14 मार्च 1931 को फिल्म आलम आरा रिलीज हुई। ये अपने आप में अजूबा थी, क्योंकि ये भारत की पहली बोलती फिल्म थी। अभी तक साइलेंट फिल्में देख रहे देशवासियों को पता चला कि फिल्मी पर्दे पर कलाकार ना सिर्फ बोलेंगे, बल्कि गाएंगे भी। तो, थिएटर्स में भीड़ टूट पड़ी। दोपहर 3 बजे शुरू होने वाले शो के लिए सुबह 6 बजे से लोग टिकट खिड़की की कतार में खड़े हो गए। टिकट खत्म हुए तो दंगे पर भी आमादा हो गए।
भारतीय सिनेमा में ये पहली बार था कि सिनेमाघरों के बाहर ब्लैक में टिकट बिके। लोगों ने 25 पैसे का टिकट 5 रुपए खरीदा। हफ्तों तक सारे शो बुक रहे। हिंदी सिनेमा में ये क्रांति लाने वाले इंसान का नाम था आर्देशिर ईरानी। ईरानी ने ही फिल्म आलम आरा बनाई। वो साइलेंट फिल्मों से अलग कुछ नया बनाना चाहते थे तो विदेशों से नई साउंड टेक्नोलॉजी लाए। बोलती सिनेमा का कॉन्सेप्ट चोरी ना हो जाए, इस डर से वो फिल्म की शूटिंग भी आधी रात में करते थे। पूरी फिल्म ही रात 1 से सुबह 4 के बीच शूट की जाती थी।
आर्देशिर ईरानी ने ही भारतीय सिनेमा को पहली बोलती, पहली रंगीन और पहली अंग्रेजी फिल्म भी दी। फिल्मों का शौक था, लेकिन पैसे नहीं थे। किस्मत से एक बड़ी रकम लॉटरी में जीते और जिंदगी बदल गई
खान बहादुर आर्देशिर ईरानी का जन्म 5 दिसंबर 1886 को पुणे के एक पारसी परिवार में हुआ। उनके पिता ईरान से भारत आए थे। पिता कुछ विदेशी इंस्ट्रूमेंट को भारत में बेचा करते थे। पढ़ाई के बाद आर्देशिर केरोसिन बेचने और स्कूलों में पढ़ाने का काम किया करते थे। कुछ समय बाद पिता के नक्शे-कदम पर वो भी फोटोग्राफी सीखने के लिए बॉम्बे (अब मुंबई) के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स आ गए। उस समय भारत में फोटोग्राफी की शुरुआत ही हुई थी, ऐसे में विदेशी कैमरे, विदेशी कंपनियां और प्रिंटिंग प्रेस की भारत में अच्छी पकड़ बन रही थीं। फादर ऑफ इंडियन सिनेमा दादा साहेब फाल्के ने भी उसी कॉलेज से फोटोग्राफी सीखी थी।
हॉलीवुड का यूनिवर्सल स्टूडियो भारत में एलेक्जेंडर सिनेमा चलाता था, जिसके कैमरों और दूसरे इक्विपमेंट्स की जिम्मेदारी आर्देशिर को सौंपी गई थी। यहां काम करते हुए उन्हें फिल्ममेकिंग में ऐसी दिलचस्पी जागी कि उन्होंने हर काम बारीकी से सीखना शुरू कर दिया।
आर्देशिर ईरानी को हमेशा से लॉटरी टिकट खरीदने में बेहद दिलचस्पी थी। 1903 में उन्होंने लॉटरी के जरिए 14 हजार रुपए जीते। उस जमाने में ये एक बड़ी राशि थी। इन रुपयों से उन्होंने एक टेंट बनाया जिसमें प्रोजेक्टर के जरिए वो विदेशी फिल्म बनाया करते थे।
1913 में दादा साहेब की फिल्म राजा हरिश्चंद्र के बाद भारत में फिल्में बनना शुरू हो गईं। लॉटरी की बची हुई रकम से आर्देशिर ने शूटिंग के जरूरी इक्विपमेंट खरीदे
