भाग -:9
भूमिगत जल सर्वेक्षण-: आज के वैज्ञानिक युग में आकाश में उड़ते हुये उपग्रह अदृश्य किरणों द्वारा भूमिगत जल भण्डारों का पता लगा लेते हैं। 1981 में, मिश्र सरहद पर, सहारा रेगिस्तान में, उपग्रह द्वारा एक विशाल भूमिगत नदी का पता लगाया गया। मौके पर नलकूप बोरिंग करके एक लाख बाईस हजार हैक्टर भूमि सींचने योग्य पानी मिल गया। इसी प्रकार राजस्थान में भी भूमिगत बहने वाली, गप्त नदी सरस्वती का पूरा पता चल गया है। जो सरस्वती कभी हरे भरे राजस्थान में, हिमालय से चलकर, लून नदी से मिलकर गुजरात में, कच्छ के रण में गिरती थी वह आज भूमिगत बहती है और हिमालय के बर्फ से सम्बन्धित होने के कारण सूख पड़ने पर भी भरपूर जल भण्डार रखती है। अभी तक सरस्वती क्षेत्र में नलकूप लगाये गये हैं जिनकी पानी देने की क्षमता प्रति घण्टा दो हजार से चालीस हजार लीटर पानी की है।
पूरा सरस्वती क्षेत्र, हजारों नलकूपों को पर्याप्त पानी देगा। रूसी वैज्ञानिकों ने हाइड्रोस्कोप नामक एक ऐसी सर्वेक्षण प्रणाली निकाली है जिसके द्वारा, भूमि के ऊपर से ही एक सौ मीटर भूमिगत नीचे तक के पानी का पता चल जाता है। 1982 तक भारत में सत्रह लाख वर्ग किलोमीटर भूमि का भूमिगत जल भण्डार जानने हेतु सर्वेक्षण किया जा चुका था। आज जहां भूमिगत जल भण्डार नहीं हैं वहाँ भी नहरों का जाल बिछ जाने पर, कुछ वर्षों के अन्दर ही भूमिगत जल भण्डारण होने लगेगा। इस प्रकार कृषि की प्रायः सभी भूमि में, लगभग दो करोड़ नलकूप लगाये जा सकेंगे।
बिजली नलकूप -: फसलों की बढ़वार के लिये अलग-अलग फसलों को, अलग-अलग मात्रा में, एक निश्चित समय पर पानी की आवश्यकता होती है। जैसे सरसों जमने के बाद, अपनी गहरी जाने वाली जड़ों द्वारा पानी की आपूर्ति करती रहती है और सिंचाई की आवश्यकता केवल फूल आने पर ही होती है। परन्तु गेहूँ प्रति इक्कीसवें दिन सिंचाई मांगता है। समय से पूर्व या बाद में सिंचाई करने पर उत्पादन में कमी आ जाती है। फसल की मांग के अनुसार नलकूप कभी लगातार चौबीस घण्टे चलेगा और कभी लगातार कई दिनों तक बन्द रहेगा। कृषि कोई कारखाना नहीं जिसे कुछ घण्टे बिजली देकर रोजाना चलाया जा सके।
समय बीतने पर सिंचाई करने से फसल तो हरी बनी रहती है परन्तु उत्पादन कभी कभी आधा रह जाता है। अकाल दूर करने वाले नलकूप वर्ष में चार हजार घण्टे चलते हैं। साधारण खेती कराने वाले नलकूप सालाना दो हजार घण्टे चलते हैं। परन्तु सघन खेती कराने वाला नलकूप जो समय पर पानी देता है औसतन सालाना केवल एक हजार घण्टै ही चल पाता है। नहर क्षेत्र में तो अतिरिक्त पानी देने हेतु नलकूप केवल पांच सौ घण्टे सलाना ही चल पायेगा। फसल को देखकर सिंचाई करनी पड़ती है। फसल और मौसम मिलकर सिंचाई मांगते हैं। पता नहीं कब मौसम के कारण सिंचाई करनी पड़ जाये।
मौसम गरम होने पर तो सिंचाई शीघ्र करनी पड़ती ही है, बर्फ पड़ने की आशंका होने पर भी रात होने से पूर्व फसल को हल्का पानी दिया जाता है। ताकि पाला फसल को हानि न पहुंचा सके। आवश्यकता न होने पर भले ही नलकूप लगातार बन्द रहे परन्तु नलकूप के लिये बिजली का राशन नहीं किया जा सकता। नलकूप को चौबीस घण्टे हर समय बिजली मिलनी चाहिये, वह चले या बन्द रहे। सरकारी नलकूप अंग्रेजी राज में 600 एकड़ तक के क्षेत्रफल सींचने के लिये बनाया जाता था, अब भी उसका क्षेत्रफल दो सौ करोड़ का होता है। परन्तु समय पर सिंचाई वह केवल पचास एकड़ में ही उस स्थिति में कर सकता है। जब हर समय बिजली उपलब्ध रहे।
