‘बहुत कम लोग हैं, जो मेरी असल कहानी जानना चाहते हैं। लोगों का लगता है कि मेरा अतीत सुखद रहा होगा, मगर ऐसा नहीं है। हां, उन दिनों की याद आज भी आती है, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से हम सभी को बहुत दिक्कत होती थी। बहुत खुशी हुई कि आपने मेरे गुजरे हुए कल को जानना चाहा।’
ये कहते हुए बॉलीवुड के फेमस कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा भावुक हो जाते हैं।
2016 की दंगल, 2013 की चेन्नई एक्सप्रेस, 2013 की काई पो छे, 2014 की हाईवे और 2013 की गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी बेहतरीन फिल्मों की शानदार कास्टिंग का श्रेय मुकेश छाबड़ा को ही जाता है।
आज मुकेश छाबड़ा किसी परिचय के मोहताज नहीं है, मगर उनका यहां तक का सफर संघर्ष से भरा रहा। बचपन तंगी में बिता। सपना क्रिकेटर बनने का था, लेकिन पैसों की कमी की वजह से अधूरा रह गया। गुजारे के लिए उन्होंने NSD के टीचिंग विंग में 13 हजार रुपए की नौकरी की। इस दौरान उन्हें रंग दे बसंती में कास्टिंग करने का मौका मिला।
इस काम में मुकेश इतना रम गए कि इसी फील्ड में फ्यूचर बनाने के लिए मुंबई आ गए। मुंबई में डायरेक्टर्स की बदौलत उन्होंने खुद की कास्टिंग कपंनी खोला। आज हालात यह हैं कि बड़ी-बड़ी फिल्में उनके कास्टिंग के बिना पूरी नहीं हो पातीं।
मेरा जन्म दिल्ली में एक लोअर मिडिल क्लास परिवार में हुआ था। घर की स्थिति बहुत ही खराब थी। पैसों की दिक्कत हमेशा बनी रहती थी। पापा गवर्नमेंट ऑफ इंडिया प्रेस में एक छोटे पद पर थे। ज्यादा पैसे कमाने के लिए पापा रात में प्रेस में काम करते थे और दिन में खुद का प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। उन्होंने हमारे लिए बहुत मेहनत की है, मैं उसका 10 पर्सेंट भी कर सकता तो आज शायद और आगे होता।
हम सभी सरकार की तरफ से मिले क्वार्टर में रहते थे, जिसमें सिर्फ 2 कमरे ही थे। उसी 2 कमरे में खाना-पीना, सोना-रहना, सब कुछ होता था। कम पैसों की वजह से हम सभी भाई-बहनों की पढ़ाई सरकारी स्कूल से हुई है।
लोगों का बचपन आराम से, हंसते-खेलते हुए बीतता है, लेकिन हमारा काम करते हुए बीता है। तंगी इस कदर थी कि कहीं घूमने भी नहीं जा पाते थे। एक नानी का ही घर था, जहां कुछ दिनों के लिए हम अपना दर्द भूल जाते थे।
जब घर में कोई नया सामान आता था, तो हम सभी खुशी से पागल हो जाते थे। पहली टीवी, फ्रीज जैसी चीजें जब खरीदी थीं, तो हम झूम उठे थे। हालांकि इन सब सामान को पापा ने एक-एक पैसे इकट्ठा करके खरीदा था।
मुझे पॉकेट मनी जैसी कोई चीज नहीं मिलती थी। तब मैं अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कॉमिक्स को खरीद कर उसे किराए पर देता था। इससे मैं एक-डेढ़ रुपए कमा लेता था। घर के हालात से मैं अच्छी तरह से वाकिफ था। पापा की तकलीफों को समझता था, इस कारण कभी उनके सामने कोई अनचाही डिमांड नहीं रखी।
