‘पिया तू अब तो आजा..’, ‘महबूबा-महबूबा..’, ‘यम्मा-यम्मा…’, ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को..’ जैसे कई बेहतरीन गाने कंपोज करने वाले लीजेंड्री म्यूजिक डायरेक्टर, कंपोजर और सिंगर आर.डी. बर्मन की आज 84वीं बर्थ एनिवर्सरी है। 27 जून 1939 को आर.डी. बर्मन का जन्म अपने जमाने के मशहूर संगीतकार एस.डी. बर्मन के घर में हुआ था। 5 सुरों में रोते थे तो अशोक कुमार ने उन्हें पंचम दा नाम दिया था।
संगीत का नॉलेज ऐसा था कि महज 9 साल की उम्र में उन्होंने वो धुन बनाई जो चोरी-छिपे पिता ने अपनी फिल्म में इस्तेमाल कर ली। नाराजगी तो थी, लेकिन सालों बाद एक समय ऐसा भी आया जब आर.डी. बर्मन ने पिता के नाम का फायदा उठाकर अपनी धुनें उनके नाम पर बेचीं। पहली शादी अपनी एक फैन से की और दूसरी आशा भोसले से। जब आर.डी. बर्मन ने 3 बच्चों की तलाकशुदा मां आशा से शादी करनी चाही तो मां के इनकार के बाद उन्हें कदम पीछे खींचने पड़े। हालांकि जिंदगी के आखिरी कुछ साल उन्होंने गरीबी और अकेलेपन में गुजारे। जितनी चर्चा जीते जी उनकी रही, उतनी ही मौत के बाद उनके एक लॉकर की भी हुई, उसके अंदर मिला एक नोट आज भी रहस्य ही है।
आज पंचम दा की 84वीं बर्थ एनिवर्सरी पर पढ़िए उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ चुनिंदा किस्से-
आर.डी. बर्मन (राहुल देव बर्मन) का जन्म 27 जून 1939 को हिंदी फिल्म के म्यूजिक कंपोजर और सिंगर सचिन देव बर्मन (एस.डी. बर्मन) और मीरा देव बर्मन के घर कोलकाता में हुआ था। उनका नाम तो राहुल था, लेकिन दादी प्यार से उन्हें टुबलू बुलाती थीं।
संगीत आर.डी. बर्मन का पहला प्यार था। कम उम्र से ही धुनें बनाने और इंस्ट्रूमेंट्स प्ले करने में उन्हें महारत थी। अपने स्कूल के दिनों में तबला बजाते पंचम दा।
एस.डी.बर्मन के नक्शेकदम पर आर.डी.बर्मन भी गायिकी में उतरे। बचपन में जब भी रोते थे तो उनके रोने पर 5 सुर निकलते थे। वहीं जब एक बार एस.डी. बर्मन के घर पहुंचे अशोक कुमार ने उन्हें रियाज में प का बार-बार इस्तेमाल करते सुना तो उनका नाम पंचम रख दिया। जब आर.डी. बर्मन हिंदी सिनेमा में आए तो उन्हें पंचम दा नाम से ही पहचाना गया। हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत के मुताबिक पंचम, पांचवे स्केल में गाने को कहा जाता है। पहला स्केल शाजा, दूसरा ऋषभ, तीसरा गांधार, चौथा मध्यम, पांचवां पंचम, छठा धैवत, सातवां निषाद।
किशोर कुमार और डायरेक्टर के. बापैया के साथ तारदेव, मुंबई के फिल्म सेंटर में आर.डी. बर्मन। ये तस्वीर 31 मई 1979 को फिल्म टक्कर के ऑडियो लॉन्च के दौरान ली गई थी।
कम उम्र से ही आर.डी. बर्मन का झुकाव पिता की तरह गायिकी की तरफ रहा। वो गायिकी को इतनी तवज्जो देने लगे कि पढ़ाई से ध्यान हट गया। नतीजतन उनके 9 साल की उम्र में नंबर कम आए। जब पिता को ये बात पता चली तो उन्होंने पूछ लिया- क्या तुम्हें पढ़ाई नहीं करनी? आखिर तुम करना क्या चाहते हो
