आज जानिए नवाजुद्दीन सिद्दकी के बारे में , कैसे बनाया अपना कैरियर

करियर के शुरुआती दिनों में मेरा एक दोस्त बीमारी से मर गया। एक दोस्त मेरे सामने ट्रेन से कुचलकर मर गया था। मुझ पर इन दो मौतों का बहुत गहरा असर पड़ा। लगा कि लाइफ जैसे खत्म हो गई है। कुछ पाने की चाहत और उम्मीद, दोनों ही खत्म हो गई थी, लेकिन मैंने खुद को किसी तरह से संभाला। ठान लिया कि अगर 50 साल की उम्र में भी सफलता मिलेगी, तो वो भी ठीक है। उसे भी पाने के लिए स्ट्रगल करता रहूंगा। शायद इसी फैसले की वजह से मुकाम हासिल कर पाया हूं।’

ये कहना है नवाजुद्दीन सिद्दीकी, जिन्होंने 1999 में आई फिल्म सरफरोश से एक्टिंग डेब्यू किया था, लेकिन उन्हें पहचान मिली 2012 में आई विद्या बालन की फिल्म कहानी से। फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में फैजल के रोल से नवाज रातोंरात बड़े स्टार हो गए।

लगभग 60 फिल्मों का हिस्सा रहे नवाज आज इंडस्ट्री के टैलेंटेड एक्टर्स में से एक हैं। नेशनल फिल्म और फिल्मफेयर अवाॅर्ड से नवाजे गए नवाज के लिए ये सफर तय करना आसान नहीं था। कद-काठी की वजह से उन्हें बहुत रिजेक्शन मिले। शक्ल देखकर लोग कहते थे कि वो एक्टर तो बिल्कुल नहीं लगते।
मेरा जन्म 19 मई 1974 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक छोटे से कस्बे बुढ़ाना में हुआ था। मेरा बचपन बहुत ही सामान्य था। कंचों से खेलना, पतंग उड़ाना, नदी में जाकर नहाना, ऐसे ना जाने कितने खेल बचपन में खेले हैं। मन में कहीं भी एक्टर बनने का ख्वाब नहीं था, लेकिन फिल्में देखने का शौक था।
हमारे कस्बे में एक कच्चा सिनेमा हाॅल था। वहां जाकर दोस्तों के साथ सिनेमा हॉल के दरवाजे के सुराग से फिल्में देख लेता था। बाहर से 50 पैसे में पूरी फिल्म देखने को मिलती थी। अधिकतर समय मेरे पास सिर्फ 25 पैसे ही रहते थे, तो आधी फिल्म ही देख पाता था। बाकी जो दोस्त पूरी फिल्म देखते थे, वो आकर फिल्म की बची हुई कहानी सुना देते। जब कभी 50 पैसे होते, तब मैं भी पूरी फिल्म देख लेता था। थिएटर में जाकर फिल्म देखने का खर्च 2 रुपए था। पैसों की कमी की वजह से ये मौका कभी नहीं मिला। उस दौरान मैंने जुगनू, कालीचरण समेत दादा कोंडके की सारी फिल्में छुप-छुपकर देखीं।
कभी-कभार घर से पैसे चोरी करके भी फिल्में देखी हैं। एक बार मां के बटुए से 5 रुपए चुराकर दूसरे शहर महेंद्र संधू की फिल्म खून का बदला खून देखने चला गया। साथ में अपने एक दोस्त को भी ले गया। फिल्म देखने के बाद मैंने मिठाई भी खाई और दोस्त को भी खिलाई। थोड़ी मिठाई बच गई, जिसे मैं अपने कोट में रख कर भूल गया और घर चला गया।

अगले दिन जब कोट को मां धोने जा रही थीं, तब उनकी नजर जेब में रखे हुई मिठाई पर पड़ी। उन्होंने मुझसे पूछा- मिठाई खाने के लिए तेरे पास इतने पैसे कहां से आए? मैंने तुरंत जवाब दिया कि मेरे पास पहले से पैसे थे, लेकिन जब मां ने अपना बटुआ चेक किया, तब उन्हें पता चला कि 5 रुपए गायब हैं। इस बात से वो बहुत नाराज हो गईं और मेरे हाथ ऊपर करके तार से बांध दिया। वो पिटाई भी बहुत करती थीं, लेकिन इस बार सिर्फ हाथ बांध कर छोड़ दिया।
अधिकतर लोगों का बचपन से ख्वाब एक्टर बनने का होता है, लेकिन मैंने ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद एक्टर बनने का फैसला किया। साइंस की पढ़ाई करने के बाद मैं बड़ौदा की एक पेट्रोकेमिकल कंपनी में जाॅब कर रहा था। कुछ समय बाद ही इस काम से ऊब गया।