किसानों के चार इंच वाले छोटे नलकूप तो लगभग चार हेक्टर या दस एकड़ क्षेत्र में ही सघन खेती करा सकते हैं। सो भी लगातार बिजली मिलने पर इस प्रकार हर समय बिजली की आपूर्ति करने पर भी बारह करोड़ हैक्टर या तीस करोड़ एकड़ भूमि में नहरों के साथ-साथ लगभग दो करोड़ जलकूप को भी आवश्यकता होगी। नियोजित ढंग से प्रत्येक किसान को ध्यान में रखकर गांवों में बिजली की लाइन खींची जाये और ट्रांसफार्मर हर हालत में, गांव के अन्दर रहे ताकि उसे तार चोरों से बचाया जा सके।
बिजली के दाम -: प्रति होर्स पावर काम करने पर, साधारणतया तीन चौथाई यूनिट बिजली खर्च होती है। इस प्रकार चार इंच पानी देने वाले नलकूपों में औसतन प्रति घण्टा लगभग पांच यूनिट बिजली खर्च होगी। भूमिगत जल स्तर जितना नीचे होता जायेगा, उसी अनुपात में, बिजली का खर्चा बढ़ता जायेगा। पानी फेंकने में कम शक्ति लगती हैं और खींचने में अधिक लगती है। अतः नीचे जल स्तर पर आवश्यकतानुसार मोटर पम्प भी, नीचे ले जाना पड़ता है। जल स्तर नीचा हो या ऊंचा, चार इंच पानी निकालने पर किसान को प्रतिघण्टा एक रुपया से अधिक बिजली के दाम नहीं होने चाहिये।
प्रति नलकूप चलने का औसत नहर और असिचित क्षेत्र मिलकर बिजली लगभग सात सौ घण्टे सलाना रहेगा। इस प्रकार सात सौ रुपये सालाना के हिसाब से प्रति चार इंच नलकूप पर औसतन एक सौ रुपया सालाना प्रति होर्स पावर बिजली का मूल्य बनता है। नलकूपों की संख्या कम होने पर, नलकूप आठ गुणा अधिक चलते हैं और उत्पादन प्रति हेक्टर आधा रह जाता है। तथा पूरी संख्या होने पर बिजली आठवां भाग खर्च होता है और उत्पादन पूरा होता है। सस्ती बिजली द्वारा दो करोड़ नलकूप होने पर चौदह अरब रुपया सालाना बिजली विभाग को मिलेगा जो घाटे का धन्धा नहीं होगा, यदि कुल मिलाकर सरकार द्वारा बिजली विभाग को अनुदान देना भी पड़ा तो प्रति नलकूप पांच सौ रुपया सालाना अनुदान से बिजली विभाग को अतिरिक्त दस अरब रुपये का लाभ हो जायेगा। इस समय सरकार बाढ़ और सूखा राहत कार्यो पर जो व्यय कर रही है, उक्त दस अरब रुपये का अनुदान उसका अंशमात्र है।
डीजल पम्प -: मैंने जापान के छोटे, जर्मनी के मध्यम और अमरीका के बड़े किसानों को, करमुक्त डीजल खरीदते देखा है। क्षेत्रफल फसलों का हेर फेर आदि बातों को ध्यान में रखकर प्रत्येक किसान का करमुक्त डीजल कोटा बन जाता है। साल के अन्त में खरीद की रसीद दिखलाने पर, डीजल का कर सरकार किसान को वापिस कर देती है। भारत में, सरकार की कम से कम पानी निकालने पर तो डीजल कर समाप्त कर देना चाहिये। सभी गांवों में बिजली पहुंचने में समय लगेगा अतः अन्तरिम काल के लिये करमुक्त डीजल परमिट प्रणाली चालू होनी चाहिये। डीजल तेल की उत्पादन लागत प्रति लीटर एक रुपये से कम है। नलकूप के लिये एक रुपया प्रति लीटर पर डीजल दिया जाना चाहिये। इस प्रकार बिजली की भांति एक रुपया प्रति घण्टा, डीजल का खर्चा करके किसान चार इंच पानी प्राप्त कर सकेगा। करमुक्त करने पर सरकारी अनुदान बिजली अनुदान से थोड़ा ही अधिक होगा। जितनी जल्दी सरकार दो करोड़ नलकूपों को हर समय बिजली की आपूर्ति कर देगी, इतनी जल्दी ही नलकूपों में डीजल का प्रयोग बन्द होकर विदेशी मुद्रा की बचत होगी।
सरकारी नलकूप-: नलकूप विकेन्द्रित सिंचाई प्रणाली है जिसे बलात् विभाग का रूप दिया जाता है। किसान की तुलना में सरकारी नलकूप बनाने और चलाने में, अत्यधिक खर्चा आता है। यदि सरकारी नलकूपों को मुफ्त बिजली दे दी जाये फिर भी वह घाटे में ही चलेंगे। एक सरकारी नलकूप पर सलाना औसतन एक लाख रुपये का घाटा आता है। अतः नलकूपों को सरकारी विभाजन बनाकर विकेन्द्रित ही रहने दिया जाये। नलकूप बोरिंग में सरकार मशीन और अनुदान द्वारा आवश्यकतानुसार सहायता करे परन्तु नलकूपों का स्वामित्व व्यक्तिगत, सहकारी अथवा ग्राम पंचायतों का ही रहे। वर्तमान सभी सरकारी नलकूपों को नीलाम करके किसानों को दे दिया जाये। एक और उन नलकूपों का रख रखाव अच्छा होने लगेगा दूसरी ओर सरकार करोड़ों रुपये के घाटे से बच जायेगी
