1977 के अक्टूबर महीने की एक सुबह। दिल्ली स्थित CBI के मुख्यालय में गहमागहमी थी। अधिकारी फाइलों में उलझे थे। पुलिस को भी तैयार रहने के निर्देश दे दिए गए थे।
ये आपातकाल के बाद का वक्त था। केंद्र में मोरारजी देसाई की अगुआई वाली जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। चौधरी चरण सिंह को गृहमंत्री बनाया गया था। सरकार में शामिल लगभग सभी नेता चाहते थे कि इमरजेंसी के दौरान सैकड़ों नेताओं को जेल भेजने वाली इंदिरा को भी गिरफ्तार किया जाए।
इंदिरा पर भ्रष्टाचार के कई मामले थे। इनमें सबसे ऊपर था- जीप घोटाला। इंदिरा पर आरोप था कि रायबरेली सीट पर चुनाव प्रचार के लिए सरकारी पैसे से 100 जीपें खरीदी गई थीं। इंदिरा भी देश के गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह को उन्हें गिरफ्तार करने की चुनौती दे चुकी थीं।
गिरफ्तारी के लिए पहले 1 अक्टूबर की तारीख तय की गई थी। तब चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी ने सुझाव दिया कि 1 अक्टूबर को शनिवार है। इस दिन अगर इंदिरा गिरफ्तार होती हैं तो दूसरे दिन रविवार होने की वजह उन्हें बेल नहीं मिलेगी और एक महिला के लिए यह दिक्कत की बात होगी।
गृहमंत्री चरण सिंह गिरफ्तारी की तारीख को बदलकर 2 अक्टूबर करने का आदेश देते हैं। इंटेलिजेंस ब्यूरो में पूर्व DIG विजयकरण कहते हैं कि अगर गांधी जयंती के दिन गिरफ्तार किया गया तो पूरा मुद्दा कहीं और भटक जाएगा। 3 अक्टूबर इस काम के लिए परफेक्ट रहेगा।
इस तरह 3 अक्टूबर को इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया जाता है। हालांकि 16 घंटे हिरासत में रहने के बाद इंदिरा गांधी को जमानत मिल गई। इस एक्शन की वजह से चौधरी चरण सिंह सुर्खियों में छा गए। इसके बाद दो साल भी नहीं बीते, इंदिरा ने चरण सिंह से अपनी गिरफ्तारी का करारा बदला लिया।
चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री तो बने, लेकिन महज 24 दिनों के लिए। इंदिरा गांधी के हाथ खींचने की वजह से वो बतौर प्रधानमंत्री एक भी दिन लोकसभा नहीं जा सके। हालांकि केयरटेकर प्रधानमंत्री के दौर पर उनका कार्यकाल करीब 5 महीने रहा। आज राजनीति में चौधरी चरण सिंह की तीसरी पीढ़ी का दबदबा है। उनके पोते जयंत चौधरी ने 2024 लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन किया है।
देश के ताकतवर राजनीतिक परिवारों की सीरीज ‘परिवार राज’ के दसवें और आखिरी एपिसोड में चौधरी चरण सिंह परिवार के किस्से…
23 दिसंबर 1902 को चौधरी चरण सिंह का जन्म मेरठ के नूरपुर गांव के एक जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता छोटे जोत वाले किसान थे। 1929 में मास्टर्स की पढ़ाई पूरी करने के बाद चरण सिंह कांग्रेस पार्टी से जुड़ गए। वो महात्मा गांधी से प्रभावित थे।
मेरठ और उससे लगे शहरों में युवा चरण सिंह गुप्त क्रांतिकारी संगठन भी चला रहे थे। ब्रितानिया हुकूमत की मुखालफत के चलते मेरठ प्रशासन ने चरण सिंह को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए थे, लेकिन पुलिस को जब तक कोई खबर मिलती ये नौजवान क्रांतिकारी नेता आंदोलन से जुड़ी सभाओं में भाषण देकर निकल जाता था। बाद में चरण सिंह गिरफ्तार हुए। जेल से वापसी हुई तब तक यूपी की राजनीति में उनका कद बड़ा हो चुका था।