1922 में आर्देशिर न्यूयॉर्क से फोटोग्राफी सीखकर आए भोगीलाल दवे के साथ स्टार फिल्म्स स्टूडियो शुरू किया। भोगीलाल दादा साहेब फाल्के के स्टूडियो हिंदुस्तान फिल्म्स के पूर्व मैनेजर थे। 1922 में उनकी फिल्म वीर अभिमन्यु रिलीज हुई। करीब 17 फिल्में बनाने के बाद दोनों की पार्टनरशिप टूट गई और 1925 में आर्देशिर ने इंपीरियल फिल्म की शुरुआत की। उन्होंने इस स्टूडियो से 62 फिल्में बनाईं।
1929 में आर्देशिर ईरानी अमेरिकन रोमांटिक ड्रामा प्ले शो बोट देखने एक्सेलसियर थिएटर पहुंचे थे। इस प्ले को अलग साउंड के साथ दिखाया जा रहा था। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने बोलती फिल्म बनाने का फैसला किया। उनके पास साउंड और साउंड तकनीक का कोई अनुभव नहीं था, ऐसे में उन्होंने विदेश में रहकर साउंड तकनीक सीखी। फिल्म बनाने के लिए बिजनेस टायकून सेठ बद्रीप्रसाद दुबे ने 40 हजार रुपए की मदद दी। आर्देशिर ईरानी जानते थे कि अगर लोगों को पता चलता कि वो साउंड फिल्म बना रहे हैं, तो कई और लोग भी इस फील्ड में उतर आते, इसलिए उन्होंने फिल्म को राज रखा।
इस फिल्म में सभी लीड कास्ट के लिए जुबैदा और मास्टर विठ्ठल को कास्ट किया गया। शुरुआत में आर्देशिर ईरानी फिल्म से महबूब खान (मदर इंडिया के डायरेक्टर) को लॉन्च करना चाहते थे, लेकिन पॉपुलर चेहरा लेने के लिए उन्होंने फैसला बदल लिया। इससे महबूब को काफी दुःख पहुंचा था। वहीं रूबी मेयर्स को भी फिल्म से सिर्फ इसलिए हटा दिया गया क्योंकि उनकी हिंदी और उर्दू में पकड़ मजबूत नहीं थी, जबकि उन्होंने इस फिल्म के लिए एक साल तक एक्टिंग ट्रेनिंग ली थी।
जब मास्टर विठ्ठल को पहली रंगीन फिल्म का ऑफर मिला तो वो झट से राजी हो गए और उन्होंने सरधी स्टूडियो से अपना कॉन्ट्रैक्ट तुरंत खत्म कर दिया, जहां से उन्होंने करियर शुरू किया था। इस बात से नाराज उस स्टूडियो ने उन पर कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी।
ऐसे में उस समय वकालत पूरी कर चुके मोहम्मद अली जिन्ना ने मास्टर विट्ठल की तरफ से केस लड़ा और उन्हें सभी आरोपों से मुक्त करवाया। जब भारत आजाद हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की नींव रखी और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने।
फिल्म में साउंड का इस्तेमाल करने के लिए आर्देशिर ने लंदन, इंग्लैंड जाकर इसकी ट्रेनिंग ली। बाहर साउंड रिकॉर्डिंग करने पर उन्हें शोर-शराबे से दिक्कत हो रही थी, ऐसे में उन्होंने इनडोर शूटिंग की। इनडोर शूटिंग में सबसे बड़ा चैलेंज था सनलाइट। उस जमाने में सनलाइट में फिल्म शूट होती थी। आर्देशिर के पास इसका भी तोड़ था। उन्होंने आर्टिफिशियल लाइट का इस्तेमाल किया और ऐसा करने वाले पहले भारतीय फिल्ममेकर बने।
