ये गाना फिल्माया गया था 60 के दशक की सबसे खूबसूरत और मशहूर एक्ट्रेस शमीम आरा पर। वही शमीम आरा जिन्हें पाकिस्तानी सिनेमा के इतिहास की ट्रैजिक ब्यूटी कहा जाता है। ये नाम उन्हें लगातार फिल्मों में ट्रैजिक रोल निभाने पर मिला था। पाकिस्तान की मूवी स्टार शमीम आरा भारत के लाल किले में पाकिस्तानी झंडा फहराने की ख्वाहिश रखती थीं। उनकी शर्त थी कि जो भी शख्स ये कारनामा करेगा, उसी से शादी करेंगी।
इस कदर कॉन्फिडेंट थीं कि जब एक बार उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवॉर्ड मिला तो उन्होंने ये कहते हुए ठुकरा दिया कि मैं फिल्म में लीड एक्ट्रेस थी। फिल्मों में तो इन्होंने वो मुकाम हासिल किया, जो आज भी किसी पाकिस्तानी एक्ट्रेस को नहीं मिला, हालांकि 4 शादियां करने के बावजूद शमीम अकेली रहीं। पहले पति की कार एक्सीडेंट में मौत हो गई, दूसरे ने छोड़ दिया और तीसरे पति से इन्होंने 3 दिनों में ही तलाक ले लिया। शमीम की जिंदगी में एक मोड़ ऐसा भी आया जब उन्हें बेटे और चौथे पति के बीच किसी एक को चुनना था। शमीम ने जब बेटे को चुना तो पति ने ब्रेन हेमरेज होने पर न साथ दिया, न ख्याल रखा। इतना ही नहीं मौत के वक्त भी पति उनको आखिरी बार देखने नहीं पहुंचे। आर्थिक तंगी का वो आलम था कि बेटे ने अकेले शमीम आरा का जनाजा निकाला था
22 मार्च 1938। शमीम आरा का जन्म ब्रिटिश इंडिया के अलीगढ़ में हुआ। उनका असली नाम पुतलीबाई था। अलीगढ़ में पली-बढ़ीं पुतली बाई 18 साल की उम्र में लाहौर में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घर छुट्टियां बिताने लाहौर गई थीं। तब तक भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था। लाहौर पहुंचकर वो एक पार्टी में शामिल हुई थीं, जहां उनकी मुलाकात फिल्म डायरेक्टर नजम नकवी से हुई। नजम उस समय अपनी अगली फिल्म ‘कुंवारी बेवा’ के लिए एक नई लड़की की तलाश में थे। पार्टी में पुतली बाई की खूबसूरती, मुस्कान देखकर और मीठी आवाज सुनकर नजम ने उन्हें अपनी हीरोइन बनाने का इरादा कर लिया।
फिल्मों में आने का ऑफर मिलते ही पुतली बाई झट से राजी हो गईं और परिवार के साथ अलीगढ़ से लाहौर जाकर बस गईं। फिल्म की शूटिंग भी शुरू कर दी गई, लेकिन डायरेक्टर उनके नाम से खुश नहीं थे। उस समय डाकू पुतलीबाई काफी चर्चा में रहती थी, ऐसे में नाम की पहचान की कन्फ्यूजन दूर करने के लिए नजम ने उनका नाम पुतलीबाई से शमीम आरा कर दिया। 1956 में फिल्म कुंवारी बेवा रिलीज हुई, लेकिन कामयाब नहीं हो सकी। फिल्म फ्लॉप होने के बावजूद शमीम आरा की खूबसूरती चर्चा में आ गई और उन्हें एक के बाद एक फिल्में मिलने लगीं।
1958 में शमीम आरा को फिल्म ‘अनारकली’ में नूर जहां के साथ सुरैया का रोल प्ले करने का मौका मिला। बड़े बजट में बनी ये फिल्म एवरेज रही, हालांकि इसे 2 कैटेगरी में पाकिस्तान के सबसे मशहूर निगार अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
आगे शमीम ‘वाह रे जमाना’, ‘राज’, ‘आलम आरा’ जैसी पाकिस्तानी फिल्मों में नजर आईं, हालांकि इनमें से कोई भी फिल्म सफल नहीं रही