1937 में चरण सिंह छपरौली विधानसभा से संयुक्त प्रांत के विधायक चुने गए। इसके बाद चरण सिंह 1946, 1952, 1962 और 1967 में भी विधानसभा के लिए चुने गए। इस बीच जून 1951 में स्टेट कैबिनेट मिनिस्टर और 1952 में डॉ. संपूर्णानंद की कैबिनेट में कृषि मंत्री बने।
1 अप्रैल 1967 को चरण सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। कांग्रेस के 16 विधायक अपने साथ मिलाकर चरण सिंह ने ‘जन कांग्रेस’ नाम से एक अलग गुट बना लिया। ये गुट विपक्ष के नेताओं के बनाए ‘संयुक्त विधायक दल’ गठबंधन में शामिल हुआ।
संयुक्त विधायक दल ने 1967 में चरण सिंह की अगुआई में उत्तर प्रदेश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। चरण सिंह को राज नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं और जनसंघ व कम्युनिस्ट पार्टी का साथ मिला।
3 अप्रैल 1967 को चरण सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, लेकिन सिर्फ एक साल बाद 17 अप्रैल 1968 को उन्हें सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा। दिसंबर 1968 में चरण सिंह ने अपने भरोसे के कुछ नेताओं को साथ लेकर एक नई पार्टी बनाई। इसका नाम ‘भारतीय क्रांति दल’ यानी BKD रखा गया।
BKD ने 1969 में उत्तर प्रदेश में हुए मध्यावधि चुनाव में हिस्सा लिया और फरवरी 1970 में चरण सिंह दूसरी बार उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इस बार सरकार को कांग्रेस का समर्थन था। सितंबर 1970 तक चरण सिंह यूपी के सीएम रहे। उसके बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके बाद साल 1977 तक चरण सिंह उत्तर प्रदेश की विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे।
ये वह दौर था जब दिल्ली के हालात तेजी से बदल रहे थे। चरण सिंह भी दिल्ली की सियासत की तरफ रुख करना चाहते थे। 1974 में चरण सिंह ने विपक्षी नेताओं को एकजुट किया और भारतीय लोकदल की नींव रखी।
इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, लेकिन देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन रहा था। 1975 में इंदिरा ने देश पर इमरजेंसी थोप दी। सैकड़ों नेता जेल में डाल दिए गए। 26 जून 1975 की रात चरण सिंह भी जेल में थे। इमरजेंसी के विरोध में ज्यादातर विपक्षी नेता एकजुट हो गए थे और 77 में जनता पार्टी का गठन हुआ। चरण सिंह इसके प्रमुख संस्थापकों में से एक थे।
आपातकाल का निर्णय इंदिरा के लिए आत्मघाती साबित हुआ और 1977 के लोकसभा चुनाव में वे बुरी तरह हार गईं। 1977 का आम चुनाव ऐतिहासिक था। देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी की सरकार बनाई थी।
इस चुनाव में जनता पार्टी का चुनाव निशान हलधर किसान था। वही निशान जो चरण सिंह की पार्टी BKD का था। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को इस सरकार में पहले गृहमंत्री और बाद में उप-प्रधानमंत्री बनाया गया। इसी दौरान उन्होंने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करवाया था। बाद में मोरारजी देसाई से मतभेद होने के बाद चरण सिंह ने जनता पार्टी छोड़ दी।चरण सिंह जनता पार्टी से अलग हुए तो नई पार्टी बना ली। नाम रखा- लोकदल। इसका चुनाव निशान था- दो बैल और हल से खेत जोतता हुआ किसान। एक बार फिर चरण सिंह और कांग्रेस के बीच की दूरियां कम हुईं।
