महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद 288 विधायकों के साथ देश की तीसरी बड़ी विधानसभा मे कौन बहुमत हासिल कर पाएगा, इसपर सबकी निगाहें हैं.
क्या पांच महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव के नतीजे फिर से महाराष्ट्र के चुनाव मे भी दोहराए जाएंगे या फिर कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस (एनसीपी) जैसे विपक्षी दल बीजेपी और शिवसेना के सामने कोई चुनौती खड़ी करेंगे?
क्या स्थानीय मुद्दे और जातिगत समीकरण इस साल के चुनावों पर असर डालेंगे या फिर देश में चल रही राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की हवा महाराष्ट्र का रुख तय करेगी? क्या 2014 का अपना प्रदर्शन शिवसेना-बीजेपी दोहरा पाएंगे या सालों से महाराष्ट्र की सत्ता मे रहे कांग्रेस-एनसीपी फिर से उभर कर आएंगे?
2014 में महाराष्ट्र में क्या हुआ था?
2014 में दिल्ली मे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ‘एनडीए’ की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद वही हवा छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव मे भी देखने को मिली थी.
महाराष्ट्र मे बीजेपी के नेतृत्व मे सरकार बनी थी और देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बने. हालांकि बीजेपी को अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ था. 288 विधायकों की विधानसभा मे 144 का आंकडा बहुमत पार ले जाता है, मगर बीजेपी की गाड़ी 121 पर अटक गई थी.
उस वक्त सीटों के बंटवारे के चलते 25 साल पुराना शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन टूट चुका था और दोनों अपने दम पर चुनाव लड़े थे.
लेकिन चुनाव के बाद तीन महीनों मे ही शिवसेना ने, जिसके 63 विधायक चुन कर आए थे, समझौता कर लिया और वह सरकार मे शामिल हो गई. इससे पहले सिर्फ 1995 में शिवसेना-बीजेपी की सरकार महाराष्ट्र मे बनी थी जो राज्य की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी.
उससे पहले महाराष्ट्र में 1999 से 2014 तक यानी 15 साल, कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार रही. लेकिन 2014 मे कांग्रेस 42 और एनसीपी 41 सीटों पर सिमट गए.
पिछले पांच सालों में क्या हुआ?
शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन में महाराष्ट्र मे बनी यह दूसरी सरकार हमेशा से इन दोनों मित्र-दलों के झगड़ों से सुर्खियों में रही.
शिवसेना सत्ता मे शामिल रही मगर बीजेपी की राजनीतिक और आर्थिक नीतियों के खिलाफ हमेशा आक्रामक रही, जितना शायद विपक्षी दल भी नही थे. चाहे वह नोटबंदी का फैसला हो या फिर मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन लाने का फैसला या फिर मुंबई मेट्रो की आरे कारशेड का विरोध, शिवसेना कई बार विरोध मे दिखाई दी.
इन पिछले पांच सालों में राज्य में हुए लगभग सभी चुनावों मे बीजेपी और शिवसेना जीतते गए. पंचायत के चुनाव हो, या फिर नगरपालिका और महानगरपालिका के चुनाव, शिवसेना-बीजेपी अलग-अलग लड़े. लेकिन विपक्षी दलों को मौका नही मिला.
मुंबई महानगपालिका मे दोनों का कड़ा मुकाबला हुआ. ऐसा लगा कि सालों से रही शिवसेना की मुंबई की सत्ता चली जाएगी. मगर शिवसेना के 2 पार्षद ज़्यादा चुनकर आ गए और मुंबई उन्हीं के हाथों मे रह गई. हालांकि, इन झगड़ो के बावजूद शिवसेना सरकार मे बनी रही.
इस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे और उससे राजनीतिक उठापटक भी हुई. इस सरकार मे नंबर टू रहे और बीजेपी ने राज्य के वरिष्ठ नेता एकनाथ खडसे को ज़मीन के मामले मे इस्तीफा देना पड़ा. पंकजा मुंडे, विनोद तावडे जैसे मंत्रियों पर भी विपक्ष के दलों ने आरोप लगाए, मगर उनकी कुर्सी बची रही.
मराठा आरक्षण आंदोलन, किसान आंदोलन और भीमा कोरेगांव
महाराष्ट्र की बीजेपी-सेना की सरकार की असली परीक्षा इन पांच सालों में मराठा आरक्षण मे मुद्दे को लेकर जब जनआंदोलन हुए, तब हुई. महाराष्ट्र की आबादी में मराठा सबसे बड़ी जाति है और हमेशा सत्ता मे ज्यादा हिस्सा उन्हीं का रहा है.
