भाग -: 5
रेशम -:
चार हजार पांच सौ वर्ष पूर्व जब वर्तमान दर्शन और धर्म भी पृथ्वी पर नहीं थे, चीन के किसी चरवाहे ने रेशम बनाने वाले कीड़े की वृक्ष पर खोज कर ली थी। रेशम बनाने वाले अनेक प्रकार के कीड़े हैं जो अलग-अलग पेड़ों की पत्तियाँ खाकर रेशम बनाते हैं। उन कीड़ों के बीज में ऐसा टाइम टेबिल बना हुआ है कि कीड़ा अण्डे से बाहर आता है, पत्ती खाना आरम्भ करता है। लगातार पत्ते खाकर मोटा हो जाता है। फिर खाना बन्द कर के पेट में भण्डारित कच्चे माल से, तरल पदार्थ को बारीक धार के रूप में, मकड़ी के जाले की तरह बाहर निकालता है। जो तुरन्त सूखकर धागा बन जाता है। उस धागे को वह कीड़ा लगातार अपने चारों ओर बनाता रहता है और स्वयं पतला होता जाता है।
इस प्रकार रेशम की पिदिंयां ककून बन जाती हैं। कीड़े के शरीर में बीज की अधूरी क्रिया चालू हो जाती है और धीरे धीरे कीड़ों की आकृति तितली में बदलकर, , बीज़ का शरीर बनाने वाला काम पूरा हो जाता है। तितली काकून से बाहर आकर पत्तों पर अण्डे देती है और मर जाती है। पूरी ककून बन जाने पर उन्हें गर्म पानी में डालकर उनके तार में सिरों को खोजकर अनेक ककून के तारों को एक साथ मिलाकर कातने से रेशम के मोटे पतले धागे तैयार होते हैं। चीन में यह कला 4500 वर्ष पूर्व ही विकसित हो गयी थी। लगभग चार हजार वर्षो तक चीने ने शेष दुनियां को रेशम उत्पादन का रहस्य नहीं जानने दिया। रहस्य विदेशियों को बताने अथवा कीड़े देने वालों के लिये मृत्यु दण्ड की सजा घोषित थी।
चीन की एक साम्राज्ञी सीलिंग ची ने रेशम उद्योग को बढ़ावा दिया। विदेशों में चीन रेशम एकाधिकार के लिये प्रसिद्ध था। 550 ई० में एक तुर्की व्यापारी रेशम तकनीक को सीखने और बांस के अन्दर छिपाकर रेशम के कीड़ों को तुर्की ले जाने में सफल हो गया। वह शहतूत के बीज भी ले गया था। तुर्की द्वारा शहतूत पर आधारित रेशम उत्पादन दक्षिण यूरोप के देशों में फैल गया। यूरोप से रेशम •उत्पादन कला पूरी दुनियां में फैल गयी। विश्व में इस समय लगभग 52 हजार टन सभी प्रकार का रेशम तैयार होता है जिसमें से 32 हजार टन रेशम उत्पादन आज भी चीन में होता है। 9 हजार टन रेशम भारत में और शेष 11 हजार टन कोरिया, जापान, इटली आदि अनेक देशों में होता है। कोरिया में रेशम उत्पादन प्रायः सभी किसान करते हैं। मैने कोरिया में, अनेक खेतों की मेड़ से, शहतूत के पत्ते तोड़ती हुई किसान बालिकायें देखी हैं। किसान की आवश्यकता से बचा रेशम किसान बेच लेता है।
भारत में कर्नाटक और काश्मीर को छोड़कर शेष कहीं भी शहतूत के पत्ते खिलाकर रेशम उत्पादन को गम्भीरता से नहीं लिया गया। जब पूरे भारत में शहतूत की खेती हो सकती है। तो घर घर में रेशम उत्पादन भी हो सकता है। दूसरी ओर रेशम अर्जुन पेड़ के पत्ते खाकर जंगली रूप से कीड़ा बनाता है। जिसे आदिवासी बीनकर बेचते हैं उसे टसर कहा जाता है। यदि टसर रेशम के उत्पादन को व्यवस्थित करके प्रोत्साहन दिया जाये तो बंगाल से राजस्थान तक अर्जुन पेड़ के सहारे कई गुना टसर उत्पादन किया जा सकता है। तीसरी रेशम ईरी हैं जो आसाम के कुछ भाग में पैदा होती हैं उसे भी पूरे पूर्वोत्तर प्रदेशों में पैदा किया जा सकता है। विश्व में यही तीन रेशम पैदा होती हैं परन्तु भारत का जलवायु तो अनोखा है। आसाम में दुनियां से अलग सुनहरी रंग की मूंगा रेशम पैदा होती है। जो बहुत सुन्दर और टिकाऊ होती है। मूंगा रेशम का उत्पादन भी पूर्वोत्तर