बिजली उत्पादन-: बिजली का उत्पादन जितने बड़े स्तर पर होगा, उतनी ही उत्पादन लागत घटती जायेगी। पन-बिजली तो पानी की मात्रा और ढलान की ऊंचाई के अनुरूप ही बनेगी परन्तु भाप द्वारा बनाई जाने वाली बिजली के टरबोजेनेरेटर अब एक हजार बिजली बनाने लगे हैं। भारत में भूतकाल में, मांग के अनुरूप जगह-जगह छोटे छोटे बिजलीघर बनाये गये थे जिनमें उत्पादन लागत अत्यधिक आती है और वह घाटे में चलाये जाते हैं। दूर से कोयला ढोने पर रेल विभाग को सस्ते भाड़े द्वारा घाटा देकर भी, कोयला बहुत महंगा पड़ता है। बिजली तार द्वारा भारत में कहीं भी भेजी जा सकती है। पूरे भारत का एक विद्युत ग्रिड बनाने वाला है अतः भविष्य में, कोयला खानों के निकट ही, एक हजार मेगावाट बनाने वाली बड़ी मशीनों द्वारा सस्ती बिजली बनाकर पूरे देश में वितरित की जाये। परमाणु ईधन थोरियम पर आधारित ऐसे बड़े बिजली घर, कोयला खदानों से दूर के क्षेत्रों में, पर्याप्त संख्या में लगाये जायें जो प्लूटोनियम ईंधन की भट्ठी में थोरियम पर आधारित, ऐसे बड़े बिजलीघर, कोयला खदानों से दूर के क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में लगाये जायें जो प्लूटोनियम ईंधन की भट्ठी में थोरियम से • यूरेनियम तथा यूरेनियम के जलने पर प्लूटोनियम मुफ्त में ईंधन बना सके। मद्रास में छोटे स्तर पर प्रयोग सफल हो चुका है। थोड़ी समझदारी से काम लेने पर पूरे भारत की कोयला और परमाणु बिजली बहुत ही सस्ती, मनचाही मात्रा में दी जा सकती हैं बिजली का भण्डारण नहीं के बराबर होता है। अतः मांग के अनुरूप ही उत्पादन करना पड़ता है। अन्यथा बिजली की शक्ति वोल्टेज कम व अधिक होकर, उपभोक्ता मशीनें, मोटर आदि खराब हो जाते हैं या ठीक से काम नहीं करते। मैंने विदेशों में देखा है कि न्यूनतम विद्युत आपूर्ति तो लगातार चलने वाली, भाप और परमाणु बिजली उत्पादन मशीनों से होती है। परन्तु दोपहर के बाद बढ़ती हुई अतिरिक्त मांग की पूर्ति, पनबिजली द्वारा पूरी की जाती है। क्योंकि पन बिजली जब चाहे पानी खोल या बन्द करके बनाई और बन्द की जा सकती है। दुर्घटनाओं के कारण विद्युत उत्पादन की क्षतिपूर्ति भी पन बिजली ही करती है। इस प्रकार पूरे भारत के साथ किसानों को भी हर समय सन्तुलित मात्रा में सस्ती बिजली दी जा सकती है। चार इंच पानी निकलने पर प्रति घण्टा किसानों से एक रुपया लेकर भी शायद बिजली विभाग को घाटा न रहे और सरकार को अनुदान न देना पड़े । यदि कहीं-कहीं कुछ अनुदान किन्हीं विद्युत निगमों को देना भी पड़े तो एक केन्द्रीय संस्था बनाकर पूरे देश की कृषि मंडियों की आय उस केन्द्रीय संस्था को देकर उसी आय में से विद्युत अनुदान दिया जा सकता है। भरपूर हर समय उपलब्ध सस्ती बिजली द्वारा कृषि उत्पादन बढ़ेगा तो मंडियों की आय बढ़ेगी और अनुदान देने की क्षमता बढ़ेगी। पंजाब में अराजकता से पहिले प्रदेश सरकार ने केन्द्र सरकार को सुझाव देकर आज्ञा मांगी थी कि पंजाब प्रदेश, सभी नलकूपों को मुफ्त बिजली देकर नलकूपों को दी जाने वाली तीस करोड़ की बिजली का घाटा मंडियों से होने वाली, तीस करोड़ रुपये की आय, विद्युत निगम को देकर पूरा करना चाहती है। शायद केन्द्र ने इंकार कर दिया था।
प्रस्तुतकर्ता -: इंजी अलप भाई पटेल