‘मैं महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन में हूं, लेकिन ओबीसी आरक्षण के बिना यह अधूरा रहेगा। सवाल यह है कि देश में कितने ओबीसी, दलित, आदिवासी हैं? इसका जवाब सिर्फ जाति जनगणना से मिल सकता है। जैसे ही विपक्ष यह मुद्दा उठाता है, बीजेपी दूसरे मुद्दे लाकर ध्यान भटकाने की कोशिश क्यों करती है? आप जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करें। आपने नहीं किए तो हम कर डालेंगे।’
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बुधवार को लोकसभा में ये बात कही। सरकार के महिला आरक्षण विधेयक लाने के बाद से जातिगत जनगणना की मांग फिर जोर पकड़ रही है। आखिरी बार जातिवार जनसंख्या की गिनती 1931 में हुई थी, तब देश में 52% आबादी ओबीसी थी। इसके बाद से इसकी गिनती नहीं हुई, अगर हुई भी तो इसे सार्वजनिक नहीं किया गया।
80 के दशक में जातियों पर आधारित कई क्षेत्रीय पार्टियों का उभार हुआ। इन पार्टियों ने सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान चलाया।
इसी दौरान जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग सबसे पहले यूपी में बसपा नेता कांशीराम ने की।
भारत सरकार ने साल 1979 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया। मंडल कमीशन ने OBC के लोगों को आरक्षण देने की सिफारिश की।
इस सिफारिश को 1990 में उस वक्त के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया। इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए।
साल 2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने मनमोहन सरकार पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाया। इसके साथ ही पिछड़ी जाति के कांग्रेस नेता भी ऐसा चाहते थे।
मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना यानी SECC कराने का फैसला किया।
इसके लिए 4 हजार 389 करोड़ रुपए का बजट पास हुआ। 2013 में ये जनगणना पूरी हुई, लेकिन इसमें जातियों का डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।
SECC का डेटा 2013 तक जुटाया गया। इसे प्रॉसेस करके फाइनल रिपोर्ट तैयार होती, तब तक सत्ता बदल गई और 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आ गई। जुलाई 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले उस वक्त के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने का वादा किया।
उन्होंने कहा कि डेटा में 46 लाख कास्ट, सब कास्ट हैं। इसे राज्य सरकारों को भेजकर क्लब करने को कहा गया है। इसके अलावा नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता में कमेटी बनाई जाएगी, जो इस कास्ट डेटा को क्लासिफाई करेगी। जब यह कार्रवाई पूरी हो जाएगी तो इस डेटा को सार्वजनिक किया जाएगा।
2016 में जातियों को छोड़कर SECC का बाकी डेटा मोदी सरकार ने जारी कर दिया। चूंकि कमेटी के अन्य सदस्यों का नाम तय नहीं हुआ और इस वजह से कभी मीटिंग ही नहीं हुई। इसलिए जनगणना में जुटाए जातियों के आंकड़े जस के तस पड़े हैं यानी जारी ही नहीं हुए।
राष्ट्रीय स्तर पर 1931 की अंतिम जातिगत जनगणना में जातियों की कुल संख्या 4,147 थी, SECC-2011 में 46 लाख विभिन्न जातियां दर्ज हुई हैं। चूंकि, देश में इतनी जातियां होना नामुमकिन है।
सरकार ने कहा है कि संपूर्ण डेटा सेट खामियों से भरा हुआ है। इस वजह से रिजर्वेशन और पॉलिसी डिसीजन में इस डेटा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन लगाई थी। इसमें केंद्र सरकार को बैकवर्ड क्लास ऑफ सिटीजंस यानी BCC यानी पिछड़े वर्गों का डेटा कलेक्ट करने के निर्देश देने की मांग की गई थी, ताकि 2021 की जनगणना में ही ग्रामीण भारत में पिछड़े वर्ग के नागरिकों की सही-सही स्थिति सामने आ सके।
इस याचिका में केंद्र सरकार से अदर बैकवर्ड क्लासेस यानी OBCs पर SECC-2011 के दौरान जुटाए गए डेटा को सार्वजनिक करने की मांग भी की गई है। केंद्र सरकार ने 23 सितंबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह अब सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना नहीं कराएगी।
- यह एक पॉलिसी डिसीजन है, इसलिए अदालतों को दखल नहीं देना चाहिए।
- जाति आधारित जनगणना कराना व्यावहारिक नहीं है।
- प्रशासनिक नजरिए से भी ऐसा करना बेहद मुश्किल है।
मंडल कमीशन के बाद की राजनीति में बड़ी संख्या में बहुत ही मजबूत क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ। खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में। RJD व JDU ने बिहार में और सपा ने उत्तर प्रदेश में OBC के मसले को उठाया और OBC वोटरों का जबर्दस्त समर्थन पाने में सफल रहे। हकीकत में OBC वोटर ही बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों के प्रमुख समर्थक बन गए।