28 जुलाई 1979 को कांग्रेस और अन्य कुछ दलों के समर्थन से चरण सिंह देश के पांचवें प्रधानमंत्री बने। सरकार को बहुमत साबित करने के लिए राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने 20 अगस्त तक का वक्त दिया था] लेकिन इंदिरा की कांग्रेस (आई) ने 19 अगस्त को ही समर्थन वापस ले लिया। इतिहासकार कहते हैं कि ये इंदिरा का चरण सिंह से लिया गया बदला था।
सरकारों में मंत्री रहते हुए और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए चरण सिंह ने कई ऐसे काम किए थे, जिससे उनकी छवि किसान नेता की बन गई थी। लोग चरण सिंह को किसानों का अंबेडकर कहने लगे थे। सियासी गलियारों में जब देश के किसानों की बात होती है तो एक बात जरूर कही जाती है कि चौधरी चरण सिंह अगर संसद तक पहुंचे होते तो आज किसानों की स्थिति बेहतर होती।
चौधरी चरण सिंह की सेहत बिगड़ रही थी। उन्होंने IIT पास अपने बेटे अजित सिंह को राजनीति में बुला लिया। अजित सिंह देश लौटने के बाद राजनीति में एक्टिव हो गए। चौधरी चरण सिंह के करीबी डॉ. केएस राना ने एक इंटरव्यू में उनसे जुड़ा एक किस्सा याद करते हुए कहा कि एक बार मथुरा के डेम्पियर नगर में पब्लिक मीटिंग हो रही थी।
चौधरी चरण सिंह मंच पर भाषण दे रहे थे। उन्होंने कहा कि जो गांव और किसान को जानता है, उनकी परेशानियों को समझता है उसे देश की सियासत में आने का हक है। लेकिन, राजीव गांधी ने जहाज उड़ाए हैं। विदेश में पढ़े हैं। मेरा बेटा खुद अजित सिंह विदेश में पढ़ा है तो ऐसे लोगों के लिए सियासत में कोई जगह नहीं है
कुछ दिनों बाद लोकसभा चुनाव 1984 में किसे, कहां से टिकट देनी है इसको लेकर लिस्ट पढ़ी जा रही थी। मुलायम सिंह यादव खड़े होकर लिस्ट पढ़ रहे थे। कई बड़े नेताओं के अलावा चौधरी देवीलाल भी मौजूद थे।
मथुरा का नाम आते ही अजित सिंह का नाम बोला गया। जिस पर चरण सिंह ने कहा कि यह कौन है? राजनीति में जिसे मैं नहीं जानता और आप उसे मथुरा से टिकट दे रहे हैं, तो आखिर यह है कौन? तब देवीलाल ने उनसे कहा कि यह तुम्हारा छोरो है। इस पर उन्होंने मुलायम सिंह को डांट लगाते हुए कहा कि तू तो मेरे से राजनीति सीख रहा है। फिर तू कैसे परिवारवाद की बात कर सकता है। मुझे तुझ से ऐसी उम्मीद नहीं थी। और यह कहकर वो उस मीटिंग को छोड़कर चले गए।
इसी वजह से कहा जाता है कि चौधरी चरण सिंह ने राजनीति में एंट्री पर अपने बेटे चौधरी अजित सिंह का भी विरोध किया था। यही वजह रही है कि जब आखिरी वक्त में बीमारी के चलते चौधरी चरण सिंह 1986 में बेहोश थे तो उस वक्त ही पहली बार अजित सिंह राज्यसभा के सांसद बने थे। यहीं से अजित सिंह की सियासत में एंट्री हो पाई थी।
साल 1987 में 29 मई को चौधरी चरण सिंह ने आखिरी सांस ली, लेकिन उनके निधन के पहले ही लोकदल की राजनीतिक विरासत को लेकर घमासान शुरू हो चुका था। ये सियासी लड़ाई चौधरी साहब के बेटे अजित सिंह और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमवती नंदन बहुगुणा के बीच चल रही थी।
पिता के निधन के बाद चरण सिंह की बनाई पार्टी पर उनके बेटे अजित सिंह कंट्रोल चाहते थे। इसमें दिक्कत ये थी कि पार्टी के ज्यादातर बड़े नेता जैसे कर्पूरी ठाकुर, नाथूराम मिर्धा, चौधरी देवीलाल और उस समय यूपी में पार्टी की तरफ से नेता विपक्ष मुलायम सिंह यादव, वगैरह बहुगुणा के खेमे में थे।