इसी दौरान मुझे एक दोस्त ने ‘थैंक यू मिस्टर ग्लाड’ नाटक दिखाया। मैंने देखा कि वहां बैठी ऑडियंस कलाकारों के हिसाब से हंस और उदास हो रही है। ये नजारा देखकर लगा कि दुनिया में इससे ज्यादा खूबसूरत कुछ नहीं हो सकता। इस नाटक को देखने के बाद ही मैंने एक्टर बनने का फैसला किया।
इसके बाद मैंने सबसे पहले गुजरात में थिएटर किया, फिर दिल्ली चला गया। वहां पर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एक्टिंग की पढ़ाई की। फिर 2000 में मुंबई आ गया। मुंबई आने के बाद असली संघर्ष शुरू हुआ। यहां पर 6X8 के एक छोटे से कमरे में हम चार-पांच लोग रहते थे। कुछ समय बाद मैं उस कमरे में अकेला बचा था। वो कमरा इतना छोटा था कि अगर हम चार-पांच लोग एक साथ सो जाएं, तो खोलते वक्त दरवाजा पैर से लग जाता था। कोई काम नहीं था जिससे कमाई हो सके, इसलिए तंगी भी थी।
शुरुआत में एक्टिंग करियर में पर्सनैलिटी को लेकर बहुत चैलेंज रहा। उस वक्त मैं 5 फीट 6 इंच का पतला-दुबला काला सा बंदा था। जिस ऑफिस काम मांगने के लिए जाता था, वहां पर लोग मुझे इसी लुक की वजह से खड़े नहीं होने देते थे। जब किसी को बताता था कि एक्टर हूं, तो मुझे लोग ऊपर से नीचे देखने लगते थे और कहते थे- यार, तू एक्टर बिल्कुल नहीं लगता। ये सिलसिला लगभग 10 साल तक चला।
करियर के इस संघर्ष भरे सफर में खाना नहीं मिलना भी किसी संघर्ष से कम नहीं था। थिएटर के बहुत सारे एक्टर्स से मेरी दोस्ती थी। जब खाने का जुगाड़ नहीं हो पा रहा था, तब अपने दोस्त के घर खाने के लिए चला जाता था, जिससे थोड़ा-बहुत काम चल जाता था। फिर 4-5 दिन बाद वो भी हाथ जोड़ कर मुझसे कह देता था- भाई, अब निकल लो।

एक दोस्त के घर से निकलने के बाद दूसरे दोस्त के पास चला जाता और इसी तरह से खाने का जुगाड़ हो जाता था। इस सफर में दोस्तों का बहुत सहारा रहा। हालांकि कई रातें बिना खाए भी गुजारी हैं।
इस दौरान मुझे बीमारियां बहुत कम हुईं। खाने के लाले जरूर पड़े, लेकिन कोई बीमारी नहीं हुई। दरअसल, मैं चलता बहुत था, कोई बीमारी आने वाली भी होती थी, तो वो भाग जाती थी। सड़क पर चलते-चलते इतना बेशर्म हो गया था कि ठंडी-गर्मी का असर ही नहीं पड़ता था। गोरेगांव से अंधेरी फिर बांद्रा, वहां तक पैदल ही चला जाता। इसी वजह से हेल्थ सही रहती थी। अगर कोई ऑडिशन के लिए हमें बांद्रा 10 बजे बुलाता था, तो घर से सुबह 7 बजे ही पैदल निकल जाता। पैदल जाने में 3 घंटे लग जाते थे।
दोस्त ने जवाब दिया- मेरे पास सिर्फ 100 रुपए हैं। अगर मैं तुम्हें 50 रूपए दे दूंगा, तब सिर्फ 50 रुपए ही बचेंगे। फिर उसके बाद मेरे लिए घर खर्च चलाना मुश्किल हो जाएगा।

दोस्त की ये बात सुनकर बहुत अफसोस हुआ, पर वो सच ही कह रहा था। मैं वापस जाने ही लगा कि उसने रोक दिया। वो एक दुकान पर गया, 100 रुपए के दो 50-50 के नोट लिए। एक नोट मुझे दिया और दूसरा अपने पास रख लिया। जिस दोस्त ने मेरी मदद की थी, वो आज उड़िया फिल्मों का सुपरस्टार है।
आज कल तो OTT पर भी काम मिल जाता है, लेकिन पहले संघर्ष ज्यादा था। पहले सिर्फ बड़ी फिल्में ही बनती थीं, जिनमें हमारे जैसी शक्ल वाले कलाकार को कास्ट नहीं किया जाता था। जब फिल्मों में बात नहीं बनी तो मैंने एक टीवी शो के लिए ऑडिशन दिया था, वहां भी मुझे शक्ल की वजह से रिजेक्ट कर दिया गया था।

इस रिजेक्शन की वजह से मुझे बहुत दुख पहुंचा था। वहां से निकलने के बाद पूरे रास्ते रोते हुए घर आया। किसी के सामने नहीं रोता था। अगर कोई रोता हुआ देख लेता, तब सिर घुमा कर एक्टिंग करने लगता, लेकिन वास्तव में रो रहा होता था। ना जाने कितनी बार मैंने अपने दर्द को ऐसे छुपाया है। इतना सब होने के बाद भी खुद को पॉजिटिव रखा।
फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर की रिलीज से पहले लोगों को नहीं पता था कि मैं कैसा एक्टर हूं। इस फिल्म से मुझे बहुत पॉपुलैरिटी मिली। इस फिल्म के बाद लोगों का नजरिया मेरे प्रति बदल गया। इस फिल्म में फैजल खान का किरदार प्ले करने के बाद कई फिल्म के ऑफर आए। काम के साथ इज्जत भी मिलने लगी। फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के बाद बाकी फिल्मों के लिए सही कैरेक्टर चुनने में मदद मिली।