लंबे इंतजार के बाद नई शिक्षा नीति का मसौदा सामने आ गया, लेकिन यह अच्छा नहीं हुआ कि ऐसा होते ही हिंदी को लेकर एक अनावश्यक विवाद छिड़ गया। अब जब यह विवाद शांत हो गया है तब फिर जरूरी यह है कि नई शिक्षा नीति को प्राथमिकता के आधार पर लागू करने की दिशा में कदम उठाए जाएं। हालांकि सरकार की ओर से ऐसे संकेत दिए गए हैैं कि वह नई शिक्षा नीति की ज्यादातर सिफारिशों को अगले दो साल में लागू करने का इरादा रखती है, लेकिन उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा वास्तव में हो। नई शिक्षा नीति को लागू करने में तेजी दिखाने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि एक तो इस नीति का मसौदा देर से आ सका और दूसरे, शिक्षा का मौजूदा ढांचा व्यापक बदलाव की मांग करता है।
शायद ही कोई इससे असहमत हो कि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक का हमारा ढांचा आज की जरूरतों के अनुरूप नहीं है। चूंकि समस्याएं प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही शुरू हो जाती हैैं इसलिए उनका दुष्प्रभाव माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर तक नजर आता है। जहां प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर पाठ्यक्रम के साथ ही पठन-पाठन के तौर-तरीकों को दुरुस्त करने की सख्त जरूरत है वहीं माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर अंकों की होड़ को दूर करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जब नई शिक्षा नीति की सिफारिशों पर न केवल विभिन्न राजनीतिक दलों और शिक्षाविदों, बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच भी आम सहमति कायम हो सके। यह तभी संभव होगा जब नई शिक्षा नीति के मसौदे पर राजनीतिक संकीर्णता से मुक्त होकर विचार किया जाएगा।
किसी के लिए भी समझना कठिन है कि माध्यमिक शिक्षा के केंद्रीय और राज्यों के बोर्ड इस पर सहमत क्यों नहीं होे सकते कि परीक्षाओं में अंकों की होड़ खत्म हो? नि:संदेह परीक्षाओं में अंकों का कुछ न कुछ महत्व तो रहेगा ही, लेकिन इसका औचित्य नहीं कि छात्रों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन केवल उन्हीं के आधार पर किया जाए। यह वक्त की मांग है कि विभिन्न शिक्षा बोर्ड एकमत होकर कार्य करें। परीक्षाओं में अंकों की होड़ समाप्त करने के साथ ही एक बड़ी जरूरत यह भी है कि प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर समान पाठ्यक्रम लागू किया जाए। अलग-अलग तरह के पाठ्यक्रम असमानता की खाई को चौड़ा करने का ही काम कर रहे हैैं।
आखिर माध्यमिक शिक्षा का ढांचा ऐसा क्यों नहीं हो सकता जिससे इस स्तर की शिक्षा पूरी करने वाले छात्र करीब-करीब एक समान धरातल पर नजर आएं? माध्यमिक शिक्षा के मुकाबले उच्च शिक्षा कहीं अधिक गंभीर सवालों का सामना कर रही है। उच्च शिक्षा के अधिकांश संस्थान डिग्रियां बांटने के केंद्र बनकर रह गए हैैं। इन संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश युवा उद्योग-व्यापार जगत की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहे हैैं। बेहतर हो कि उच्च शिक्षा का स्तर इस तरह सुधारा जाए जिससे हमारे युवा किसी न किसी हुनर से लैस हों। उच्च शिक्षा को उपयोगी बनाने के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि उसे कौशल विकास से जोड़ा जाए।