जब मैं 16 साल का था, तब खुद के खर्च के लिए बतौर बैक डांसर भी काम किया। दिल्ली के बड़े-बड़े होटलों में जब कोई सिंगर परफॉर्म करने आता था, तब बैक डांसर के तौर पर 11-12 लड़के डांस करते थे, जिनमें से एक मैं होता था।
यहां पर मुझे एक शो के बदले 50 रुपए मिल जाते थे। इन पैसों से कभी जूते खरीद लेता तो कभी कपड़े। ये काम मैंने लगभग डेढ़-2 साल किया है।
मुझे क्रिकेट का बहुत शौक था। इसी फील्ड में फ्यूचर बनाना चाहता था। मगर इतने पैसे नहीं थे कि किसी अच्छे एकेडमी से पढ़ाई और ट्रेनिंग कर सकूं। ऐसे में मुझे अपने इसे ख्वाब की कुर्बानी देनी पड़ी। फिर मेरा रुझान थिएटर की तरफ हो गया। मैं कुछ वक्त में थिएटर से ऐसा जुड़ा कि आज तक खुद को उससे दूर नहीं कर पाया।
घर की हालत खराब थी, लेकिन फिर भी पेरेंट्स ने एजुकेशन पर इसका असर नहीं पड़ने दिया। जब पापा को मेरे इस रुझान के बारे में पता चला तो उन्होंने 14 साल की उम्र में मेरा दाखिला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) की एक एक्टिंग वर्कशॉप में करा दिया।
मिडिल क्लास परिवार के हर बच्चे की यही ख्वाहिश होती है कि कम उम्र में वो एक अच्छी नौकरी कर ले और अपने पेरेंट्स की पूरी जिम्मेदारी खुद के कंधों पर उठा ले। मैंने भी यही ख्वाब देखा था। थिएटर से जुड़ा था तो NSD की TIE कंपनी में नौकरी करना चाहता था। हालांकि इसके लिए ग्रेजुएशन की जरूरत थी। इसके लिए मैंने पहले श्रीराम सेंटर से पढ़ाई की, फिर TIE कंपनी में जाॅब किया। यहां मेरा काम बच्चों को एक्टिंग वर्कशाॅप देना होता था।
जब मैं यहां पर काम कर रहा था, तब फिल्म इंडस्ट्री से कई बड़े-बड़े डायरेक्टर्स आते थे, जिन्हें अपनी फिल्मों में कुछ लोगों की जरूरत पड़ती थी। उनकी ये जरूरत मैं पूरी कर देता था। धीरे-धीरे ये काम मैं बड़े स्केल पर करने लगा। लोगों के बीच मेरा नाम हो गया। तब भी नहीं पता था कि कास्टिंग में भी फ्यूचर बनाया जा सकता है। इसी दौरान मुझे NDTV में काम मिल गया।
मैंने कुछ समय के लिए NDTV के शो गुस्ताखी माफ है में काम किया था। TIE कंपनी से स्विच कर मैंने वहां जॉइन किया था क्योंकि वहां मुझे काम के बदले 18 हजार रुपए मिल रहे थे। मैं पैसों के लालच में वहां चला तो गया था, लेकिन क्रिएटिविटी जैसी कोई चीज नहीं थी। इस कारण मैंने ये नौकरी 6 महीने में ही छोड़ दी।
2006 में रिलीज हुई फिल्म रंग दे बसंती के लिए मुकेश ने पहली बार बड़े लेवल पर कास्टिंग की थी। 30 करोड़ में बनी फिल्म ने 97 करोड़ का कलेक्शन किया था।जब दिल्ली में था, तभी मुझे फिल्म रंग दे बसंती की कास्टिंग का काम मिला था। इस फिल्म के लिए काम करके बहुत मजा आया। इसके बाद ही मैंने फैसला कर लिया कि मुंबई जाकर फिल्मों में बतौर कास्टिंग डायरेक्टर काम करूंगा। इसी सपने को पूरा करने की चाहत में 2005 में मुंबई आ गया।
यहां पर मैं अपने दोस्त धीरेंद्र द्विवेदी के घर रुका हुआ था। घर क्या, वो सिर्फ एक कमरे का फ्लैट था। हालांकि उस दोस्त ने मेरी बहुत मदद की। जब मैं मुंबई आया तब मेरे पास 50 रुपए ही थे। कुछ दिनों बाद दिवाली थी और मैंने उन्हीं पैसों से दिवाली मनाई।
