क्या सच में दुनिया से जुड़ना चाहता है अफगानिस्तान, क्यों महिला अधिकारों पर चुप्पी साधी ?

अफगानिस्तान की तालिबान हुकूमत चाहती है कि दुनिया के तमाम देश उसे मान्यता दें। इसी सिलसिले में बातचीत के लिए कतर के प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन थानी 12 मई को अफगानिस्तान के कंधार गए थे। थानी ने अफगान तालिबान के सुप्रीम लीडर हेबुतुल्लाह अखुंदजादा से कंधार में सीक्रेट मीटिंग की थी। इसकी जानकारी बुधवार को सामने आई।

एक रिपोर्ट के मुताबिक- थानी ने अखुंदजादा से साफ कहा कि अगर वो चाहते हैं कि दुनिया तालिबान हुकूमत और अफगान सरकार को मान्यता दे तो उन्हें महिलाओं को उनके अधिकार देने होंगे। इसी मसले पर बातचीत अटक गई। अखुंदजादा और अल थानी की मुलाकात के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी। कतर की राजधानी दोहा में तालिबान का ऑफिस है। वहीं इस विजिट का सीक्रेट प्लान बनाया गया। इसके बाद अल थानी एक स्पेशल एयरक्राफ्ट से सीधे कंधार पहुंचे।
यहां तालिबान के सुप्रीम लीडर अखुंदजादा से उनकी लंबी बातचीत हुई। तालिबान के सुप्रीम लीडर चाहते थे कि कतर दुनिया के बाकी देशों से बातचीत करे और अफगान हुकूमत को मान्यता दिलाए।
अखुंदजादा की इस डिमांड पर कतर के प्रधानमंत्री ने महिलाओं को शिक्षा समेत बाकी अधिकार दिए जाने की मांग रखी। थानी ने कहा कि अफगानिस्तान से बाकी मामलों में तो बातचीत की जा सकती है, लेकिन महिलाओं को उनके अधिकार देने पर उसे सहमत होना पड़ेगा।
रिपोर्ट के मुताबिक- अखुंदजादा ने इस पर कोई भरोसा नहीं दिलाया। इसी मुद्दे पर बातचीत अटक गई। हालांकि, तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि वो लड़कियों के स्कूल खोलने की योजना बना रहा, लेकिन इसके लिए शर्तें होंगी। कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में मॉडर्न एजुकेशन की सलाह को उसने नकार दिय

अगस्त 2021 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा करने के बाद महिलाओं के ज्यादातर अधिकार छीन लिए थे। गर्ल्स स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए। कुछ दिन प्राइमरी स्कूल खुले, अब इन्हें भी बंद कर दिया गया है।
तालिबान ने महिलाओं के अकेले फ्लाइट में ट्रेवल करने पर रोक लगाई। उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस जारी न करने के आदेश दिए। ऑफिसों में महिलाओं के जाने पर भी रोक लगा दी गई।
तालिबान ने फैसले लागू करने के लिए मौलवियों का सहारा लिया। उनकी सरकारी और प्राइवेट नौकरियों पर रोक लगवा दी। आगे बढ़ने से रोकने के लिए तालिबान सुरक्षाबलों ने महिलाओं को डराया, धमकाया और अगवा तक किया गया।
अफगानिस्तान की महिला अधिकार कार्यकर्ता खदीजा अहमदी के मुताबिक- तालिबान ने महिलाओं को जज या वकील के रूप में कोर्ट में प्रैक्टिस करने से रोक दिया है। सत्ता पर कब्जा करने से पहले अफगानिस्तान में लगभग 300 महिला जज थीं। तालिबान के चलते इन सभी को देश से निकलना पड़ा।
तालिबान महिलाओं को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में स्थापित करना चाहता है। विशेष रूप से युवा पुरुषों और लड़कों को वर्चस्ववादी और महिलाओं को घर और अपने काम में उपयोग की वस्तु बना देना चाहता है।

प्रतिबंधों के चलते हजारों परिवार महिलाओं को लेकर पाकिस्तान, ईरान और तुर्की जैसे पड़ोसी देशों में जा चुके हैं। पाकिस्तान उन देशों में शीर्ष पर है, जहां हाल के महीनों में बड़ी संख्या में अफगान शरणार्थी पहुंचे हैं। अधिकांश छात्र अब पाकिस्तान में पढ़ रहे हैं।
तालिबान ने अफगानिस्तान पर 1996 से 2001 तक शासन किया था। इस दौरान महिलाओं की स्थिति बेहद चिंताजनक थी।
महिलाओं और लड़कियों को काम करने और स्कूल/कॉलेज जाने की आजादी नहीं थी। साल 2000 में अफगानिस्तान में एक भी लड़की स्कूल नहीं जाती थी।
छोटी-छोटी बच्चियों को भी बुर्का पहनना जरूरी था। महिलाएं अकेले घर से बाहर नहीं निकल सकती थी। घर से बाहर जाने के लिए अपने साथ किसी पुरुष को ले जाना होता था।
महिलाओं को ऊंची हील पहनने पर पाबंदी थी।
पर्दा इतना सख्त था कि महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर बात तक नहीं कर सकती थीं, ताकि उनकी आवाज कोई दूसरा पुरुष न सुने।
अखबारों, किताबों, दुकानों और घरों में महिलाओं की फोटो लगाने पर पाबंदी थी। महिलाओं के नाम पर किसी भी सार्वजनिक जगह के नाम नहीं रखे जाते थे।
इन नियम-कायदों को तोड़ने पर महिलाओं को सख्त सजा दी जाती थी। उन्हें सार्वजनिक जगहों पर पत्थरों से मारा जाता और शरिया कानून के मुताबिक सजा दी जाती थी।
2001 में अमेरिका के हस्तक्षेप के बाद तालिबान सत्ता से हटा तो महिलाओं की स्थिति में सुधार आना शुरू हुआ। महिलाओं को बेसिक राइट मिलने लगे। साल 2000 में जहां एक भी लड़की स्कूल नहीं जाती थी, वहीं 2018 में ये आंकड़ा 83% हो गया था।
अफगानिस्तान में 2018 में हुए चुनावों में 249 में से 69 सीटों पर महिलाओं को जीत मिली थी। यानी, कुल सदस्यों में से 27% महिलाएं थीं। ये आंकड़ा पाकिस्तान और चीन से भी ज्यादा था।
तालिबान के शासन से पहले भी अफगानिस्तान में महिलाओं की स्थिति बेहतर थी। नवंबर 2001 की अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 90 के दशक के शुरुआत में अफगानिस्तान में स्कूलों में पढ़ाने वाले कुल टीचर्स में 77% महिलाएं थीं, सरकारी पदों पर 50% महिलाएं काम करती थीं और काबुल में कुल डॉक्टरों में 40% तक महिलाएं थीं।