट शेयर मिला दें तो यह 49.3% हो जाता है जो कि कांग्रेस से लगभग 7% ज्यादा है।