मिर्जापुर-2 के दद्दा त्यागी तो आपको याद होंगे ही। जिनका कद छोटा था, लेकिन काम बड़ा। ये यादगार रोल निभाया था एक्टर-राइटर लिलिपुट ने। बौनेपन से पीड़ित लिलिपुट ने पिछले 4 दशकों में टीवी और फिल्मों के जरिए अपनी खास पहचान बनाई है। टीवी के सबसे फेमस सीरियल्स में से एक देख भाई देख इन्होंने लिखा था। उसमें एक्टिंग भी की। लिलिपुट का असली नाम मिसबाहुद्दीन फारूकी है। कद है महज 4.7 फीट। छोटे कद के कारण इन्होंने गुलिवर इन दी लैंड ऑफ लिलिपुट कॉमिक्स से अपना नाम लिलिपुट रख लिया।
लिलिपुट बॉलीवुड के ऐसे कलाकार हैं जिनका स्ट्रगल इंडस्ट्री में 40 साल से ज्यादा समय गुजार लेने के बाद भी जारी है। दद्दा त्यागी के रोल में खूब जंचे और मिर्जापुर के तीसरे सीजन में और बड़ी भूमिका में दिखेंगे, लेकिन इसके अलावा उन्हें कभी बड़े रोल नहीं मिले। जहां बड़े रोल मिले, वहां किस्मत खराब निकली। अमिताभ बच्चन के साथ 2 फिल्में साइन की थीं, लेकिन वो नहीं बन पाईं।
ये संघर्ष इतना ही नहीं, इससे पहले से शुरू होता है। अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्हें सबसे ज्यादा फीस मिर्जापुर के दद्दा त्यादी बनने के लिए ही मिली है, वो भी 50 हजार रुपए रोज। इससे पहले 5-10 हजार रुपए ही रोज मिला करते थे। उन्होंने वो दिन भी देखे कि जब छोटी सी बात पर मालिक ने घर से निकाल दिया। 14 दिन भूखे पेट गुजारे, एक दोस्त ने ग्लूकोज पिलाकर जान बचाई।बचपन में मेरा नाम मिसबाहउद्दीन फारूकी था। मेरे पिता इमाम होते हुए (नमाज पढ़ाते थे) भी बहुत मॉडर्न दिमाग के थे। वो कट्टरपंथी नहीं थे। हम तीन भाई और एक बहन हैं। जब होश संभाला और 10 की उम्र पार की, तब मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों से अलग हूं। मैं बौना था, जब घर से बाहर निकलता था, तब मेरे पीछे बच्चों और लोगों की भीड़ लग जाती थी। बचपन में इस चीज से बहुत दुख होता था।
जिधर निकलता था, बच्चे मुझे चिढ़ाते थे इसलिए मैं कहीं ज्यादा जाता नहीं था। डर लगता था कि अगर बाहर जाऊंगा तो कोई पत्थर मार देगा या कोई सिर पर चपत लगाएगा। कोई मेरा साथ नहीं देता था। कभी-कभार बड़े लोग उन बच्चों को डांट देते थे।
स्कूल में हमारी एक संस्था थी, जिसके तहत सरस्वती पूजा के दिन मैं नाटक में भाग लेता था। मुझे नाटक में काम करते देखने के बाद लोगों में परिवर्तन आया कि यह कलाकार है, लेकिन ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद सोचने लगा कि आखिर मैं जिंदगी में करूंगा क्या?