पार्टी पर कब्जे की लड़ाई छिड़ी और मामला आखिरकार चुनाव आयोग तक पहुंचा, लेकिन आयोग ने अजित सिंह के खिलाफ फैसला सुनाया। चुनाव आयोग ने कहा, ‘अजित सिंह, चरण सिंह की संपत्ति के वारिस तो हो सकते हैं, मगर पार्टी की विरासत उन्हें नहीं मिल सकती।’
चरण सिंह के निधन के बाद अजित सिंह के इशारे पर लोकदल के ज्यादातर विधायकों की बैठक बुलाई गई। इस बैठक में मुलायम सिंह को पार्टी के विधायक दल के नेता पद से हटा दिया गया।
11 अक्टूबर 1988 को अजित सिंह ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन की तारीख पर एक नई पार्टी बनाई। इसका नाम रखा- ‘जनता दल’। जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल (अ), लोकदल (ब) और सोशलिस्ट कांग्रेस सब इसके घटक के तौर पर शामिल हुए। अजित सिंह इस नए मोर्चे के महासचिव चुने गए। कुछ ही महीने बाद 1989 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। तब यूपी में कुल 425 विधानसभा सीटें होती थीं। सारे कांग्रेस विरोधी एकजुट थे।
जनता दल यूपी में 356 सीटों पर लड़ी और 208 सीटें जीतीं। कांग्रेस का हाल ये कि लड़ी 410 सीटों पर और जीत सिर्फ 94 सीटों पर मिली। केंद्र में वीपी सिंह की सरकार बन गई थी। वीपी सिंह, अजित सिंह को सीएम बनाना चाहते थे और मुलायम को उनका डिप्टी, लेकिन मुलायम को ये मंजूर नहीं था।
उन्होंने खुला विरोध कर दिया। कारण वही था- अजित से 2 साल पुरानी अदावत। चंद्रशेखर के समर्थन से मुलायम को बल मिल गया और मुलायम अड़ गए। कहा ये भी जाता है कि वीपी सिंह की चिंता संभावित चुनौती को लेकर भी थी। उन्हें लगता था कि देवीलाल, मुलायम और अजित सिंह के एक साथ आने से उन्हें चुनौती मिल सकती है। इसलिए अजित सिंह को मुख्यमंत्री पद का रास्ता दिखाया गया।
अजित सिंह से कहा गया कि चौधरी साहब भी पहले यूपी के मुख्यमंत्री बने थे, उसके बाद प्रधानमंत्री। इस कुटिलता से अनजान अजित सिंह लखनऊ आ गए। दूसरी तरफ इन्हीं लोगों ने मुलायम सिंह की पीठ पर भी हाथ रख दिया।
दिल्ली से बतौर पर्यवेक्षक तीन लोग लखनऊ भेजे गए। मुलायम को समझाने की कोशिश भी की गई, लेकिन जब बात नहीं बनी तो तय हुआ कि विधायक वोट करेंगे और जिसका नंबर ज्यादा, मुख्यमंत्री की कुर्सी उसकी, लेकिन मुलायम के आगे पिता चरण सिंह से मिला गठजोड़ का हुनर अजित के काम नहीं आया।
बाहुबली डीपी सिंह और बेनीप्रसाद वर्मा ने मुलायम के पक्ष में विधायकों का नंबर बढ़ा दिया। अजित सिंह खेमे के 11 विधायकों ने भी मुलायम को वोट कर दिया। मुलायम को कुल 115 वोट मिले और अजित सिंह को 110 वोट मिले। पांच विधायकों के अंतर ने अजित सिंह का मुख्यमंत्री बनने का सपना तोड़ दिया। मुलायम सीएम बन गए।
हालांकि बतौर कंपेन्सेशन वीपी सिंह, अजित सिंह को केंद्र में ले आए। वीपी सिंह की सरकार में अजित सिंह दिसंबर 1989 से नवंबर 1990 तक केंद्रीय उद्योग मंत्री भी रहे।
1999 में अजित सिंह ने लोकदल (अ) के नेताओं को साथ लेकर राष्ट्रीय लोकदल यानी RLD का गठन किया। इस पार्टी को चुनाव निशान मिला- हैंडपंप। जुलाई 2001 के आम चुनावों में अजित सिंह की पार्टी RLD ने भाजपा के साथ गठबंधन में पहला चुनाव लड़ा।
