संविधान को स्वीकार करने के 75 वर्ष पूरे होने पर संसद में संविधान पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबा भाषण दिया. अपने पूरे भाषण में पीएम नरेंद्र मोदी ने जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर कांग्रेस के लंबे शासन पर निशाना साधा. उससे पहले लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने सावरकर का नाम लेते हुए संविधान के प्रति उनकी धारणा पर सवाल उठाए जबकि पहली बार संसद पहुंचीं उनकी बहन और कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी सरकार को घेरा.
संविधान पर हुई लंबी चर्चा की गूंज सोशल मीडिया पर भी सुनाई दी और कई लोगों ने पीएम मोदी के भाषण को शानदार बताते हुए उसे हालिया हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों में बीजेपी की अप्रत्याशित जीत का ‘आत्मविश्वास’ क़रार दिया. जहां बीजेपी नेताओं ने राहुल गांधी के भाषण पर तीखी प्रतिक्रिया दी और गांधी परिवार पर संविधान की ‘धज्जियां’ उड़ाने के आरोप लगाए वहीं विपक्षी सांसदों ने पीएम मोदी के भाषण की आलोचना की. क़रीब एक घंटा 50 मिनट लंबे अपने भाषण में पीएम मोदी ने कांग्रेस का नाम लिए बिना एक ख़ानदान के 70 साल लंबे शासन पर तीखा हमला किया, अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं और अंत में संविधान के प्रति 11 संकल्पों की घोषणा की.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि शनिवार को जो संविधान पर बहस हुई उसमें संविधान पर कम और अपनी अपनी राजनीति पर बातें अधिक हुईं. “संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों पर बहस होनी चाहिए थी लेकिन उस पर बहस हुई ही नहीं. और सबने अपनी समसामयिक राजनीतिक के लिए इस चर्चा का इस्तेमाल किया. “यह बहस कांग्रेस की मांग पर बुलाई गई थी. लेकिन लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने अपने 20-25 मिनट के भाषण में ऐसी कोई बात नहीं की जिससे पता चलता कि कांग्रेस का संविधान निर्माण में क्या योगदान था या आज की सरकार उस पर कितना खरी उतरी है या नहीं उतरी है.”
“यह राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए एक बड़ा मौक़ा था जिसे उन्होंने गंवा दिया. आज के भाषण में मुझे ‘राहुल गांधी मौक़ा खोने का कोई मौक़ा नहीं गंवाते’, ये कहावत सटीक लगी.”राहुल सवाल सरकार से पूछ सकते थे कि वह जातिगत जनगणना करवा रही है या नहीं, या कब करवा रही है. या फिर सोमवार को एक देश एक चुनाव का बिल सरकार ला रही है. वो इस बारे में सवाल कर सकते थे और अपनी राय ज़ाहिर कर सकते थे.”
“या ये पूछ सकते थे कि क्या सरकार समान नागरिक संहिता पर चर्चा करने जा रही है. जिस समय समय संविधान बना तो इसकी चर्चा की गई थी लेकिन उस समय लागू नहीं किया गया, आज इसे लागू करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी, ये सवाल राहुल पूछ सकते थे. लेकिन ऊपरी तौर पर संविधान के बारे में बात करते हुए अपने भाषण को जल्द समेट दिया. “कांग्रेस संविधान के बारीक़ मुद्दों पर अपने अनुभवी नेताओं को मौक़ा देकर एक सार्थक बहस खड़ी कर सकती थी. उनके पास शशि थरूर और शैलजा कुमारी जैसे लोग थे. लेकिन उन्होंने बहस की शुरुआत प्रियंका गांधी से कराई, इसलिए कि उन्हें आगे करना था.
कांग्रेस ने इस बहस से कोई छाप छोड़ने का मौक़ा पूरी तरह गंवा दिया. वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विनोद शर्मा का भी कहना था कि राहुल गांधी जल्दबाज़ी में दिख रहे थे और अपने भाषण को जल्द समेट दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण का लंबा हिस्सा नेहरू से लेकर गांधी परिवार के शासन की आलोचना में ख़र्च किया.
“दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने गड़े मुर्दे उखाड़ने या नेहरू गांधी परिवार की आलोचना में अपना सारा समय बिताया.””प्रधानमंत्री ने इंदिरा गांधी और आपातकाल की आलोचना की लेकिन इसे बीते हुए 50 साल हो गए हैं, इस पर कितनी बात की जा सकती है. वो 2047 की बात करते हैं तो उन्हें ये बताना चाहिए कि भविष्य में संविधान के किस स्वरूप को लेकर चलेंगे.”
बीजेपी की ओर से संविधान संशोधन को लेकर आक्रामक बहस की गई. लेकिन इसमें तथ्यों के प्रति पूर्वाग्रह भी दिखा. “एक बात प्रधानमंत्री ने बार बार बोला कि नेहरू ने संविधान में संशोधन किए और फिर इंदिरा गांधी के मुंह खून लग गया और उन्होंने भी बदलाव किए. जबकि देश में हुए 106 संविधान संशोधन में 30 के करीब संशोधन तो गैर कांग्रेसी सरकारों ने किए. खुद बीजेपी ने कई संशोधन किये हैं.”
“प्रधानमंत्री ने भी एक देश एक चुनाव पर कोई बात नहीं की, जबकि यह संवैधानिक बदलाव का मुद्दा है. भाषण में न तो चुनाव सुधारों पर बात हुई और न संविधान को मज़बूत करने पर. जातिगत आरक्षण पर केवल उन्होंने इतना संदेश दिया कि वो धार्मिक आरक्षण के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन जातिगत आरक्षण और जातिगत जनगणना पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा.”
उनके मुताबिक़, “संविधान पर हुई बहस में एक एक बड़ा मुद्दा रह गया, वो है केंद्र और राज्य संबंध. संविधान सभा में इस पर लंबी बहस हुई और अभी यह एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है. केंद्र और राज्यों के अधिकार को लेकर तमाम विवाद हैं और राज्यपालों की भूमिका पर राहुल गांधी ने भी कोई बात नहीं की. न प्रधानमंत्री उस तरफ़ गए.”
वही अखिलेश यादव का ज़िक्र करते हुए कहा कि उनके भाषण में भी कोई दम नहीं था.वो कहते हैं, “अखिलेश यादव ने अपने भाषण के अंत में राम मनोहर लोहिया का नाम लिया. जबकि वो संविधान में समाजवाद की अवधारणा पर बोल सकते थे. आजकल इस पर बहस भी चल रही है. “राहुल गांधी संविधान में समाजवाद और सेक्युलरिज़्म को लाए जाने पर बात रख सकते थे. या पीएम मोदी सेक्युलरिज़्म पर अपने विचार व्यक्त कर सकते थे. लेकिन इन सब पर कोई बात नहीं हुई.”