फिल्म आलम आरा का सेट रेलवे ट्रैक के पास बना था। हर दिन जब कलाकारों के डायलॉग रिकॉर्ड करते हुए ट्रेन के शोर से दिक्कत होने लगी तो आर्देशिर ईरानी ने देर रात फिल्म की शूटिंग करने का फैसला किया। शूटिंग रोज रात 1 बजे शुरू होकर सवेरे सुबह 4 बजे तक होती थी।
रिकॉर्डिंग मशीन चलाने के लिए आर्देशिर ने हॉलीवुड के साउंड एक्सपर्ट विलफोर्ड डेमिंग जूनियर को भारत बुलाया था। लेकिन वो हर दिन के लिए 100 रुपए फीस ले रहे थे। ये एक बड़ी राशि थी, ऐसे में उन्हें वापस भेजकर आर्देशिर ने खुद ही मशीन ऑपरेट की थी।
साउंड रिकॉर्डिंग के कलाकारों से थोड़ी दूरी पर ही माइक्रोफोन रखे गए थे, जिसके लिए कलाकारों को चिल्ला चिल्लाकर डायलॉग बोलने पड़ते थे। कैमरा फ्रेम से कुछ दूरी पर तबला वादक बैठाया गया था, जो हर सीन के हिसाब से साउंड दे रहा था। फिल्म में कुछ 78 लोगों ने एक्टिंग कर डायलॉग बोले थे।
फिल्म प्रमोशन के लिए अखबार में छपी टेगलाइन लोगों में उत्साह पैदा करने में सफल हुई। 14 मार्च 1931 को फिल्म का पहला शो दोपहर 3 बजे से था, लेकिन इसकी टिकट लेने के लिए लोग सुबह 6 बजे से लाइन में आकर लग गए। शुरुआत में फिल्म की टिकट की कीमत 4 आना यानी 25 पैसे थे। जिसने भी फिल्म देखी, वो देखता रह गया। साउंड और डायलॉग्स ने फिल्म में जान डाल दी।
आर्देशिर ईरानी की फिल्म देखने के लिए दूसरे दिन से ही ऐसी भीड़ लगी कि देखते ही देखते दंगे शुरू हो गए। काबू पाने के लिए पुलिस को बुलाया गया। ऐसा फिल्म राइटर बी.डी. गर्ग ने अपनी बुक आर्ट ऑफ सिनेमा में फिल्म आलम आरा के लिए लिखा था।
फिल्म का क्रेज ऐसा था कि लोगों को फिल्म देखने के लिए कई हफ्तों बाद की टिकट मिलती थी, क्योंकि हफ्ते भर के शो बुक रहते थे। 4 आने में बिकने वाली टिकट चंद दिनों में ही 5 रुपए में बेची जाने लगी थी।
पहली साउंड फिल्म आलम आरा ने इतिहास रचने के साथ ब्लैक मार्केटिंग की शुरुआत ही की। लोग कम कीमत में टिकट खरीदकर उसे दोगुनी कीमत में बेच रहे थे। फिल्म देखने के लिए लोग ऐसे उत्साहित थे कि उन्हें महंगी टिकटें खरीदने पर भी संकोच नहीं था।
1933 में आर्देशिर ईरानी ने ईरान जाकर वहां पहली ईरानी फिल्म लोर गर्ल बनाई। उन्होंने अपने रुपयों से ये फिल्म बनाई और डायरेक्ट की, जबकि इसके डायलॉग उन्होंने अपने दोस्त अब्दुल हुसैन सपांता से लिखवाए, जो उनके साथ टेंट शो करवाते थे। ईरान में जब कोई कलाकार फिल्म में काम करने के लिए राजी नहीं हुआ तो आर्देशिर ईरानी ने अब्दुल हुसैन को फिल्म का हीरो और उनकी पत्नी रूहान्गिज सामिनेजाद को हीरोइन बनाया। ये ईरान में बनी पहली साउंड फिल्म है।
