रूस और पश्चिमी देशों के तकरार से इंडो-पैसिफिक देशों के लिए शीत युद्ध जैसी स्थिति अचानक सामने आ गई जिससे निपटने का फार्मूला उनके पास पहले से था. ये चुप्पी पश्चिम की भूमिका और अमेरिकी प्रतिबद्धता तय होने के बाद ही टूटेगी.24 फरवरी 2022 को यूक्रेन में रूस के तथाकथित स्पेशल मिलिट्री आपरेशन की शुरुआत के बाद से विश्व व्यवस्था में मानो भूचाल सा आ गया है. यूरोप में बेचैनी का माहौल है तो अमेरिका इस बात को लेकर परेशान है कि बिना युद्ध के मैदान में कूदे रूस को कैसे पटखनी दी जाय. रूस और यूक्रेन की सेनाओं के बीच लगातार चल रही जवाबी सैन्य कार्रवाई और हिंसा के चलते राजधानी कीव समेत यूक्रेन के कई शहर तेजी से मलबे में बदल रहे हैं. अब तक 20 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थी के तौर पर यूरोप और दुनिया के दूसरे इलाकों में शरण ले चुके हैं. लगता है कि आने वाले दिनों में यह संख्या चालिस लाख के आंकड़े को भी पार कर जायेगी. रूस-यूक्रेन युद्ध का आम जनजीवन पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है. रूस से सहानुभूति रखने वाली यूक्रेनी जनता के साथ-साथ वहां शिक्षा और रोजगार की तलाश में गए दूसरे देशों के लोग भी युद्ध में हो रही तबाही की चपेट में आ रहे हैं. रूस ने किसे मित्र नहीं माना रूस को हमला रोकने से मनाने की कोशिशें अब तक नाकाम रही हैं. इसी घटनाक्रम में 7 मार्च को रूस ने उन देशों की सूची जारी की जिन्होंने रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस के साथ मित्रता के दायरे में रह कर व्यवहार नहीं किया.
यूरोपीय संघ के 27 देशों और ताइवान के अलावा एक दर्जन से अधिक देशों की इस दिलचस्प सूची में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, और सिंगापुर के अलावा इंडो पैसिफिक का कोई दक्षिण पूर्वी एशियाई देश नहीं है. ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन तमाम देशों में ज्यादातर वही देश हैं जिनके अमेरिका से मजबूत सैन्य और कूटनीतिक रिश्ते हैं. अगर इस मुद्दे पर इंडो-पैसिफिक के तमाम देशों के नजरिये पर गौर किया जाय तो साफ पता चलता है कि इस क्षेत्र के तमाम देश रूस-यूक्रेन के मुद्दे पर चुप ही हैं. यह भी अपने आप में एक विडंबना ही है कि भारत, चीन और पाकिस्तान इस मुद्दे पर लगभग एक जैसी राय रखते हैं. भारत, चीन, और संयुक्त अरब अमीरात – तीनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में तटस्थ रूख अपनाया. कमोबेश यही हाल दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्वी एशिया, और हिन्द महासागर क्षेत्र के तमाम देशों का रहा है. मोटे तौर पर यही तीन क्षेत्र इंडो-पैसिफिक की भौगोलिक सीमा का निर्धारण करते हैं
पहली बात यह है कि इंडो-पैसिफिक के यह तमाम देश दशकों से गुटनिरपेक्षता और दूसरे देशों के मामलों में दखल ना देने की नीति पर यकीन और अमल करते रहे हैं. रूस और पश्चिमी देशों के बीच इस तकरार से इंडो-पैसिफिक के इन तमाम देशों के लिए शीत युद्ध जैसी स्थिति अचानक सामने आ गयी है जिससे निपटने की तरकीब उनके पास पहले से ही थी. तो जब तक स्थिति स्पष्ट न हो जाय यह देश तटस्थ ही रहेंगे यह बात साफ है. दूसरी बात यह कि भारत समेत इंडो-पैसिफिक के तमाम देशों के लिए रूस एक भरोसेमंद सहयोगी रहा है. खास तौर पर रक्षा संबंधों के मामले में वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, लाओस, कंबोडिया, म्यांमार, ईरान, और चीन जैसे देशों के लिए भी भारत जैसी स्थिति ही है. यूरोप की कमजोर हालत तीसरा और शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण है यूक्रेन के मामले में यूरोप की कमजोर हालत और अमेरिका की लचर भूमिका. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस युद्ध से यूरोप के वैश्विक राजनीति में स्थान पर असर पड़ा है. यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद यूरोप की इंडो-पैसिफिक में रुचि भले ही रहे, प्राथमिकताएं जरूर बदल जाएंगी. रूस के यूरोप को गैस आपूर्ति बंद करने की धमकी के बाद यूरोप की स्थिति और गंभीर हो गयी है. यूरो पिछले कई सालों में अमेरिकी डालर के मुकाबले सबसे कम स्तर पर पहुंच गया है और शायद अभी इसके संभलने में और समय लगेगा. पिछले लगभग डेढ़ दशक से यूक्रेन को रूस के खिलाफ तथाकथित तौर पर तैयार करने और भड़काने के बावजूद आज जब यूक्रेन पर हमला हुआ है तो यूक्रेन छोड़िये अमेरिका, यूरोप के साथ भी अपनी वचनबद्धता नहीं दिखा रहा है.