आज़ादी से पहले और इसके बाद के तमिलनाडु में पेरियार का गहरा असर रहा है और राज्य के लोग उनका कहीं अधिक सम्मान करते हैं.
पेरियार के नाम से विख्यात, ई. वी. रामास्वामी का तमिलनाडु के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों पर असर इतना गहरा है कि कम्युनिस्ट से लेकर दलित आंदोलन विचारधारा, तमिल राष्ट्रभक्त से तर्कवादियों और नारीवाद की ओर झुकाव वाले सभी उनका सम्मान करते हैं, उनका हवाला देते हैं और उन्हें मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं.
तर्कवादी, नास्तिक और वंचितों के समर्थक होने के कारण उनकी सामाजिक और राजनीतिक ज़िंदगी ने कई उतार चढ़ाव देखे.
1919 में उन्होंने अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत कट्टर गांधीवादी और कांग्रेसी के रूप में की. वो गांधी की नीतियों जैसे शराब विरोधी, खादी और छुआछूत मिटाने की ओर आकर्षित हुए. उन्होंने अपनी पत्नी नागमणि और बहन बालाम्बल को भी राजनीति से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया. ये दो महिलाएं ताड़ी के दुकानों के विरोध में सबसे आगे थीं. ताड़ी विरोध आंदोलन के साथ एकजुटता में उन्होंने स्वेच्छा से खुद अपने नारियल के बाग नष्ट कर दिए.
उन्होंने सक्रिय रूप से असहयोग आंदोलन में भाग लिया और गिरफ़्तार किए गए. वो कांग्रेस के मद्रास प्रेसिडेंसी यूनिट के अध्यक्ष बने. 1924 में केरल में त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रस्ते पर दलितों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का विरोध हुआ था. इसका विरोध करने वाले नेताओं को राजा के आदेश से गिरफ़्तार कर लिया गया और इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए कोई नेतृत्व नहीं था. तब, आंदोलन के नेताओं ने इस विरोध का नेतृत्व करने के लिए पेरियार को आमंत्रित किया.
इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए पेरियार ने मद्रास राज्य काँग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दिया. वो गांधी के आदेश का उल्लंघन करते हुए केरल चले गए.
त्रावणकोर पहुंचने पर उनका राजकीय स्वागत हुआ क्योंकि वो राजा के दोस्त थे. लेकिन उन्होंने इस स्वागत को स्वीकार करने से मना कर दिया क्योंकि वो वहां राजा का विरोध करने पहुंचे थे.
उन्होंने राजा की इच्छा के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, अंततः गिरफ़्तार किए गए और महीनों के लिए जेल में बंद कर दिए गए. केरल के नेताओं के साथ भेदभाव के ख़िलाफ़ उनकी पत्नी नागमणि ने भी महिला विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया.
काँग्रेस सम्मेलन में जातीय आरक्षण के प्रस्ताव को पास करने के उनके लगातार प्रयास असफल हुए. इस बीच एक रिपोर्ट सामने आई कि चेरनमादेवी शहर में काँग्रेस पार्टी के अनुदान से चलाए जा रहे सुब्रह्मण्यम अय्यर के स्कूल में ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण छात्रों के साथ खाना परोसते समय अलग व्यवहार किया जाता है.
पेरियार ने ब्राह्मण अय्यर से सभी छात्रों से एक समान व्यवहार करने का आग्रह किया. लेकिन न तो वो अय्यर को इसके लिए राजी कर सके और न ही काँग्रेस के अनुदान को रोक पाने में कामयाब हुए. इसिलिए उन्होंने काँग्रेस छोड़ने का फैसला किया.
काँग्रेस छोड़ने पर उन्होंने आत्म-सम्मान आंदोलन शुरू किया जिसका लक्ष्य गैर-ब्राह्मणों (जिन्हें वो द्रविड़ कहते थे) में आत्म-सम्मान पैदा करना था. बाद में वो 1916 में शुरू हुई एक गैर-ब्राह्मण संगठन दक्षिण भारतीय लिबरल फेडरेशन (जस्टिस पार्टी के रूप में विख्यात) के अध्यक्ष बने.
उनके अनुयायियों ने वैवाहिक अनुष्ठानों को चुनौती दी, शादी के निशान के रूप में थली (मंगलसूत्र) पहनने का विरोध किया. उन्हें एक महिला सम्मेलन में ही पेरियार की उपाधि दी गई.
पेरियार का मानना था कि समाज में निहित अंधविश्वास और भेदभाव की वैदिक हिंदू धर्म में अपनी जड़ें हैं, जो समाज को जाति के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटता है जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊपर है. इसलिए, वो वैदिक धर्म के आदेश और ब्राह्मण वर्चस्व को तोड़ना चाहते थे. एक कट्टर नास्तिक के रूप में उन्होंने भगवान के अस्तित्व की धारणा के विरोध में प्रचार किया.वो दक्षिण भारतीय राज्यों के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के ख़िलाफ़ थे. उन्होंने दक्षिण भारत राज्यों की एक अलग द्रविड़नाडू (द्रविड़ देश) की मांग की थी. लेकिन दक्षिण के अन्य राज्य उनके विचारों से सहमत नहीं हुए. वो वंचित वर्गों के आरक्षण के अगुवा थे और 1937 में उन्होंने तमिल भाषी लोगों पर हिंदी थोपने का विरोध किया था.
पेरियार ने समूचे तमिलनाडु का दौरा किया और कई सभाओं में लोगों को संबोधित किया. अपने अधिकांश भाषणों में वो बोला करते थे, “कुछ भी सिर्फ़ इसलिए स्वीकार नहीं करो कि मैंने कहा है. इस पर विचार करो. अगर तुम समझते हो कि इसे तुम स्वीकार सकते हो तभी इसे स्वीकार करो, अन्यथा इसे छोड़ दो.”
नास्तिक और ब्राह्मण विरोधी राजनीति के बावजूद अपने दोस्त और स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी से उनके व्यक्तिगत संबंध अच्छे थे.
उनकी पहचान तर्कवाद, समतावाद, आत्म-सम्मान और अनुष्ठानों का विरोधी, धर्म और भगवान की उपेक्षा करने वाले, जाति और पितृसत्ता के विध्वंसक के रूप में है.
दक्षिणपंथी उनकी आलोचना उस व्यक्ति के रूप में करते हैं जिन्होंने उनकी धार्मिक भावनाओं, परंपराओं को अपमानित किया.