23 दिसंबर 1960 को रिलीज हुई फिल्म ‘सहेली’ में शमीम आरा ने याददाश्त भूल जाने वाली दुल्हन का किरदार अदा किया। ये फिल्म शमीम के करियर के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुई। फिल्म जबरदस्त हिट रही साथ-साथ ये गोल्डन जुबली फिल्म थी, जो 50 हफ्तों तक सिनेमाघरों में लगी रही थी।
फिल्म सहेली के लिए शमीम आरा को 1960 में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का निगार अवॉर्ड दिया जाना था। हालांकि, उन्होंने ये कहते हुए सेरेमनी में ही सरेआम अवॉर्ड लेने से इनकार कर दिया कि उनका फिल्म में सपोर्टिंग रोल नहीं था। वो लीड रोल में थीं, जबकि सपोर्टिंग रोल में नजर आईं नय्यर सुल्ताना को बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड दे दिया गया। अवॉर्ड ठुकराने पर उन्हें अहंकारी कहा गया। विवादों के बावजूद 1961 में भी शमीम को बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का प्रेसिडेंशियल अवॉर्ड दिया गया और इस बार भी बेस्ट एक्ट्रेस नय्यर को ही दिया गया।
साल 1962 में शमीम आरा फिल्म ‘कैदी’ में नजर आईं, जिसका गाना ‘मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग..’, फिल्म रिलीज के 60 साल बाद आज भी मशहूर है। गाने के बोल फैज अहमद फैज की नज्म से लिए गए थे, जिसमें मैडम नूर जहां की आवाज इस्तेमाल हुई थी। फिल्म में शमीम आरा को इस तरह पेश किया गया कि फिल्म रिलीज के बाद उनकी खूबसूरती की चर्चा पूरे पाकिस्तान में होने लगी।
फिल्म ‘कैदी’ की रिलीज के बाद फिल्म में पहने गए शमीम आरा के कपड़े पाकिस्तान में ट्रेंड बन गए। उस दौर की हर महिला उन्हीं की तरह तैयार होने की ख्वाहिश रखती थी। फिल्म में उनकी हेयरस्टाइल भी काफी पसंद की गई, जिसे आने वाले दौर की एक्ट्रेसेस ने भी अपनाया था।
शमीम आरा के चाहने वाले पाकिस्तान में इस कदर थे कि वो जहां जाती थीं भीड़ में फंस जाया करती थीं। यही कारण था कि शमीम हमेशा बुर्का पहनकर घर से निकला करती थीं। द डॉन को दिए एक इंटरव्यू में डायरेक्टर सैय्यद नूर ने उनकी पॉपुलैरिटी और फैन फॉलोइंग का किस्सा शेयर किया था। उन्होंने बताया कि एक रोज शमीम बुर्का पहनकर लाहौर के अनारकली बाजार गई थीं। बुर्के में उनकी सिर्फ आंखें ही दिख रही थीं, इसके बावजूद उनके एक फैन ने उन्हें पहचान लिया। हल्ला हो गया और उन्हें एक नजर देखने भर के लिए पूरा अनारकली बाजार चंद मिनटों में ही बंद कर दिया गया।
आगे ‘चिंगारी’ (1964), ‘फिरंगी’ (1964), ‘आग का दरिया’ (1966), ‘लाखों में एक’ (1967), ‘साइका’ (1968) और ‘सालगिरह’ (1968) जैसी फिल्मों में काम कर शमीम ने खुद को पाकिस्तान की सबसे कामयाब, रईस और बेहतरीन एक्ट्रेस का मुकाम दिलाया। जो सालों तक कायम भी रहा।
एक बार शमीम आरा ने एक मंच पर ये अनाउंस कर दिया कि वो उस शख्स से शादी करेंगी, जो दिल्ली के लालकिले में पाकिस्तान का झंडा फहराएगा। उनकी बातों को पाकिस्तानियों ने इतनी संजीदगी से लिया कि हर कोई इसी जद्दोजहद में लग गया।
