आज हम आपको उस एक्ट्रेस के बारे में बताने वाले हैं जिन्हे 17 साल की उम्र में हुए एक हादसे में अपना पैर कटवाना पड़ गया था। इस हादसे के बाद उनकी जीने की इच्छा खत्म हो चुकी थी। लेकिन आज वे हिंदी सिनेमा और टेलीविजन जगत के जाने-माने चेहरों में से एक हैं। हम बात कर रहे हैं एक्ट्रेस सुधा चंद्रन की, जो इन दिनों टीवी शो ‘डोरी’ में अहम भूमिका में नजर आ रही हैं।
बता दें, टीवी शो के अलावा हिंदी फिल्मों में भी नजर आ चुकी सुधा अपने नेगेटिव किरदारों के लिए जानी जाती हैं। ‘कहीं किसी रोज’ सीरियल में रमोला सिकंदर और ‘नागिन’ सीरियल में यामिनी के किरदार से उन्होंने दर्शकों के बीच एक अलग पहचान बनाई है।
सुबह 10 बजे का वक्त था। हम पहुंचे टीवी सीरियल ‘डोरी’ के सेट पर जहां सुधा चंद्रन अपने किरदार ‘कैलाशी’ के गेटअप की तैयारी में व्यस्त थीं। जैसे ही हमने उनके मेकअप रूम में एंट्री ली, अभिनेत्री ने बड़े ही प्यार से हमारा वेलकम किया। 17 साल की उम्र में जीने की इच्छा खत्म होने से लेकर, मां-बाप के विरुद्ध जाकर शादी करने, नेशनल अवार्ड मिलने के बावजूद सालों तक बेरोजगार रहने से लेकर बॉलीवुड में काम ना मिलने तक, सुधा चंद्रन ने अपनी जिंदगी के तमाम पहलुओं पर खुलकर बातचीत की।
वैसे, क्या आप जानते हैं कि सुधा महज साढ़े तीन साल की उम्र से ही भरतनाट्यम सीखने लगी थीं। इतना ही नहीं वे पढ़ाई में भी टॉपर थीं। सुधा चंद्रन के पिता के.डी. चंद्रन केरल के रहने वाले थे। वे मुंबई की अमेरिकन लाइब्रेरी में काम करते थे जबकि उनकी मां थंगम, एक गृहिणी और क्लासिकल सिंगर थी। उनके माता-पिता दोनों चाहते थे कि वे एक अंतरराष्ट्रीय डांसर बनें। सुधा चंद्रन को अच्छा नृत्य करने के लिए प्रेरित करने के अलावा, उनकी मां अच्छी पढ़ाई करने के लिए भी प्रेरित किया करती थीं
अभिनेत्री की मानें तो उनकी मां पढ़ाई को लेकर बहुत स्ट्रिक्ट थीं और हमेशा चाहती थीं वह अपनी क्लास में टॉप करें। सुधा चंद्रन ने इंडस्ट्रियल और इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स में डिग्री हासिल की है। हालांकि, सुधा हमेशा से ही डांसिंग में अपना करियर बनाना चाहती थीं। साल 1981 में 17 साल की उम्र में हुए एक हादसे में सुधा का पैर काटना पड़ गया था। जिसके बाद उनका डांसिंग करियर खतरे में आ गया था, लेकिन उन्होंने नकली पैर लगाकर सपनों की उड़ान भरना फिर से शुरू किया।
बता दें कि सुधा ने अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत तेलुगु फिल्म ‘मयूरी’ से की थी जो कि उन्हीं की जिंदगी पर आधारित थी। बाद में ये फिल्म तमिल, मलयालम में डब की गई और इसका हिन्दी रीमेक फिल्म ‘नाचे मयूरी’ भी बनी। इसमें भी सुधा चंद्रन ने ही काम किया।
सुधा चंद्रन कहती हैं, दरअसल उस एक्सीडेंट के बाद मेरे पास जीने की कोई वजह ही नहीं थी। सवाल ये था कि मैं अब बिना एक पैर के जीकर करूंगी क्या? उस वक्त मैं ऐसी एक पंछी थी जो अपनी किशोरावस्था में बहुत कुछ कर दिखाने का ख्वाब देखती थी। जिंदगी के उस पड़ाव तक पहुंची थी जहा मैं बस अपनी उड़ान भरने ही वाली थी कि मेरा बस एक्सीडेंट हो गया। ये साल 1981 की बात है। दिलचस्प बात ये थी कि उस हादसे में मुझे सबसे कम चोट आई थी।
मेरे दाएं पैर में हल्का फ्रैक्चर आया था। अब जोकि वो एक्सीडेंट केस था इसीलिए हमें पुलिस और मेडिकल मदद तुरंत नहीं मिल पाई। हमें सरकारी अस्पताल में एडमिट किया गया जहां उन्होंने अच्छे खासे केस को बिगाड़ दिया। मेरे एंकल पर एक छोटा सा कट था जिसे डॉक्टर ने सही तरीके से साफ नहीं किया। उन्होंने उस चोट पर टांके लगा दिए और उस पर POP (प्लास्टर ऑफ पेरिस) लगा दिया। कुछ एक हफ्ते बाद, वो घाव पूरी तरह से खराब हो चुका था।