उन्हें ओबीसी वर्ग मे आरक्षण मिले, ऐसी कई सालों से पुरानी मांग थी. इस मांग को लेकर दो दौर मे बड़े आंदोलन हुए.
लाखों लोग रास्ते पर उतर आए. दूसरे दौर मे कुछ जगह हिंसा भी भड़की और आत्महत्याएं भी हुईं.
सरकार को आरक्षण की मांग मंज़ूर करनी पड़ी. सरकार ने मराठाओं को आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ा घोषित करते हुए 18 फीसदी आरक्षण दिया. उच्च न्यायालय ने भी यह आरक्षण बरकरार रखा.
इस सरकार के कार्यकाल मे बड़े किसान आंदोलन भी हुए. जिसके चलते राज्य सरकार को किसानों की कर्ज़ माफी की घोषणा करनी पड़ी. हालांकि इस योजना को लेकर किसानों की कई शिकायते हैं.
एक जनवरी 2018 को पुणे के नज़दीक भीमा-कोरेगांव मे हिंसा भड़की. इसके बाद सरकार को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा और उसका महाराष्ट्र की राजनीति पर असर भी पड़ा.
यहां इस दिन हर साल हज़ारों दलित कार्यकर्ता आते हैं. जब यहां के ऐतिहासिक युद्ध को 200 साल पूरे हो रहे थे तब, उस दिन हिंसा भड़क गई और पत्थरबाज़ी हुई, गाडियां जलाई गईं. देशभर में इसकी प्रतिक्रिया आई.
आज की स्थिति
अब जब चुनाव का ऐलान हो रहा है तब सवाल उठ रहा है कि क्या शिवसेना बीजेपी की सहयोगी बनी रहेगी? क्या वह साथ मे चुनाव लड़ेंगे?
लोकसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ‘बीजेपी’ ने शिवसेना के साथ गठबंधन बना लिया था. तब यह तय हुआ था कि छह महीने बाद आनेवाले विधानसभा चुनाव मे सीटों का आधा-आधा बंटवांरा होगा. यानी बाकी सहयोगी दलों को 18 सीटें छोड़कर 135-135 सीटें बीजेपी और सेना को मिलेगी.
लेकिन उसके बाद लोकसभा में फिर से ‘बीजेपी’ की लहर देखकर बीजेपी अब शिवसेना को इतनी सीटें देने के लिए तैयार नहीं है.
बीजेपी मे एक गुट कह रहा है कि अकेले अपने दम पर बीजेपी बहुमत ला सकती है. हालांकि, मुख्यमंत्री फडणवीस और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे बार-बार यह कह रहे है कि गठबंधन होकर रहेगा.
‘मुंबई मेट्रो’ के पिछले हफ्ते हुए एक समारोह ने प्रधानमंत्री मोदी ने उसी मंच पर बैठे उद्धव ठाकरे को ‘छोटा भाई’ कहा. महाराष्ट्र की राजनीति मे इसका मतलब गठबंधन में जिसको कम जगह मिलती है उसे छोटा भाई कहते है.
दूसरी तरफ बीजेपी और शिवसेना जिस तरह प्रचार के मोड मे चले गए हैं उसे देखते हुए शायद वह अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ने की भी तैयारी कर रहे हैं.
मुख्यमंत्री फडणवीस से अगस्त के महीने में ‘महाजनादेश यात्रा’ प्रारंभ की. लेकिन उस यात्रा का ऐलान होते ही शिवसेना के नेता और उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ने ‘जनआशीर्वाद’ यात्रा की शुरुआत कर दी.
शिवसेना की तरफ से आदित्य का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए लेना शुरु हो गया. ठाकरे परिवार से कोई भी अब तक चुनाव नही लड़ा है. लेकिन अब आसार ऐसे हैं कि आदित्य मुंबई की किसी सीट से चुनाव लडेंगे.
सिर्फ यही नहीं, आए दिन कांग्रेस और एनसीपी के नेता और विधायक बीजेपी और शिवसेना में जा रहे हैं. उनकी तादाद इतनी है कि पूछा यह भी जा रहा है कि क्या यह दोनों दल अपने नेताओं को टिकट दे पाएंगे?
लेकिन इस राजनीति को इस तरह से भी देखा जा रहा है कि अगर शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन ना हुआ, तो सारी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के लिए विकल्प हो.