भारत में और बढ़ाने की जानकारी है। भारतीय वैज्ञानिकों ने, साल वृक्ष के पत्ते खाकर रेशम बनाने वाला कीड़ा भी संकरित कर लिया है, जो आधे भारत में रेशम उत्पादन का एक नया क्षेत्र होगा। क्रूड तेल आगामी पचपन वर्षों में प्रायः समाप्त हो जायेगा फिर पोलिस्टर या नाईलोन का उत्पादन नहीं हो सकेगा। भविष्य में बढ़िया कपड़ों का आधार रेशम ही रहेगा। अभी तो भारत आंतरिक खपत और रेशमी वस्त्र निर्यात के लिये लगभग 300 टन रेशम चीन से आयात करता है।
चीन की नीति अब रेशम नहीं रेशमी वस्त्र निर्यात की बन गयी है। अतः भारत में रेशम उत्पादन बढ़ाना होगा। जितने कीड़े भारत में 3 किलो रेशम बनाते हैं उतने ही कीड़े चीन में 5 किलो रेशम बनाते हैं। कीड़ों की नस्ल सुधारना होगा। सातवीं योजना में रेशम उत्पादन पर केवल 15 करोड़ रुपया खर्च होना था। विश्व बैंक के सहारे सकार ने शताब्दी के अन्त तक के समय में दस अरब रुपये से दस लाख लोगों को रेशम उद्योग में लगाने की एक बड़ी योजना बनाई थी। जिसके अनुसार भारत में रेशम उत्पादन नौ से बढ़कर बीस हजार टन हो जाना था। विश्व बैंक ने ऋण नहीं दिया तो योजना खटाई में पड़ गई।
भारत को अपने ही साधनों से प्रत्येक गांव में रेशम उद्योग को प्रोत्साहन देना चाहिये। चर्खा कातने के समान यदि रेशम के कीड़े पालना फालतू समय का शौक और धन्धा बन जाये। सरकार कीड़ों की पूर्ति और रेशम की खरीद करे तो भारत के अनोखे जलवायु में एक लाख टन रेशम उत्पादन भी अधिक नहीं है।
फल उत्पादन -:
हमारे पुरखे पपीता, सेब, आडू, अलूचा, स्टावरी, माल्टा, अन्नास आदि फल इसलिये नहीं खा पाये क्योंकि वह भारत में नहीं होते थे। दुनियां के सभी फल भारत पैदा कर सकता है। भारत के उत्तर में अरब और यूरोप का ताजे फल का व्यापक क्षेत्र है। डिब्बाबंद फल पूरी दुनियां को निर्यात किये जा सकते हैं। आम, अंगूर, अन्नास, अमरूद, केला, पपीता, सन्तरा, इमली आदि अनेक फल, ताजे अथवा रस या लुगदी के रूप में विदेशों में बहुत पसन्द किये जाते हैं 84-85 में केवल सोलह करोड़ रुपये के ताजे फल निर्यात किये गये। जिसमें आधा आम वाले आम की खेती पर भारत को एकाधिकार है। डिब्बा बन्द खाद्य पदार्थों को मछली सहित विश्व में लगभग इक्कीस खरब रुपये के बराबर निर्यात व्यापार है। जिसमें भारत का भाग तीन सौ साठ करोड़ रुपये का है। अकेला ब्राजील देश विश्व बाजार का अस्सी प्रतिशत सन्तरे का पांच लाख टन रस बेचता है। वही स्थान भारत में आम ले सकता है। इस समय एक करोड़ टन सालाना आम भारत में पैदा होता है।
प्राय: पूरे भारत में मार्च से अगस्त तक आम का एक लम्बा मौसम होता है आवश्यकतानुसार आम की फसल चाहे जितनी बढ़ाई जा सकती है। आम की गुठली में दस प्रतिशत एक विशेष तेल होता है। जो कोकोआ के स्थान पर प्रयोग होने के लिये अरबों रुपये की विदेशी मुद्रा दे सकता है।
पशु आहार के रूप में भी आम की गुठली पौष्टिक आहार है। हिमालय पर्वत में जब यातायात का साधन नहीं था खाद्यान्न की खेती करना मजबूरी थी। आज जब सड़कों का जाल बिछ गया है और लोहे के तारों द्वारा बने रस्से का सीधी चोटी से खड्ड का रास्ता बहुत सस्ता और कम समय लेने वाला बनने लगा हैं तो हिमालय में अनाज की खेती मूर्ख किसान या सरकार ही पसन्द करेगा।