पिता के इस सवाल पर एस. डी. बर्मन ने एक- दो नहीं बल्कि 9 ताजी धुन सुना दीं। सिर्फ 9 साल के बच्चे की 9 धुनें सुनकर पिता भी दंग रह गए। उन्होंने कुछ नहीं किया और वहां से चले गए।
कुछ समय बाद एस. डी. बर्मन अपने काम के लिए दोबारा मुंबई लौट आए। सालों बाद फिल्म फंटूश (1956) रिलीज हुई। 17 साल के आर.डी. बर्मन जब कोलकाता में ये फिल्म देखने पहुंचे तो उन्हें जोरदार धक्का लगा। पिता के कंपोजिशन में बने फिल्म के गानों में वही धुन थीं, जो उन्होंने सुनाई थीं। वो गाना था, ‘आई मेरी टोपी पलट के…’।
आर.डी. बर्मन की उम्र कम जरूर थी, लेकिन वो इस बात से काफी नाराज हुए। जब उनकी पिता से मुलाकात हुई तो उन्होंने गुस्से में पूछा- आपने मेरी धुन क्यों चुराई। जवाब मिला- मैं तो ये दख रहा था कि तुम्हारी बनाई धुन लोगों को पसंद आती है या नहीं। 1957 की गुरु दत्त की फिल्म प्यासा के गाने सिर जो तेरा चकराए में भी एस.डी. बर्मन ने अपने बेटे आर.डी. बर्मन की धुनों का इस्तेमाल किया था।
उस्ताद अली अकबर खान, पंडित समता प्रसाद और सलिल चौधरी से संगीत की शिक्षा लेने के बाद आर.डी. बर्मन ने अपने पिता को असिस्ट करना शुरू कर दिया था। कई बार काम की वजह से दोनों में अनबन हो जाती थी। आर.डी. बर्मन की जिद की वजह से कई बार बर्मन दा स्टूडियो से नाराज होकर चले जाते थे, लेकिन आखिर में बेटे की बात उन्हें माननी ही पड़ती थी।
सबसे पहले 1958 में गुरु दत्त ने आर.डी. बर्मन को फिल्म राज में म्यूजिक कंपोज करने का मौका दिया, लेकिन ये फिल्म कभी बन ही नहीं सकी। इसके बाद उन्होंने 1961 की फिल्म सोलवा साल से बतौर म्यूजिक डायरेक्टर करियर की शुरुआत की थी। दरअसल, महमूद इस फिल्म में एस.डी. बर्मन से गाने कंपोज करवाना चाहते थे। जब इस सिलसिले में वो उनके घर पहुंचे तो एस.डी. बर्मन ने ये फिल्म करने से इनकार कर दिया। इसी समय महमूद की नजर पास के कमरे में तबला बजाते हुए आर.डी. बर्मन पर पड़ गई। फिर गया था, महबूब ने इस फिल्म के गाने कंपोज करने की जिम्मेदारी एस.डी. बर्मन को दे दी।
आर.डी. बर्मन के कंपोजिशन की पहली हिट फिल्म तीसरी मंजिल (1966) थी। इस फिल्म के गाने ‘आजा-आजा मैं हू प्यार तेरा’ और “ओ हसीना जुल्फों वाली’ जबरदस्त हिट रहे। आगे उन्होंने बहारों के सपने, यादों की बारात, पड़ोसन, ज्वैल थीफ और प्रेम पुजारी जैसी फिल्मों के लिए म्यूजिक कंपोज किया
हिंदी सिनेमा में अपने हुनर के बलबूते कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहे आर.डी. बर्मन ने 1966 में रीता पटेल से पहली शादी की थी। दरअसल दोनों का रिश्ता एक मामूली शर्त से शुरू हुआ था। रीता पटेल उनकी बड़ी फैन हुआ करती थीं। एक दिन उन्होंने अपने दोस्तों से शर्त लगाई कि देखना मैं एक दिन आर.डी. बर्मन के साथ डेट पर जाकर दिखाऊंगी। शर्त के अनुसार रीता ने एक दिन मौका पाते ही उनसे डेट का पूछ लिया और वो भी मान गए। एक शर्त से शुरू हुआ किस्सा 1966 में शादी में बदल गया