अजित सिंह चुनाव भी जीते और अटल सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। इधर लंबी कानूनी लड़ाई के बाद असली ‘लोकदल’ की कमान अलीगढ़ के जाट नेता चौधरी राजेंद्र सिंह के हाथों में पहुंच गई थी। चरण सिंह के समय चौधरी राजेंद्र सिंह लोकदल के कद्दावर नेता थे। पार्टी का चुनाव निशान भी वही रहा जो चरण सिंह के जमाने में लोकदल का था- दो बैल और हल से खेत जोतता हुआ किसान।
राजेंद्र सिंह के बेटे सुनील सिंह पिता के न रहने के बाद किसी तरह से लोकदल का नाम और चुनाव चिन्ह अपने पास बनाए हुए हैं। सुनील सिंह एक बार यूपी से विधान परिषद सदस्य बने, लेकिन उसके बाद हर चुनाव हारते आए हैं।
इसकी एक वजह ये भी रही कि चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत, राजेंद्र सिंह को नहीं बल्कि अजित की बनाई पार्टी राष्ट्रीय लोकदल को ही मिली थी।
अजित सिंह ने RLD को भाजपा-बसपा गठबंधन में शामिल किया था, लेकिन 2003 में पहले RLD और फिर भाजपा इस गठबंधन से अलग हो गई और उत्तर-प्रदेश में मायावती की सरकार गिर गई।
मायावती गईं तो मुलायम ने मौके पे चौका मारा। सपा को RLD का भी साथ मिला और जोड़-तोड़ करके मुलायम सिंह की सरकार बन गई। RLD की सपा के साथ जुगलबंदी 2007 में सपा की सरकार रहने तक चली।
साल 2009 में लोकसभा चुनाव में RLD, भाजपा की अगुआई वाले NDA गठबंधन का हिस्सा बनी। अजित सिंह एक बार फिर सांसद बने, लेकिन 2011 में RLD ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलाएंस’ यानी कांग्रेस की UPA सरकार में शामिल हो गई। और अजित सिंह को दिसंबर 2011 में मंत्री बना दिया गया। मई 2014 तक अजित सिंह मंत्री रहे।
24 जुलाई 2019 को राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने कहा, ’80 साल की उम्र होने की वजह से वह चुनावी राजनीति से संन्यास ले रहे हैं। हालांकि RLD पार्टी की राजनीति में वह सक्रिय रहेंगे।’ पत्रकारों ने अजित सिंह से पूछा कि पार्टी के अगले अध्यक्ष कौन होंगे?
मुस्कुराते हुए अजित सिंह ने कहा, ‘जयंत अभी अपने तरीके से राजनीति सीख रहा है। यह तो भविष्य ही बताएगा कि वह राजनीति में अपने लिए कितनी जगह बना पाता है।’ दो साल बाद मई 2021 में चौधरी अजित सिंह का निधन हो गया। इसी महीने 25 मई को जयंत चौधरी RLD अध्यक्ष चुन लिए गए। इससे पहले वह पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद पर थे।
RLD अध्यक्ष बने जयंत पिता की तरह ही लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अपनी पढ़ाई पूरी कर राजनीति में आए थे। 2009 में वह मथुरा लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और जीत गए। हालांकि मोदी लहर में 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव जयंत चौधरी हार गए। वो बीजेपी पर बेहद हमलावर रहे हैं। 2019 में उन्होंने बीजेपी को ‘जूतिया पार्टी’ तक कहा था।
2022 में जब BJP ने जयंत को साथ चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था तो उन्होंने इसे ठुकरा दिया था। दरअसल, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद RLD ने जाट और मुस्लिमों को एकजुट किया था। BJP इस एकजुटता का फायदा RLD से गठबंधन करके उठाना चाहती थी। हालांकि तब जयंत ने कहा था- ‘मैं कोई चवन्नी नहीं जो पलट जाऊं।’
अब 2 साल बाद फरवरी 2024 में जब BJP सरकार ने चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने की घोषणा की तो जयंत सिंह ने ट्वीट कर कहा-‘दिल जीत लिया।’ जयंत की RLD पार्टी BJP के साथ 2024 का चुनाव लड़ रही है।