मेरे एक मित्र थे, जो अर्जुन हिंगोरानी के यहां चीफ असिस्टेंट थे। इत्तफाक से एक दिन रास्ते में उनसे मुलाकात हो गई। वो बोले कि आप इतने अच्छे कलाकार हैं। आप यहां अपनी लाइफ क्यों वेस्ट कर रहे हैं, आप मुंबई आ जाइए। हम लोग बहुत गरीब थे। मेरे पिता की सैलरी 25-30 रुपए प्रतिमाह थी। पिताजी के लिए परिवार पालना मुश्किल था।
हालांकि स्कूल में हमारी फीस लगती नहीं थी। मेरे आजा जी (दादाजी) जमींदार थे। उनकी कुछ जमीन और बाग थे। पिताजी हर साल गांव जाते थे और कुछ जमीन बेचकर आ जाते थे। जो रकम मिलती थी, उससे साल भर का खर्च चलाते थे। कभी-कभी ऐसा भी वक्त आता था कि हम लोगों को एक-दो दिन भूखे भी रहना पड़ा। मेरे बड़े भाई इंजीनियर बन गए, तब घर की स्थिति थोड़ी सुधरी। दुख की बात यह है कि भाई एक-दो सैलरी पिताजी ने देखी होगी, उसके बाद तो उन्हें हार्टअटैक आया और वे दुनिया छोड़कर चले गए।
कैप्शन- लिलिपुट ने गुलिवर इन दी लैंड ऑफ लिलिपुट एक कहानी पढ़ी थी, वहीं से उन्हें लिलिपुट शब्द मिला था। लिलिपुट का मतलब होता है- छोटा।
पिताजी के निधन के एक महीने बाद मैं 31 दिसंबर 1975 को मुंबई आ गया। गांव में मेरा एक दोस्त था- सुबोध। उसे जब पता चला कि मुझे मुंबई में काम करने का ऑफर मिला है, तब उसने 150 रुपए दिया। कहा- जाओ टिकट कटवा कर मुंबई निकल लो। मैं रेलवे स्टेशन पर सीट रिजर्वेशन करवाने पहुंचा, तब वहां पर अपना नाम लिलिपुट लिखवाया।
दादर, मुंबई स्टेशन पर मुझे रिसीव करने अशोक नारायण आए, जिन्होंने मुझे बुलाया था। मिलते ही पूछने लगे कि तुम्हें मेरा पोस्टकार्ड नहीं मिला! मैंने कहा- नहीं, क्यों? उन्होंने बताया- ‘मैं ऑफिस लेट पहुंचा था, इसी वजह से मेरी नौकरी चली गई है।’ ये सुनकर मैं सन्न रह गया क्योंकि मैं इन्हीं के भरोसे मुंबई आया था।
मुंबई से वापस घर जाने में बहुत बड़ी बेइज्जती होती। मैंने कहा कि चलो कुछ भी हो, पर यहीं रहेंगे। कुछ दिन अशोक नारायण ने मदद की, फिर प्ले में काम मिला। उस प्ले के प्रोड्यूसर दीनदयाल शर्मा होर्डिंग लगाने का कांट्रैक्ट लेते थे, वहां भी मैंने नौकरी कर ली। यहां मेरा काम यह था कि जगह-जगह से लोहे का पतरा उठाकर रंजीत स्टूडियो लाना पड़ता था। कहीं होर्डिंग बोर्ड लगाने के लिए जाना होता था, तब वहां पहुंचकर गड्ढा खोदना पड़ता था, लेकिन उन्होंने मुझे पगार कभी नहीं दी, जबकि 1500 रुपए प्रतिमाह देने का वादा किया था।
मैं दीनदयाल शर्मा के यहां चेंबूर में रहता था। वहां इसलिए रहता था क्योंकि वो चाहते थे कि मैं उनके लिए फिल्म लिखूं। वजह ये थी कि मैंने जो नाटक किया था, उसमें मेरा सीन नहीं था। डायरेक्टर ने बोला था- तुम अपना सीन खुद लिखो। मैंने अपना सीन खुद लिखा था। ड्रामा वाहियात था, पर मेरा सीन ठीक चला। वहां से उनको लगा कि यह लिखता है। मेरे पहले नाटक पर फिल्म भी बनी, पर मुझे पता नहीं चला।
मैंने दूसरी कहानी लिखी, लेकिन वो भी बेकार गई। दरअसल, कहानी लिखता था, तब दोस्तों को सुनाने की आदत थी। बिहार के दोस्त सत्यभान सिन्हा को कहानी बहुत अच्छी लगी। वो बोले- ‘लिलि! मैं तेरी कहानी बिकवा दूंगा।’ मुझे पैसे की बहुत जरूरत थी, तो मैंने भी हामी भर जी। इधर दीनदयाल के यहां तीन-चार महीना हो गए। वो मुझे पगार-पैसे नहीं दे रहे थे।