पंचम दा के करीबी रहे गुलजार साहब ने बताया कि वो बेहद बेसब्र रहते थे। जब भी कोई उन्हें गाने की धुन बनाते हुए चाय देता तो वो चाय के ठंडा होने का इंतजार करने की बजाय सीधा उसमें पानी डालकर पी जाया करते थे।
शादी के 5 साल बाद 1971 में आर.डी. बर्मन और रीता का तलाक हो गया। ये दोनों का मिला-जुला फैसला था। जिस दिन आर.डी. बर्मन का तलाक हुआ, उस दिन वो घर न जाकर एक होटल के कमरे में ठहर गए। यहां अकेलेपन में उन्होंने अपना दर्द समेटकर एक गाना लिख दिया। वो गाना था मुसाफिर हूं यारों, न घर है न ठिकाना… मुझे चलते जाना है। ये गाना एक साल बाद 1972 की फिल्म परिचय में रखा गया, जो काफी पॉपुलर हुआ था।
एक तरफ आर.डी. बर्मन की शादी टूट चुकी थी, वहीं दूसरी तरफ उस जमाने की मशहूर सिंगर आशा भोसले उनके सेक्रेटरी गणपत राव भोसले से अलग होकर तीन बच्चों की जिम्मेदारियां अकेले उठा रही थीं। नाकाम शादियों के गम में डूबे आर.डी. बर्मन और आशा भोसले को एक-दूजे में हमदर्द मिल गया। दोनों की वैसे तो पहली मुलाकात 1956 में फिल्म तीसरी मंजिल के गाने के लिए हुई थी। लगातार साथ काम करते हुए दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे और एक दिन मौका पाते ही आर.डी. बर्मन ने आशा के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया
आशा तो आर.डी. बर्मन से शादी करने के लिए मान गईं, लेकिन जैसे ही ये बात आर.डी. बर्मन की मां तक पहुंची तो उन्होंने शादी से साफ इनकार कर दिया और कहा, ये शादी मेरी लाश पर ही होगी। इनकार की पहली वजह ये थी कि आशा, आर.डी. बर्मन से 6 साल बड़ी थीं, और दूसरी कि वो 3 बच्चों की मां थीं।
मां के फरमाबरदार बेटे आर.डी. बर्मन ने भी अपने कदम पीछे खींच लिए। कुछ समय बाद आर.डी. बर्मन के पिता एस.डी. बर्मन का निधन हो गया और मां की मानसिक स्थिति बिगड़ गई। जब मां की हालत में सुधार नहीं दिखा तो आर.डी. बर्मन ने आशा भोसले से 1980 में शादी कर ली
आर.डी. बर्मन के निर्देशन में आशा भोसले ने ‘ओ मेरे सोना ना रे..’, ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को..’, ‘तुम साथ हो जब अपने..’, ‘दम मारो दम..’, ‘दो लफ्जों की है दिल की..’, ‘कह दूं तुम्हें..’, ‘सुन सुन दीदी तेरे लिए..’ जैसे गानों को आवाज दी
आशा भोसले ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में आर.डी. बर्मन से जुड़ा मजेदार किस्सा सुनाया। उन्होंने बताया कि पिता एस.डी. बर्मन के बीमार पड़ने के बाद लोगों ने आर.डी. बर्मन को काम देना लगभग बंद कर दिया था। जब भी वो किसी के पास काम मांगने जाते तो हर कोई बस यही कहता कि यार पंचम तुम्हारी धुनों में वो बात नहीं जो तुम्हारे पिता की धुनों में हुआ करती थी। एक बार जब आर.डी. बर्मन अपनी पत्नी आशा के साथ शक्ति सामंत के पास पहुंचे तो उन्हें फिर यही जवाब मिला कि कुछ नया सुनाओ, जैसा तुम्हारे पिता सुनाया करते थे।
