लाहौर में एक सेठ रहता था। नाम था उसका दुनीचंद। वह काफी अमीर था। उसे इस बात का घमंड था कि मेरे पास अकूत धन-संपत्ति है। उसने अपने धन-संपत्ति की प्रदर्शनी के लिए अपने घर के ऊपर अनेक झंडे लगा रखे थे। ये इस बात के प्रतीक थे कि सेठ दुनीचंद के खजाने में उतने करोड़ रूपये जमा हैं।
लेकिन सेठ दुनीचंद इन पैसों में से किसी को भी एक कौड़ी नहीं देता था। गरीब हो या साधु, वह दान करना या किसी को सहायता करना नहीं जानता था। उसे हर समय यही फिक्र सताये रहती थी कि इस धन को और कैसे बढ़ाया जाय।
एक बार सिखों के धर्मगुरू नानक घूमते-घामते लाहौर पहुंचे। सेठ के मकान के ऊपर लगे झंडे को देख, उन्होंने इसके बारे में जानकारी ली। वहां के निवासियों ने उन्हें बताया कि ये जितने झंडे हैं, सेठ के खजाने में उतने करोड़ रूपये जमा हैं।
‘तब तो वह गरीबों को भरपूर सहायता करता होगा।’
‘नहीं महाराज, वह इसमें से किसी को एक फूटी कौड़ी भी नहीं देता।’
‘यह बात, मैं उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न करता हूं।’
‘वह किसी की बात नहीं मानता।’
‘कोशिश करना हर इंसान का कर्तव्य है’, -नानक ने कहा।
नानक उस सेठ के पास गए। दुनीचंद ने नानक के साथ भी वैसा ही व्यवहार करना शुरू किया जो अन्य लोगों के साथ करता था। नानक ने उसे एक सुई देते हुए कहा-‘वत्स! तुम जो मुझे समझ रहे हो, मैं वैसा नहीं हूं। मेरे पास एक सुई है। अभी तुम इसे अपने पास रख लो, स्वर्ग में वापस कर देना। मेरे पास गुम हो जाने का डर है।’
‘लेकिन मैं इसे स्वर्ग में कैसे लौटाऊंगा। मरने पर कोई आदमी अपने साथ कुछ नहीं ले जाता।’ सेठ ने उत्तर दिया।
‘वत्स! यही तो समझने की बात है। तुम जिस संपत्ति पर घमंड करते हो, वह भी तो यहीं रह जायेगी’ – नानक ने उसे समझाते हुए कहा।
‘महाराज! आपने मेरी आंखें खोल दीं। अब मैं वही करूंगा, जो आप कहेंगे।’ वह सेठ तबसे गुरू नानक का शिष्य बन गया और त्याग और सेवा दो मानवीय कर्तव्यों का पालन करने लगा।