दीनदयाल यह कहकर बाहर चले गए कि दो-तीन दिन बाद आऊंगा। लेकिन तीन दिन बाद भी नहीं आए। खाने का राशन खत्म हो गया और कुछ पैसा भी नहीं था। इस वजह से भूखे रहने लगे। कमजोरी की वजह से बुखार भी हो गया। बिना खाए मैं 14 दिन रहा। 14वें दिन तबीयत और ज्यादा बिगड़ने लगी। मुझे लगा कि अब मामला ठीक नहीं है। मैं बाजू वाले के यहां से दो-पांच रुपए लेकर अपने दोस्त के घर खार चला गया। उन्होंने जैसे ही दरवाजा खोला, मैं धप्प से नीचे गिर गया। इसके बाद उन्होंने ग्लूकोज पिलाया, सेब दिया और उसके बाद खाना खिलाया। इसके बाद मैं जैसे-तैसे वापस आ गया।
मैं घर चेंबूर लौटा तो इधर दीनदयाल सिन्हा भी वापस आ गए। उन्होंने आते ही बोला- आप गद्दार हैं। आप मेरे घर से निकल जाइए। आप हमारे लिए कहानी लिख रहे हैं और दूसरों को सुनाकर बेच रहे हैं। मैंने बताया कि वो मेरे दोस्त ने कहा था कि कहानी बिकवा देंगे।
उन्होंने कहा- नहीं, नहीं। आप निकल जाइए। रात की बारिश में उन्होंने घर से निकाल दिया। फिर मैं अपने दोस्त के घर चला गया जो रेलवे क्वार्टर में रहता था। जिस दोस्त के घर रहता था वहां पर उसके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगा जिससे रहने और खाने का इंतजाम हो गया।
इस दौरान मेरी एक दोस्त थीं, जो साथ में प्ले करती थीं। जब उन्हें मेरी हालत के बारे में जानकारी हुई तो उन्होंने 25 रुपए दिए और कहा- इससे आने-जाने का पास बनवा लो। खाना तो हम साथ में ही खा लेंगे। इस तरह खार रेलवे स्टेशन से पृथ्वी थिएटर, जुहू प्ले में रिहर्सल करने जाने लगा।
इस दौरान मेरी मुलाकात ओम कटारिया से हुई। उन्हें कला की अच्छी-भली परख है। उन्होंने नाटक ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खां’ में मुझे जुग्गल धोबी का रोल ऑफर किया। जुग्गल धोबी ने मुझे एक रात में ही स्टार बना दिया। थिएटर ग्रुप में मेरा बड़ा नाम हो गया। मेरे नाम पर टिकट बिकने लगी। यह सिलसिला 1975 से लेकर 1984 तक चलता रहा।
जुग्गल धोबी के किरदार में फेमस होने जाने के बाद भी लिलिपुट कभी थिएटर, फुटपाथ, बस स्टॉप, रेलवे प्लेटफॉर्म तो कभी किसी दोस्त के घर सोकर गुजारा करते थे।बात 1982-1983 की है। मैं आत्माराम के साथ एक फिल्म लिख रहा था। उन्होंने अपने स्टूडियो में मुझे रहने के लिए एक रूम दे दिया था। यहीं पर आनंद महेंद्रू से मुलाकात हुई। वो जीआईसी की एक कॉर्पोरेट डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे। उसमें उन्होंने एक रोल ऑफर किया जिसमें मैंने काम किया। वहां से उनसे मेरी दोस्ती हो गई। इसके बाद मैंने उनके सीरियल ‘इधर उधर’ की स्क्रिप्ट राइटिंग की। उसमें एक रोल भी प्ले किया। उसके बाद मैंने ‘इसी बहाने’, ‘इंद्र धनुष’, ‘देख भाई देख’ सीरियल लिखा। इसके बाद राजीव मेहरा की फिल्म ‘चमत्कार’ मिल गई।
यहां से मेहनताना मिलना शुरू हो गया था, लेकिन इतना नहीं मिलता था कि स्टार जैसा रहूं। पैदल ही आना-जाना होता था। ‘देख भाई देख’ के समय गाड़ी खरीदी और हाउसिंग बोर्ड से पत्नी के नाम दहिसर (मुंबई) में मकान मिल गया, लेकिन समय- समय पर काम नहीं मिलता था जिस वजह से घर का इन्स्टॉलमेंट भरने में दिक्कत होती थी। इसी वजह से उसे बेचकर वापस भाड़े के घर में रहने लग गया। मेरी पत्नी हिसाब-किताब से चलने वाली थी। उन्होंने बड़े सूझबूझ से काम लिया। थोड़ा-थोड़ा करके पैसा जमा करके फिर न्यू डीएन नगर में अपना मकान लिया।
इस फोटो में लिलिपुट अपनी दो बेटियों के साथ हैं। लिलिपुट ने लव मैरिज की थी। उनकी दो बेटियां हैं। हालांकि कुछ समय बाद वो और उनकी पत्नी अलग हो गए जिसके बाद से बेटियां अपनी मां के साथ रहती हैं।
