तीन महीने तक चले लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग और सीएजी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी संवैधानिक संस्थाओं को प्रचार का हिस्सा बना दिया गया था। ऐसे ही प्रयास राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को लेकर भी हुए लेकिन यदि वे विवाद से बच पाए तो उसके पीछे उनकी सोची समझी रणनीति थी – मीडिया और राजनीतिक दलों से दूर रहने की। मार्च से मई तक तीन महीनों के दौरान वे किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधिमंडल से नहीं मिले, न किसी ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम में भाग लिया जहां विवाद की संभावना हो और किसी भी आरोप का जवाब नहीं दिया। राष्ट्रपति भवन के सूत्रों के मुताबिक, उन्होंने इतनी सावधानी इसलिए बरती क्योंकि वे लंबे समय तक एक राजनीतिक दल से संबद्ध रहे और नहीं चाहते थे कि उनके किसी कदम पर, बयान पर या फैसले पर कोई उंगली उठाए।
सेनाधिकारियों का गुमशुदगी पत्र
चुनाव के दौरान कुछ पूर्व सेनाधिकारियों द्वारा राष्ट्रपति को लिखा एक पत्र चर्चा का विषय रहा जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा बालाकोट की घटना का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की आलोचना की थी। हालांकि पत्र में उल्लेखित सेना के कई अधिकारियों ने ऐसे किसी पत्र पर दस्तखत करने से इंकार कर एक नए विवाद के जन्म दे दिया था। मजे की बात यह थी कि राष्ट्रपति भवन को ऐसा कोई पत्र मिला ही नहीं था। लेकिन उन्होंने पत्र का न तो खंडन किया और न ही पुष्टि। किसी विवाद में पड़ने के बजाए उन्होंने चुप्पी साधे रखी।
राष्ट्रपति भवन के सूत्रों के मुताबिक टीवी पर खबर दिखाए जाने के एक सप्ताह बाद उन्हें स्पीड पोस्ट से कुछ कागजात मिले। ये कई लोगों को भेजे गए एक मेल की प्रतिलिपि थी। इस मेल पर लोगों ने अपने अपने विचार प्रकट किए थे। लेकिन किसी के दस्तखत नहीं थे। यह वैसा ही था जैसा एक व्हाट्सएप ग्रुप में डाली गई कोई पोस्ट। यही वजह थी कि राष्ट्रपति भवन ने इसका संज्ञान ही नहीं लिया।
नौकरशाहों का पत्र भा गायब
इसी तरह का पत्र पूर्व नौकरशाहों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए राष्ट्रपति को लिखा था। यह पत्र कई दिनों तक मीडिया में चर्चा का विषय रहा। लेकिन यह पत्र राष्ट्रपति भवन को आज तक नहीं मिला है। फिर भी राष्ट्रपति भवन की ओर से इस पर विषय पर कोई टिप्पणी नहीं की गई।
राजनीतिक दलों से दूरी
इस दौरान कोविंद ने सभी राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखी। तृणमूल कांग्रेस से लेकर कांग्रेस और भाजपा जैसे कई दलों ने उन्हें कई पत्र लिखे। लेकिन उन्होंने न तो किसी का जवाब दिया और न ही कोई प्रतिक्रिया दी। यहां तक कि जब संयुक्त विपक्ष के नेताओं ने उनसे मिलकर चुनाव बाद के गठबंधन को सरकार बनाने के निमंत्रण की मांग की यदि वह एनडीए से बड़ा हो जाए तो भी सिर्फ इतना जवाब दिया – पहले परिणाम आने दीजिए। आंकड़े आने के बाद ही मैं कुछ कहने की स्थिति में होऊंगा। मीडिया के लोगों से भी न तो मिले और न ही किसी कार्यक्रम में भाग लिया।
कार्यक्रमों से परहेज
इन तीन महीनों के दौरान राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति भवन के बाहर केवल तीन कार्यक्रमों में भाग लिया। ये सभी अकादमिक किस्म के थे। शिक्षकों के शोध से संबंधित और विश्वविद्यालयों के। राष्ट्रपति भवन में भी उन्होंने कुछ ही लोगों से मुलाकात की – सभी गैर-राजनीतिक जैसे आईएएस अफसरों के नए बैच या आईएफएस अफसरों से।
मिली तारीफ, विपक्ष ने भी की सराहना
कई वरिष्ठ विपक्षी नेताओं ने कोविंद के संयमित व्यवहार की तारीफ की है। तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना था कि ऐसे में जब राज्यों में स्थित राजभवन राजनीति के अखाड़े बन रहे हैं, राष्ट्रपति के खुद को विवादों से परे रखने के प्रयास सराहनीय हैं। उन्होंने खुद को नेपथ्य में रखकर कर्तव्य को प्राथमिकता दी। वहीं, कांग्रेस के एक नेता ने भी राष्ट्रपति कोविंद के व्यवहार को नजीर करार दिया।
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