सेब, आडू, नाशपाती, खूबानी, नाख, नाशपाती, संतरा, नींबू बादाम, अखरोट, चिलगोजा आदि ताजे या सूखे मेवा विशाल हिमालय में पैदा होते हैं। बिक्री और भण्डारण तथा डिब्बाबन्दी कर समुचित प्रबन्ध करने के बाद हिमालय में, फलों की खेती चाहे जितनी की जा सकती है। मैदानों में जितनी सब्जियाँ जाड़े के मौसम में उगाई जाती हैं वह सब हिमालय में, गर्मी के मौसम में उगाई जाती है जो सम्पूर्ण भारत में बेची जाती है।
अनाज से कई गुनी अधिक आय, हिमालय के किसानों और भारत को फल, सब्जी और औषधि उगाकर हो सकती है। इंसानी बस्ती के एक लाख नये गांवों को फल उगाने के विशेष केन्द्र होंगे ही। यदि बागान नीति सही बन जायें और साधन जुटा दिये जायें तो करोड़ों हैक्टर भूमि में, पृथ्वी पर उगने वाला, प्रत्येक फल और सब्जी पूरे वर्ष उगाकर आन्तरिक और निर्यात की आवश्यकताओं को पूरा करते हुये अरबों खरबों रुपये की आय बढ़ाई जा सकती है। वनों की भूमि, बेकार भूमि पर वृक्षारोपण फलों के बगीचे तथा रेशम, कत्था, लाख आदि का उत्पादन करके पेड़ मिलाकर पूरे भारत का दृश्य भी एक विशाल बगीचे का बना देंगे।
शाक भाजी -:
आलू, गोभी, टमाटर आदि अधिकांश सब्जियाँ जो रोजाना पूरे भारत में खाई जाती हैं। इसीलिये हमारे ऋषि मुनियों को नहीं मिल पाई क्योंकि वह भारत में नहीं पाई जाती थीं। आज पृथ्वी पर पाई जाने वाली प्रत्येक सब्जी भारत में, कहीं न कहीं उगाई जाती है। पानी की अच्छी निकासी और भरपूर सिंचाई का प्रबन्ध कर देने से, भारत में आधी दुनिया को खिलाने योग्य सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं.
उत्तरी गोलार्द्ध के सम्पन्न देश, दीर्घकालीन समझौतों के आधार पर, पूरे वर्ष भारत से ताजी और डिब्बाबंद सब्जियाँ अरबों रुपये की विदेशी मुद्रा देकर खरीद सकते हैं। आलू का आटा, चिप्स और शराब की मांग विदेशों में बहुत है। भारत में मैदानों में आलू की दो फसलें जाड़ों में और तीसरी फसल गर्मियों में पहाड़ों पर पैदा होती है। विदेशों में भारतीय प्याज भी आलू की भांति पूरे वर्ष पसन्द की जाती है। भारत में प्याज की भी, गर्मियों और बरसात में दो फसलें पैदा होती हैं।
अंगूर -:
यदि सिंचाई और पानी की निकासी का उचित प्रबन्ध हो और फल पकते समय वर्षा न हो तो अंगूर की सफल खेती हो सकती है। उत्तर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में भी अंगूर की अगेती फसल बहुत अच्छे फल देती है। यदि कम वर्षा वाले रेगिस्तान में सिंचाई का प्रबन्ध होकर अगूर की खेती की जाये तो सेब की भांति अंगूर भी पूरे वर्ष बाजार में उचित मूल्य पर मिलने लगे। अभी तक किशमिश आयात होती है फिर फालतू अंगूरों को सुखाकर किशमिश का निर्यात किया जा सकता है। अंगूरी शराब भी निर्यात हो सकती है।
कपास -:
कपास का फूल खिलते समय भी वर्षा न होने से लाभ रहता हैं पृथ्वी पर सबसे पहले कपास का उत्पादन मिश्र की नील नदी के पास और भारत में सिन्धु नदी के पास हुआ था। आज विश्व कपास क्षेत्रफल का एक चौथाई क्षेत्र भारत में है। परन्तु उत्पादन दसवें भाग के बराबर होता है। असिंचित क्षेत्र में प्रति हेक्टर केवल दो सौ पचास किलोग्राम कपास उत्पादन का औसत है जबकि सिंचित क्षेत्रों में औसतन 950 किलो अर्थात चार गुना कपास पैदा होती है। यदि सिंचाई का समुचित प्रबंध हो जाये तो कपास का क्षेत्रफल घटकर भी कई गुना उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। भूमिगत तेल जैसे जैसे समाप्त होता जायेगा सूती वस्त्रों की मांग बढ़ती जायेगी और भारत सिंचित सघन खेती के द्वारा आधी दुनियां को सूती वस्त्र देने के योग्य कपास का उत्पादन कर सकता है।