यह खबर बिल्कुल गलत है कि मैं बेटी के साथ रहता हूं। मेरी बड़ी बेटी का नाम ईशा है। वह इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में जॉब कर रही है। छोटी बेटी मॉडलिंग करती है। अभी बेटियों की शादी कहां हुई है, जो उनके साथ रहूंगा। पता नहीं ऐसी झूठी खबर कौन छाप देता है। यह भी गलत खबर है कि मैंने अपने दोस्तों से उधार ले रखा है। उधार कौन नहीं लेता है। कुछ दिन के लिए लेता है और चुकता कर देता है।
हमारा एक प्ले था- ‘दंगा’, जिसे ज्ञानदेव अग्निहोत्री ने लिखा था। इसे देखने सुभाष घई आए थे। वो ‘दंगा’ देखकर बहुत इम्प्रेस हुए और मुझे मिलने के लिए रुके रहे। मेरी मुलाकात हुई उनसे और वो पूछने लगे- कब से काम कर रहे हैं। मैंने बताया कि चार-पांच साल हो गए। वो कहने लगे कि एक्सपीरियंस दिखता है। इतना कहकर वो चले गए।
एक दिन उनके ऑफिस से फोन आया और उन्होंने मिलने को बुलाया। सुभाष घई के ऑफिस जाकर उनसे मुलाकात की। सुभाष घई बोले- सुना है, काफी बिजी हो। मैंने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है। बस कुछ फिल्में कर रहा हूं। उन्होंने कहा कि तुम्हें सारी फिल्में छोड़नी पड़ेगी, क्योंकि मैं नहीं चाहता हूं कि मेरी फिल्म से पहले तुम्हारी कोई इमेज बने। मैंने पूछा कि फिल्म क्या है।
उन्होंने बताया- एक फिल्म बना रहा हूं- ‘शेर बहादुर’। इसके हीरो अमिताभ बच्चन हैं और इसके विलेन हैं- लिलिपुट। लेकिन आपको सारी फिल्में छोड़नी पड़ेंगी। मैंने कहा कि मेरी इतनी औकात नहीं है कि जिन बड़े लोगों की फिल्म शूट कर चुका हूं, उनके पास जाकर बोलूं कि जाओ तुम्हारी फिल्म नहीं करता हूं। हां, जिनकी फिल्म शुरू नहीं हुई है, उन्हें टाल सकता हूं। उन्होंने कहा- ठीक है। मैं आगे संभाल लूंगा। उनकी तरफ से ऑफर था कि एक फ्लैट मिलेगा, एक गाड़ी मिलेगी और कुछ पांच-दस हजार रुपया सैलरी मिलेगी, पर मिला कुछ भी नहीं। बात ही चलती रह गई। यह 1985 की बात है।
दरअसल, ‘कुली’ में अमिताभ बच्चन का एक्सीडेंट होने के बाद उन्हें एक बीमारी हो गई थी। वे डायलॉग बोलते-बोलते अटक जाते थे, इसलिए वो फिल्म साइन नहीं की। फिर तो इधर मुझे जो पिक्चर मिली थी, वह भी हाथ से चली गई। साल 1985 में ही हबीब नाडियादवाला की फिल्म ‘आलीशान’ मिली। इसमें भी अमिताभ बच्चन हीरो और मैं पैरलर रोल में था। इसकी 10 दिन शूटिंग भी हुई, पर यह भी बिजनेस की वजह से टल गई।दद्दा त्यागी का रोल किस्मत से आया है। मुझे तो मालूम ही नहीं था कि ‘मिर्जापुर’ नाम की सीरीज बन रही है। एक दिन मेरे पास काॅल आया और मुझे मिलने के लिए बुलाया गया। सेट पर जैसे ही पहुंचा, मेरे कॉस्ट्यूम के लिए माप ले ली गई। फिर बताया गया कि आपको दद्दा त्यागी का रोल ऑफर हुआ है। फीस के बारे में भी कोई बात नहीं हुई। जब शूटिंग शुरू हुई, तब पता चला कि मेरा रोल क्या है। जब मैं शूटिंग कर रहा था, तब मुझे भी पता नहीं था कि दद्दा त्यागी का रोल इतना हिट हो जाएगा। इस रोल के लिए मैंने 4 दिन शूटिंग की थी, जिसके लिए पेमेंट अच्छा ही किया।
आज तक किसी बड़े प्रोड्यूसर, बड़े डायरेक्टर, बड़े राइटर ने मुझे घास नहीं डाली है। मीडिया ने भी हमें कभी वैल्यू नहीं दी। ‘मिर्जापुर’ में मेरा दद्दा त्यागी का किरदार काफी सराहा गया, पर अब तक इंडस्ट्री के एक आदमी ने भी मुझे नहीं पूछा। ‘मिर्जापुर-3’ शूट कर लिया है। अब एडिट वगैरह हो रहा होगा। इस बार लंबा रोल है। सीन ज्यादा है। अब देखते हैं, क्या होगा। एक दो और शाॅर्ट फिल्में हैं, जिनकी शूटिंग मैं अभी कर रहा हूं।