जब ईरान में रूहान्गिज ने फिल्मों में काम किया तो काफी विवाद हुआ। उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। एक दिन जब वो घर से बाहर निकलीं तो उनके साथ कई पुरुषों ने विरोध करते हुए यौन उत्पीड़न किया। जान बचाने के लिए रूहान्गिज ने अपना नाम बदल लिया और फिर ताउम्र गुमनामी में रहीं। आर्देशिर ईरानी ही ईरान में साउंड फिल्में लेकर आए, लेकिन ईरान सिनेमा के इतिहास में उन्हें कभी क्रेडिट नहीं दिया गया।
1937 में आर्देशिर ईरानी ने सादत हसन मंटो की नॉवेल पर फिल्म किसान कन्या बनाई। ये भारत की पहली रंगीन फिल्म थी। फिल्म को 8 जनवरी 1937 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज किया गया था। जब प्रमोशन के दौरान अखबारों में खबर छपी की भारत में अब फिल्मों में रंग दिखाए जाएंगे तो हर कोई फिल्म देखने के लिए उत्सुक था। शुरुआती कुछ दिनों तक सिनेमाघरों में भीड़ देखने मिली, लेकिन गरीब किसानों की कहानी दिखाने वाली फिल्म इतनी पेचीदा थी कि ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकी। फिल्म के जरिए बड़े पर्दे पर रंगों में देखी जानी वाली पहली एक्ट्रेस पद्मा देवी थीं और एक्टर निसार और गुलाम मोहम्मद थे।
सादत हसन मंटो ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में फिल्म की जिक्र करते हुए लिखा था कि उस समय आर्देशिर ईरानी की आर्थिक स्थिति खस्ता थी। उनके पास पैसों की कमी थी इसके बावजूद उन्होंने रंगीन फिल्म बनाने का फैसला किया, क्योंकि उन्हें हमेशा से ही कुछ नया कर दिखाने की चाह थी। उस समय मंटो 20 रु. महीना वेतन पर, आर्देशिर के स्टूडियो इंपीरियल फिल्म कंपनी के मुंशी हुआ करते थे। पैसों की कमी थी तो आर्देशिर ने मंटो के लेखन का हुनर समझते हुए उनसे ही फिल्म लिखवा ली थी।
आर्देशिर नहीं चाहते थे कि उनके मुंशी मंटो का नाम फिल्म के राइटर के तौर पर लिखा जाए, ऐसे में मंटो ने ही प्रोफेसर जियाउद्दीन का नाम सुझाया जो शांति निकेतन में फारसी पढ़ाते थे। ऐसे में स्टोरी का क्रेडिट प्रो. जियाउद्दीन को गया और स्क्रीनप्ले में नाम आया मंटो का।
25 साल के फिल्मी सफर में आर्देशिर ईरानी ने करीब 158 फिल्में बनाईं, लेकिन जब वर्ल्ड वॉर 2 शुरू हुआ तो आर्देशिर ईरानी ने फिल्में बनाना बंद कर दीं। दूरदर्शी आर्देशिर का मानना था कि युद्ध काल फिल्म इंडस्ट्री के लिए ठीक नहीं है और इस दौरान फिल्में बनाने वाला शख्स नुकसान में रहेगा। फिल्मों के जनक दादा साहेब फाल्के ने युद्ध के दौरान फिल्में बनाईं, लेकिन उनकी फिल्में नुकसान उठाती रहीं और उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा।
आर्देशिर ईरानी ने कुछ सालों बाद अपने स्टूडियो को बंद कर उसका सामान बेच दिया। आगे उन्होंने ग्रामोफोन एजेंसी और कार एजेंसी से कमाई कर गुजारा किया। उन्होंने ताउम्र शादी नहीं की, ऐसे में जिंदगी के कुछ आखिरी साल उन्होंने अकेले गुजारे। 14 अक्टूबर 1969 में आर्देशिर का 82 साल की उम्र में मुंबई में निधन हो गया।