विपक्ष से ‘पलायन’
महाराष्ट्र की आज की राजनीति में जो हो रहा है वह इतिहास ने शायद ही देखा हो. विपक्षी दलों कांग्रेस और एनसीपी से कई कद्दावर नेता अपना दल छोड़ कर बीजेपी और शिवसेना का रुख कर रह हैं.
इतनी तादाद मे ऐसा ‘पलायन’ महाराष्ट्र मे कभी नहीं हुआ. क्या इसका मतलब यह मान लिया जाए कि हवा सिर्फ बीजेपी और शिवसेना की है, या फिर विपक्षी दल कमज़ोर हो चुका है.
इस पलायन का सबसे बडा झटका एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार को लगा है. उनके साथ बरसों से राजनीति में रहे, उनकी सरकार में मंत्री रहे नेता अब उन्हें छोड़ रहे हैं.
शरद पवार खुद यह कह चुके हैं कि सत्तापक्ष की तरफ से विपक्षी नेताओं को एजेंसियों का डर दिखाया जा रहा है. महाराष्ट्र का यह चुनाव शरद पवार बनाम सत्तापक्ष बन गया है.
कांग्रेस से भी कई कद्दावर नेता सत्तापक्ष का रुख कर चुके हैं. लेकिन कांग्रेस को उसके ही नेताओं के अलग-अलग गुटों ने कमज़ोर की है.
चुनाव से कुछ ही महीने पहले उन्हें नए अध्यक्ष मिले हैं. मुंबई कांग्रेस का कोई अध्यक्ष नहीं है.
लोकसभा चुनाव के बाद ना तो राहुल गांधी, ना सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र की तरफ ध्यान दिया है. बिखरी हुई कांग्रेस महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव लड़ने जा रही है.
दलित और मुस्लिम वोटों का क्या होगा?
भीमा कोरेगांव की घटना होने का बाद दलित समुदाय मे जो आक्रोश था उसे आवाज़ देते हुए प्रकाश आंबेडकर का नेतृत्व आगे आया. उन्होंने ‘एआईएमआईएम’ के असदुद्दीन ओवैसी को साथ में लेते हुए लोकसभा चुनाव से पहले ‘वंचित बहुजन आघाडी’ का गठबंधन बनाया.
दलित और मुस्लिम वोट इकठ्ठा होने से लोकसभा चुनाव पर भारी असर पड़ा. महाराष्ट्रा मे उन्हें भारी वोट मिले और एक सांसद भी चुन कर आया.
ऐसा लग रहा था कि विधानसभा चुनाव मे भी इसका असर दिखेगा, लेकिन अब यह गठबंधन टूट चुका है. दोनो मे सीटों के बंटवारे को लेकर झगड़े हुए और गठबंधन खत्म हुआ. अब इसका असर मुस्लिम और दलित वोटर्स पर कैसा पड़ेगा यह देखना ज़रूरी है.
जब चुनाव होने जा रहे हैं तब महाराष्ट्र का एक हिस्सा, मराठवाड़ा, सूखे की चपेट में है और दूसरा हिस्सा, पश्चिम महाराष्ट्र, हाल में आई बाढ़ से अभी भी उभर रहा है. साथ ही में मुंबई, पुणे, नासिक, औरंगाबाद जैसे उद्योगक्षेत्र आर्थिक मंदी की मार झेल रहै है.
ऐसी स्थिती मे यह बुनयादी सवाल चुनाव पर असर डालेंगे या फिर राष्ट्रवाद और आर्टिकल 370 जैसे मुद्दे माहौल गरमाएंगे, यह देखना भी ज़रूरी है.
महाराष्ट्र की सत्ता बीजेपी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए तो अहम है ही, साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना जैसे प्रदेशिक दलों के अस्तित्व के लिए भी अहम है.
पहली वजह तो यह है की महाराष्ट्र राजनीतिक दृष्टि से बड़ा राज्य है. यहां से 48 सांसद लोकसभा में हैं और 19 राज्यसभा में.
दूसरा, महाराष्ट्र पर जिसका राज्य उसी की मुंबई. भारत की आर्थिक राजधानी पर अपना हाथ रखने की होड़ भी विधानसभा चुनाव में रहती है.
इसलिए यह वर्चस्व की लड़ाई है. महाराष्ट्र के चुनावों ने हमेशा देश की राजनीति पर भी असर डाला है. इसलिए यह चुनाव नतीजे आनेवाले दौर के राष्ट्रीय राजनीति का प्रवाह भी बयां करेंगे.