निकाय चुनाव में अपना परचम फहराने के लिए सभी राजनीतिक दलों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। 10 महानगरों सहित कुल 37 जिलों में पहले चरण का मतदान 4 मई को और दूसरे चरण की वोटिंग 11 मई को होनी है। तारीख के करीब आते ही इससे जुड़े कई दिलचस्प किस्से-कहानियां याद आने लगती हैं।
ऐसा ही एक किस्सा है गोरखपुर का। जब यूपी में पहली बार एक किन्नर आशा देवी मेयर बन गईं। उस वक्त कई दिग्गज नेताओं की जमानत तक जब्त हो गई। तो चलिए पहले चरण के चुनाव से एक दिन पहले जानते हैं किन्नर मेयर आशा देवी की पूरी कहानी।
साल 1952. गोरखपुर के सामान्य परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। नाम रखा गया अमरनाथ यादव। अमरनाथ के चार बड़े भाई और तीन बड़ी बहनें थीं। सबसे छोटा होने की वजह से सारे भाई-बहन उस पर खूब प्यार लुटाते। सब साथ में मिलकर खेलते-कूदते। अपने छोटे भाई का पूरा ध्यान रखते।
कुछ साल बीते। धीरे-धीरे अमरनाथ का स्वभाव बदलने लगा। हाथ हिला-हिलाकर बात करता। उसे अपनी बहनों की तरह सजना-संवरना अच्छा लगने लगा। कभी मां की साड़ी पहनकर डांस करता, तो कभी बहनों की चूड़ियां चुराकर पहन लेता। कुछ वक्त तो परिवार ये सब नजर-अंदाज करता रहा।
…लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि पूरे परिवार के पैरों तले जमीन खिसक गई। परिवार को मालूम चला कि उनका सबसे छोटा बेटा लड़का नहीं, बल्कि एक किन्नर है। धीरे-धीरे सब रिश्तेदारों में भी यह बात फैल गई। लोगों ने अब अमरनाथ के घर आना-जाना बंद कर दिया। यह सब देखकर आखिर में परिवार ने तय किया कि वह अमरनाथ को किन्नर समाज को सौंप देंगे।
अमरनाथ के परिवार ने उन्हें किन्नर समाज को सौंप दिया। कुछ वक्त तो वह हर दिन रोता, अपने परिवार को याद करता। लेकिन धीरे-धीरे उस माहौल में ढलने लगा। यहां आने के बाद सबसे पहले अमरनाथ यादव का नाम बदलकर आशा देवी रख गया।
आशा ने अपने गुरु से ढोलक बजाना, ताली बजाना और नाचना-गाना सब सीख लिया था। अब वह घर-घर जाकर नाचती-गाती थीं। लोग जो नेग देते, उसी से अपना गुजर-बसर करतीं। अब यही सब आशा की दुनिया बन चुका था।
साल 2001. गोरखपुर में एक तरफ योगी आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी अपनी जमीन मजबूत करने में जुटी थी। ठाकुर वर्चस्व की राजनीति ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती देने में जुटी थी। दूसरी तरफ, शहर में मेयर चुनाव के जरिए राजनीति की एक नई पटकथा लिखी जा रही थी। इस साल जैसे ही मेयर चुनाव की घोषणा हुई शहर में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गईं।
इस वक्त आशा देवी 49 साल की थीं। इस बार चुनाव में गोरखपुर सीट महिला के लिए आरक्षित थी। इसलिए घोषणा होते ही आशा देवी ने इलेक्शन लड़ने का ऐलान कर दिया। लेकिन, वह एक किन्नर थीं। आशा देवी ने अपने दोस्त की मदद से चुनाव आयोग तक बात पहुंचाई और एक महिला के तौर पर चुनाव लड़ने की इजाजत मांगी। चुनाव आयोग ने उन्हें इजाजत दी और वो पर्चा भरकर मैदान में उतर गईं।
नामांकन तो हो गया पर अब सबसे बड़ी समस्या थी कि चुनाव में होने वाले ख़र्चों को कैसे मैनेज किया जाए? इसके लिए आशा देवी को बाग्ची नर्सिंग होम के संचालक डॉ. अलुकेश बाग्ची का साथ मिला। आशा देवी ने डॉक्टर बाग्ची से 10 हजार रुपए का कर्ज लेकर उम्मीदवारी के लिए जमानत की रकम जमा कर दी।