ये सुनकर आर.डी. बर्मन ने पत्नी आशा के कानों में धीरे से कहा, अब तुम मजे देखना। ये कहते ही आर.डी. बर्मन ने शक्ति सामंत से कहा, मेरे पिताजी ने एक धुन बनाई थी, जो आज तक कहीं इस्तेमाल नहीं हुई। क्या वो धुन आपको सुनाऊं। चालाकी से आर.डी. बर्मन ने पिता के नाम से अपनी ही एक धुन सुना दी। वो धुन सुनकर शक्ति सामंत ने तारीफों में कसीदे पढ़ दिए और कहा, मैं कहता हूं ना तुम्हारे पिता की बात ही कुछ और है।
द सालों बाद आर.डी. बर्मन की शराब और सिगरेट की लत से परेशान होकर आशा भोसले ने उनका घर छोड़ दिया। आखिरी समय में आर.डी. बर्मन की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी। एक समय ऐसा भी रहा जब उन्हें काम मिलना बंद हो गया। सालों बाद विधु विनोद चोपड़ा ने आर.डी. बर्मन की मदद करते हुए उन्हें अपनी फिल्म 1942ः ए लव स्टोरी में म्यूजिक कंपोज करने का मौका दिया।
फिल्म के लगभग सभी गाने सुपरहिट रहे, लेकिन अफसोस कि ये कामयाबी देखने के लिए आर.डी. बर्मन नहीं रहे। 4 जनवरी 1994 को आर.डी. बर्मन 55 साल की उम्र में गुजर गए और फिल्म 15 अप्रैल 1994 को रिलीज हुई। मौत के बाद आर.डी. बर्मन को इस फिल्म के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था।
आर.डी. बर्मन की मौत के कुछ समय बाद आशा भोसले को पता चला कि उन्होंने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बैंक में एक लॉकर ले रखा था। इस लॉकर के लिए आर.डी. बर्मन जीते जी हजारों रुपयों का किराया दिया करते थे। कागजातों के अनुसार आर.डी. बर्मन की मौत के बाद इस लॉकर के हकदार उनके सेक्रेटरी भरत अशर होते। जब भरत से इस बारे में पूछा गया तो उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी। आशा ने अब पूरा घर खंगाला, लेकिन उन्हें भी इसकी चाबी नहीं मिली। ये हाईप्रोफाइल केस था तो हर कोई एक्टिव होकर इसमें लगा हुआ था। पुलिस ने लॉकर सील करवा दिया और जांच शुरू कर दी।
आशा भोसले को भरोसा था कि लॉकर में आर.डी. बर्मन की प्रॉपर्टी के जरूरी पेपर्स, गहने और हीरे की खानदानी अंगूठी मिलेगी। बैंक ने बताया कि आर.डी. बर्मन हर महीने लॉकर का किराया तो देते थे, लेकिन उन्होंने कभी इसे खोला नहीं। आखिरकार 3 मई 1994 को उनका लॉकर खोलने का आदेश जारी हुआ। हर किसी की नजरें उनके लॉकर पर थी। पुलिस, बैंक मैनेजर, आशा मौके पर मौजूद थे।
आखिरकार लॉकर नंबर SBD को चाबी नंबर 1035 से खोला गया। जैसे ही वो लॉकर खुला तो हर कोई हैरान था। उस बड़े से लॉकर में चारों तरफ टॉर्च घुमाया गया, लेकिन उसमें था सिर्फ 5 रुपए का नोट। हर कोई हैरान था कि जिस लॉकर के हजारों रुपए किराए में जाते हैं उसमें कीमती सामान के नाम पर सिर्फ 5 रुपए क्यों हैं। पूरे लॉकर में ये एक ही नोट क्यों था, ये पंचम दा को किसने दिया, इस लॉकर का नॉमिनी उनका सेक्रेटरी ही क्यों था, ऐसे कई सवाल हैं, जिनका आज भी कोई जवाब नहीं मिला है। ये 5 रुपए का नोट आज भी रहस्य है।