शुरुआती दिनों में धीरेंद्र द्विवेदी और आशुतोष नागपाल जैसे दोस्तों ने बहुत मदद की है। जब खाने के लिए पैसे नहीं रहते थे, तब यही लोग मुझे खाना खिलाते थे। इनकी भी आमदनी कम ही थी, फिर भी वे लोग मेरा ख्याल रखते थे।
कुछ समय के संघर्ष के बाद मैंने कुछ फिल्मों में छोटी-मोटी कास्टिंग करनी शुरू कर दी थी। फिर हनी त्रेहान ने मुझे विशाल भारद्वाज के पास कास्टिंग का काम दिला दिया। मैंने इस समय के सभी नामचीन डायरेक्टर के साथ काम किया है, जिनमें नितेश तिवारी, इम्तियाज अली और अनुराग कश्यप जैसे डायरेक्टर्स का नाम शामिल है।
इन सभी डायरेक्टर्स ने हर कदम पर मेरा सपोर्ट किया। मेरे काम की माउथ पब्लिसिटी की, जिस कारण एक बार इंडस्ट्री में पैर जमाने के बाद काम की कमी नहीं हुई। फिर उन्हीं लोगों के सपोर्ट से मैंने खुद की कंपनी खोली, जिसका नाम मुकेश छाबड़ा कास्टिंग कंपनी है।
करियर में सफल हो जाने के बाद मैंने अपने पेरेंट्स का सपना पूरा किया। थोड़ी सफलता हासिल करने के बाद मैंने सबसे पहले मुंबई में एक घर खरीदा और दिल्ली से मां-पापा को यहां बुला लिया। फिर उन दोनों के लिए अलग-अलग कार खरीदी। मैं नहीं चाहता था कि उन्हें किसी भी चीज की कमी हो। उन्होंने जितना दुख हमारे लिए सहा है, उसके बदले में मैं उन्हें बहुत खुशियां देना चाहता था।
बाकी फील्ड के जैसे कास्टिंग में भी बहुत स्ट्रगल है। हर दिन हमें एक्टर्स की फीलिंग्स से डील करना पड़ता है। किसी को ना करना हमारे लिए सबसे बड़ा टास्क होता है। फिल्म बजरंगी भाईजान में मुन्नी के रोल के लिए 2 बच्चियां लाइन में थीं, जिनमें से एक को चुनना पड़ा। दूसरी को मैंने फिल्म ब्रह्मास्त्र में कास्ट किया।
बजरंगी भाईजान की मुन्नी को मैंने एक मॉल में देखा था, फिर अपनी टीम से उसके बारे में पता किया। जब मैंने उनकी फैमिली को अप्रोच किया तो वे फिल्म में काम करने के लिए मान गए।
फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर मेरे करियर के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुई। इस फिल्म में 384 लोगों को कास्ट किया गया था, जिनकी कास्टिंग में डेढ़ साल लगे थे।एक्टर्स के साथ रिश्ते पर कहूं तो सलमान खान, शाहरुख खान और आमिर खान से बहुत सीखने को मिला है। फिल्म दंगल के फाइनल ऑडिशन में आमिर खान खुद मौजूद थे। उन्होंने फाइनल राउंड के लगभग 40 ऑडिशन देखे थे।
बहुत कम लोगों को पता है कि शाहिद कपूर के साथ मैंने दिल्ली में NSD का वर्कशॉप किया था। तब से हम दोनों एक-दूसरे को जानते हैं, एक-दूसरे का संघर्ष भी देखा है।
आने वाले दिनों में फिल्म डंकी और फाइटर रिलीज होने वाली है, मैंने इनमें बतौर कास्टिंग डायरेक्टर काम किया है।
इस तरह मुकेश छाबड़ा के साथ यह इंटरव्यू खत्म हुआ। उन्होंने कहा कि वे जल्द नए किस्सों के साथ हमसे मिलेंगे, तब तक के लिए अलविदा…