अनाउंसमेंट के कुछ ही दिनों बाद शमीम आरा ने बलूचिस्तान के रईस जमींदार सरदार रिंद से शादी कर ली। हालांकि, उनकी पहली शादी की तारीख क्या थी, इस बात की पुख्ता जानकारी पाकिस्तान सिनेमा के इतिहास में कहीं नहीं है। उन्होंने शादी के बाद भी फिल्मों में काम करना जारी रखा। शादी के कुछ महीने ही बीते थे कि एक कार एक्सीडेंट में उनके पति सरदार रिंद की मौत हो गई।
पति की मौत के कुछ समय बाद शमीम ने पाकिस्तान की अगफा फिल्म कंपनी के मालिक के बेटे अब्दुल मजीद करीम से शादी कर ली। इस शादी से शमीम ने बेटे सलमान मजीद करीम को जन्म दिया। बेटे के जन्म के बाद शमीम ने पति को तलाक दे दिया।
कुछ समय बाद शमीम ने पाकिस्तान के मशहूर डायरेक्टर अहमद के बेटे फरीद अहमद से तीसरी शादी कर ली, जो खुद एक डायरेक्टर थे। शादी के महज 3 दिन बाद ही शमीम ने फरीद को तलाक दे दिया। ये पाकिस्तान में अपनी तरह का पहला मामला था। इसके बाद 70 के दशक में शमीम ने राइटर दबीर-उल- हसन से चौथी शादी की।
70 के दशक की शुरुआत में शमीम आरा ने टॉप एक्ट्रेस होने के बावजूद अचानक एक्टिंग करियर से रिटायरमेंट लेकर हर किसी को हैरान कर दिया। कुछ समय के ब्रेक के बाद उन्होंने बतौर प्रोड्यूसर और डायरेक्टर कमबैक किया। उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म 1976 की जियो और जीने दो थी। बतौर डायरेक्टर शमीम ने 1995 तक करीब 17 फिल्में डायरेक्ट की थीं
फिल्म ‘पल दो पल’ को शमीम आरा ने डायरेक्ट किया था। उन्होंने इस फिल्म के गानों को बनाने के लिए उस्ताद नुसरत फतेह अली खान से मदद मांगी थी, जिन्होंने कभी पाकिस्तानी फिल्मों में गाने नहीं दिए थे। शमीम के कहने पर वो मान गए। उस्ताद नुसरत फतेह अली खान 1997 में गुजर गए और फिल्म ‘पल दो पल’ 1999 में उनकी मौत के 2 साल बाद रिलीज हुई थी। ये इकलौती पाकिस्तानी फिल्म है, जिसमें उन्होंने म्यूजिक दिया था।
शमीम आरा ने अपने बेटे को पढ़ाई के लिए विदेश भेजा था। लेकिन साल 2005 में उनके बेटे ने किन्हीं मजबूरियों के चलते मां को अपने पास बुलाना चाहा। शमीम के चौथे पति ने उन्हें विदेश भेजने से इनकार कर दिया। शमीम को बेटे या पति में से किसी एक को चुनना था, तो उन्होंने बेटे को चुना। जब पति के खिलाफ शमीम UK गईं, तो पति ने उनसे बातचीत पूरी तरह बंद कर दी। शमीम ने कई बार उनसे संपर्क करना चाहा, लेकिन बात नहीं बनी। 5 साल बाद शमीम ने पति के पास वापस जाना चाहा।
वो अपने बेटे के साथ पाकिस्तान पहुंचीं, लेकिन पहुंचते ही उनकी तबीयत इस कदर बिगड़ी कि उन्हें भर्ती करवाना पड़ा। इलाज में पता चला कि उन्हें ब्रेन हेमरेज है। पाकिस्तान में सही जानकारी न होने पर बेटा अफरा-तफरी में उन्हें दोबारा लंदन ले गया। शमीम की पति से मुलाकात नाकाम रही। लंदन पहुंचकर उन्हें सही इलाज मिला, लेकिन उनकी हालत लगातार नाजुक बनी रही।
5 साल तक चले इलाज के बाद 5 अगस्त 2016 को शमीम आरा ने लंदन के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। खबर मिलने के बावजूद शमीम के पति उन्हें आखिरी बार देखने तक नहीं पहुंचे। आर्थिक तंगी के चलते उनके बेटे ने साउथैंप्टन में अकेले ही मां शमीम का जनाजा निकाला, जिसमें कुछ लोग हमदर्दी में शामिल हुए थे।