दरअसल, मेरी जिंदगी का ये किस्सा मनमोहन देसाई की फिल्म ‘अमर अकबर एंथोनी’ से मिलता-जुलता था। मेरे माता-पिता अलग-अलग वार्ड में एडमिट थे। मेरे पिता को 6 दिन लग गए सिर्फ ये पता करने में कि उनकी पत्नी और बेटी जिंदा हैं या नहीं। आखिरकार, जब उन्हें पता चला कि उनकी बेटी का ट्रीटमेंट सही नहीं हो रहा, तब उन्होंने मुझे चेन्नई के हॉस्पिटल में शिफ्ट करने का फैसला किया। उस अस्पताल में हमें पता चला कि एक मामूली सी चोट गैंग्रीन (एक खास तरह की बीमारी है, जिसमें शरीर के कुछ खास हिस्सों के टिश्यूज नष्ट होने लगते हैं) में तब्दील हो गई।
मेरे माता-पिता ने बहुत कोशिश की कि मेरा पैर ना काटा जाए। वे जानते थे कि मैं डांसिंग के बिना अधूरी थी। लेकिन नियती का कुछ और ही फैसला था। मेरे पैर काटने के आलावा कोई विकल्प नहीं था। उस वक्त मैंने अपने पिता से कहा था- ‘हो सके तो मुझे जाने दो, मैं जीना नहीं चाहती’। दरअसल, मैं अपने माता-पिता पर बोझ बनकर नहीं जीना चाहती थी। उस वक्त, मेरे पिता ने मुझे संभाला और कहा कि वो मेरे पैर बनकर मेरा साथ देंगे। उन्होंने अपने दिए हुए इस वादे को अपनी आखिरी सांस तक पूरा किया। मैं हमेशा उनकी शुक्रगुजार रहूंगी।
उसी साल जयपुर में फुट (घुटने के नीचे से कटे हुए लोगों के लिए रबर का पैर) का इंवेंट होना, मेरा वो पैर लगवाना, मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। मैं सिर्फ और सिर्फ डांस करना चाहती थी, जयपुर फुट के साथ मैं चेन्नई से मुंबई आई। जो मैंने 3 साल की उम्र में सीखा, मैं फिर से वही सीख रही थी। कई बार खून निकल जाता था, मैं बाथरूम में जाकर रोती थी। हालांकि, मैंने कभी अपनी हिम्मत नहीं हारी। उस हादसे के बाद मुझे 3 साल लगे अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए।
जब पहली बार नकली पैर के साथ नाची, तो वो खबर बन गई। मेरी कहानी की इतनी चर्चा हुई कि इसपर फिल्म भी बनी। मुझे याद है, लोग मेरी फिल्म के पोस्टर की पूजा करते थे। उस वक्त मैं रील लाइफ हीरोइन बन गई थी। मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था। आम तौर पर लोग आपके बारे में आपके दुनिया छोड़ने के बाद पढ़ते हैं। मेरे बारे में तो बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं। इससे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है।
पहली फिल्म ‘मयूरी’ के बाद, मैंने कुछ फिल्में तो कीं लेकिन वो नहीं चल पाईं। शायद मैं ऑडियंस की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई। शायद मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिरकार हो क्या रहा है? लोग मुझे बार-बार एहसास दिलाते थे कि मैं ग्लेमर फील्ड के लिए नहीं बनी हूं। वे कहते कि कोई स्पेशली चैलेंज्ड व्यक्ति को काम क्यों देगा?
जब मैं ये बात सुनती, तो डिप्रेस हो जाती थी। इस दौरान, मैंने वो दौर भी देखा जब कोई प्रोडूसर मुझे जानने के बावजूद अनजान बन जाता था।
7 साल इंतजार करने के बाद, मुझे अपना अगला प्रोजेक्ट मिला। साल 2001 में एकता कपूर ने मुझे ‘कहीं किसी रोज’ ऑफर किया। उस शो में रमोला सिकंदर का किरदार मेरे लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। हालांकि, उसके बाद मुझे नेगेटिव किरदार ही मिलते गए। खैर, मुझे नेगेटिव रोल करने में बड़ा मजा आता है और इसीलिए इससे मुझे कोई शिकायत नहीं।
करियर की शुरुआत फिल्मों से की लेकिन दुर्भाग्यवश इस सेक्टर में मुझे ज्यादा काम नहीं मिला। लोग मुझसे पूछते हैं कि आप फिल्में क्यों नहीं कर रहीं? दरअसल इसका जवाब तो मुझे भी अब तक नहीं मिला। मैंने साल 2006 में फिल्म ‘मालामाल वीकली’ की थी जो सुपरहिट थी। इसके बावजूद मुझे फिल्में ऑफर नहीं हुईं। वैसे, टीवी मेरी रोजी-रोटी है और मैं इसे कभी नहीं छोडूंगी।
मेरे पति, रवि डंग पंजाबी हैं और वे इसी इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं। दरअसल, मैं और रवि एक फिल्म की शूटिंग के दौरान मिले थे। खास बात ये है कि वो फिल्म कभी रिलीज नहीं हुई। मेरी मां हमेशा चाहती थीं कि मैं तमिल-ब्राह्मण घर में शादी करूं। लेकिन, मेरी किस्मत में कुछ और ही लिखा था। जब मैंने अपने पेरेंट्स को रवि के बारे में बताया तो शुरुआत में वे राजी नहीं थे लेकिन वक्त के साथ-साथ उन्होंने एक्सेप्ट किया।