पिछले कुछ चुनावों से OBC वोटरों में बीजेपी की लोकप्रियता बढ़ी है। बीजेपी उत्तर भारत के अनेक राज्यों में प्रभावी OBC की तुलना में निचले OBC को लुभाने में अधिक सफल रही। इसलिए बीजेपी ने भले ही OBC पर अपनी पहुंच बनाकर चुनावी लाभ ले लिया हो, लेकिन इनके बीच उसका समर्थन उतना मजबूत नहीं है, जितना कि उच्च वर्ग और उच्च जातियों के बीच है।
सीएसडीएस के संजय कुमार के मुताबिक बीजेपी का जातिगत गणना से कतराने का मुख्य कारण यह डर है कि अगर जातिगत गणना हो जाती है, तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार की नौकरियां और शिक्षण संस्थाओं में OBC कोटे में बदलाव के लिए सरकार पर दबाव बनाने का मुद्दा मिल जाएगा। बहुत हद तक संभव है कि OBC की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो सकती है।
यह मंडल-2 जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है और बीजेपी को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय पार्टियों को नया जीवन भी। यह डर भी है कि OBC की संख्या भानुमती का पिटारा खोल सकती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा।
माना जाता है कि बीजेपी को इस तरह की जनगणना से डर यह है कि इससे अगड़ी जातियों के उसके वोटर नाराज हो सकते हैं, इसके अलावा बीजेपी का परंपरागत हिन्दू वोट बैंक इससे बिखर सकता है।
संजय कुमार कहते हैं कि मौजूदा सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए OBC वोट को नाराज होने से बचाना बड़ी चुनौती है। कई सर्वे इशारा करते हैं कि बीजेपी ने ओबीसी जातियों में तेजी से पैठ बढ़ाई है।
2009 के आम चुनाव में बीजेपी को 22% OBC वोट मिले थे, जो 10 साल में दोगुने हो गए। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 44% वोट मिले। वहीं क्षेत्रीय पार्टियों का हिस्सा 2009 के 42% वोटों से घटकर 27% रह गया
पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई कहते हैं कि जाति के अधार पर जनगणना की बात संवेदनशील मामला है। हमारे देश में अभी तक का इतिहास रहा है कि अगर इस तरह की जनगणना होती है तो उसी आधार पर आरक्षण की और दूसरी चीजों की मांग होने लगेगी। ये संख्या के आधार पर होगा तो प्रेशर पॉलिटिक्स काम करने लगेगी।
कांग्रेस और बीजेपी जैसे मुख्य राजनीति दलों की एक दुविधा है। वो पिछड़े के, अल्पसंख्यकों के और वंचित समाज के वोट तो चाहते हैं। लेकिन उसके साथ साथ वो फॉरवर्ड क्लास का समर्थन भी नहीं खोना चाहते हैं। इसी वजह से बीजेपी भी इससे बचना चाहती है।
संजय कुमार कहते हैं कि OBC का आखिरी ऑथेंटिक डेटा 1931 की जनगणना का है। इसके बाद 2011 की सामाजिक आर्थिक जनगणना के डेटा सार्वजनिक नहीं किए गए। ऐसे में जाति जनगणना की मांग से सियासी बवाल मच सकता है। 100 साल पुराने आंकड़ों के अनुसार देश में 52% OBC आबादी है। किसी भी राज्य में उनकी आबादी 45% से कम नहीं है। कुछ राज्यों में यह 60% से भी अधिक है।
जातीय जनगणना होती है तो असली आंकड़ा सामने आएगा। इसके आधार पर OBC की केंद्रीय सूची को भी संशोधित करना होगा। साथ ही पिछड़ी जातियों को मिलने वाले 27% आरक्षण को उनकी आबादी के हिसाब से बढ़ाने की मांग भी तेज होगी।
विपक्ष सामाजिक न्याय के नाम पर साल 2024 के चुनावों में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाकर बीजेपी पर दबाव बनाने और पिछड़े वोट को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहा है।
पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई कहते हैं कि दिलचस्प बात ये है कि पुराने समय से ये माना जाता था कि कांग्रेस जाति को सम्मान के भाव से नहीं देखती है। कांग्रेस को लगता था कि जाति से समाज बिखरता है जुड़ता नहीं है। 2008 से 2010 के बीच जब महिला आरक्षण का बिल आया था तो कांग्रेस इसके समर्थन में थी लेकिन इसमें OBC को अलग से आरक्षण देने के समर्थन में नहीं थी।
चूंकि अब सिर्फ कांग्रेस की बात नहीं रह गई है, अब INDIA अलायंस हो गया है। INDIA अलायंस में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा हैं और ये पार्टियां OBC के आरक्षण को लेकर बहुत मुखर हैं। यानी कांग्रेस अब राजद, सपा, जेडीयू और डीएमके के स्वर में बोलने लगी हैं। यह एक बहुत बड़ा शिफ्ट है। मुझे नहीं लगता कि कांग्रेस के अंदर इसे लेकर बहुत डिस्कशन हुआ है।
लोकसभा में महिला आरक्षण पर बहस के दौरान सोनिया गांधी और राहुल गांधी जो भाषा बोल रहे थे वो सरकार के खिलाफ उकसाने वाली भाषा है। इसके राजनीतिक मायने हैं। महिला आरक्षण का गुणा भाग 2024 के लोकसभा चुनाव में नजर आएगा। कांग्रेस और विपक्ष का आकलन है कि पिछड़े वर्ग का 4 से 5% मतदाता भी शिफ्ट हो जाता है तो बड़ा उलटफेर हो सकता है।