यह एक ऐसा वक्त था, जब जनता सभी राजनीतिक पार्टियों से काम से नाखुश थी। इसलिए कुछ लोगों ने गुट बनाकर राजनीतिक दलों का विरोध करना शुरू किया। इसी विरोध के चलते सभी दलों को जवाब देने के लिए मेयर के चुनाव में किन्नर आशा देवी का नामांकन किया गया।
आशा देवी के मैदान में आने तक किसी को यह एहसास नहीं था कि वह लड़ाई में रहेंगी। खुद चुनाव लड़ाने का सुझाव देने वालों तक को नहीं। लेकिन, कब मजाक में शुरू हुआ ये नामांकन परिवर्तन की निशानी बन गया, यह किसी को पता नहीं चला।
आशा देवी जब निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव में उतरीं, तो उनकी रैलियों में काफी भीड़ जुटने लगी। अब आशा गोरखपुर की पहचान के रूप में उभरने लगी थीं। जिस तरफ आशा देवी जाती, उनके पीछे सैकड़ों लोगों का हुजूम चल पड़ता। सियासी जानकारों ने कहा कि ये भीड़ वोट में नहीं बदलेगी, लेकिन नतीजों में वे सब गलत साबित हुए।
आशा देवी के चुनाव के मैदान में उतरने के बाद उनके प्रचार की पूरी कमान मध्यप्रदेश की विधायक किन्नर शबनम मौसी ने संभाली। चुनाव प्रचार के वक्त कई दिनों तक शबनम ने गोरखपुर में ही अपना डेरा डाल लिया था। वो यहीं से कई जगह सभाओं में जातीं और आशा देवी को वोट करने की अपील करतीं। साथ में किन्नर समझ के कई लोगों ने भी आशा का समर्थन किया। आशा देवी को चूड़ी चुनाव चिन्ह मिला था। चुनाव हुआ। अब इंतजार था, तो बस नतीजों का।
चुनावी मैदान में भाजपा समेत कांग्रेस, बसपा और सपा के प्रत्याशी भी मौजूद थे। सबसे हैरान कर देने वाली बात तो यह हुई कि जब चुनाव परिणाम आया तो सपा की अंजू चौधरी को 44,545 वोट मिले। भाजपा की विद्यावती को 29,545 वोट, जबकि आशा देवी को 1,09849 वोट मिले। आशा चुनाव जीत गईं और 60% से ज्यादा वोट पाकर गोरखपुर की पहली किन्नर मेयर बन गईं। वहीं सपा के अलावा बाकी सबकी जमानत जब्त हो गई।
आशा देवी चुनाव जीतने के बाद जब पहली बार नगर निगम आईं, तो सभी को लगा एक लालबत्ती वाली गाड़ी ऑफिस के सामने आकर रुकेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आशा एक रिक्शे से नगर निगम पहुंचीं। यह देखकर सब हैरान रह गए। दरअसल, मेयर बनने से पहले आशा ने वादा किया था कि वह हमेशा गरीब और समाज के उपेक्षित वर्गों के साथ हमेशा खड़ी रहेंगी। इसलिए उन्होंने गाड़ी से नहीं, बल्कि रिक्शे से चलना ठीक समझा। बाद में भी वो रिक्शे पर ही लालबत्ती लगाकर हर जगह जाने लगीं।
दो साल तक आशा देवी का राजनीतिक सफर अच्छा चलता रहा। आस-पास के लोग भी उनके काम से संतुष्ट थे। लेकिन, साल 2003 में उन्हें लीगल वजहों से मेयर के पद से हटा दिया गया। ऐसा कहा गया कि ये सीट महिला के लिए रिजर्व है और वो एक लड़के के रूप में पैदा हुई थीं।
इन सबके बाद आशा राजनीति के दाव-पेंच से परेशान हो चुकी थीं। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर बयान दिया, “राजनीति की गंदगी में रहने से तो अच्छा था कि मैं किन्नर के रूप में ढोलक बजाती रहती।”
आशा देवी की मौत के बाद साल 2021 में किन्नर समाज के लोग उनके आवास पर गए। मकान के द्वार पर चांदी का बंदनवार लगाया। उनकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ाकर श्रद्धा सुमन अर्पित किया।
अपना कार्यकाल खत्म होने के बाद आशा देवी ने राजनीति से दूरी बना ली। उनको गुर्दे की बीमारी भी थी, जिसके चलते साल 2013 में अचानक उनका निधन हो गया।