73 साल के बेंजामिन नेतन्याहू इजराइल के नए प्रधानमंत्री बन गए हैं। देश में ‘बीबी’ के नाम से मशहूर नेतन्याहू ने गुरुवार रात पद और गोपनीयता की शपथ ली। नेतन्याहू की लीडरशिप में छह दलों की यह गठबंधन सरकार देश के इतिहास में अब तक की सबसे कट्टरपंथी सरकार है। आशंका जताई जा रही है कि फिलिस्तीन से संघर्ष बढ़ेगा।
इजराइली संसद को नीसेट कहा जाता है। गुरुवार को संसद के अंदर और बाहर माहौल काफी गर्म नजर आया। छठवीं बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते वक्त नेतन्याहू को नारेबाजी का सामना करना पड़ा। संसद के बाहर भी उनके विरोधियों ने बैनर पोस्टर लेकर विरोध प्रदर्शन किया।
सादा सी दिखने वाली इस तस्वीर का कहानी दिलचस्प है। दरअसल, शपथ लेने के बाद जब नेतन्याहू ऑफिस पहुंचे तो टेबल पर उन्हें हिब्रू में लिखा यह पेपर नोट मिला। यह नोट पूर्व PM येर लैपिड छोड़कर गए। इस पर ‘लैपिड 2024’ लिखा था। माजरा कुछ यूं है कि नेतन्याहू ने पिछली बार जब इस्तीफा देकर सरकार छोड़ी थी तो वो तब के नए प्रधानमंत्री लैपिड के लिए एक नोट छोड़कर गए थे। उस पर लिखा था- मैं बहुत जल्द वापसी करूंगा। अब लैपिड ने दावा किया है कि वो 2024 में फिर इजराइल के प्रधानमंत्री बनेंगे।
इजराइल की सियासत में सरकारें बदलना नई बात नहीं है। गुरुवार को जब नेतन्याहू ने शपथ ली और इसके बाद अपनी सीट की तरफ जाने लगे तो पूर्व प्रधानमंत्री येर लैपिड ने उनसे हाथ मिलाना भी मुनासिब नहीं समझा। लैपिड संसद से बाहर निकल गए। इसके बाद बाकी मंत्रियों ने शपथ ली।
1948 में अलग देश का दर्जा पाने वाले इजराइल में यह 37वीं सरकार है। करीब 75 साल के संसदीय इतिहास में अब तक किसी पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं बनाई है।
इजराइली संसद में कुल 120 सीटें हैं। नेतन्याहू के गठबंधन के पास 63 सीटें हैं। उनकी लिकुड पार्टी के पास सबसे ज्यादा सीटें हैं। इजराइली मीडिया के मुताबिक- नेतन्याहू के लिए इस सरकार को चलाना बेहद मुश्किल साबित हो सकता है। इसकी वजह यह है कि उन्हें हर कदम पर सहयोगी पार्टियों से मदद लेनी होगी और ये सभी फिलिस्तीन और अरब विरोधी हैं।
नेतन्याहू को वर्ल्ड पॉलिटिक्स और डिप्लोमैसी भी देखनी है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि वो देश की सियासत और वर्ल्ड डिप्लोमैसी के बीच बैलेंस कैसे बनाकर चलते हैं।गठबंधन सरकार में शामिल दूसरी पार्टियां वेस्ट बैंक या पश्चिमी किनारे से फिलिस्तीनियों की बस्तियां मिलिट्री की मदद से हटाना चाहती हैं। इससे संघर्ष और बढ़ेगा। एक बहुत बड़ा खतरा फिलिस्तीन के आतंकी संगठन हमास के हमलों का भी है। इसे ईरान से खुली मदद मिलती है और यह अकसर इजराइल में रॉकेट हमले करता रहता है।
हमास के हमलों से इजराइल में ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं होता, क्योंकि उसका एयर डिफेंस सिस्टम इन रॉकेट को देश की सीमा में घुसने से पहले ही मार गिराता है। बहरहाल, इसके बावजूद हमास के लोग यहां किसी न किसी रूप में हमले तो करते ही रहते हैं।
नेतन्याहू को संसद में बहुमत खोने की वजह से पिछले साल इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद 1 नवंबर को चुनाव हुए और नेतन्याहू की लिकुड पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। हालांकि, उसके पास 61 का जादुई आंकड़ा नहीं था। लिहाजा 6 दलों का समर्थन हासिल किया।
लिकुड पार्टी के चीफ नेतन्याहू कुल 15 साल प्रधानमंत्री रह चुके हैं। यह उनका 6th टर्म होगा। इजराइली सियासत में अब तक कोई नेता इतने लंबे वक्त तक सत्ता के शिखर पर नहीं रह सका है।
जून 2021 में इजराइल में सत्ता बदली थी, तब राम पार्टी (Ra’am Party) पहली अरब पार्टी थी, जो किसी इजराइली सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बनी। कट्टरवादी नफ्ताली बेनेट और फिर बाद में लिबरल येर लैपिड इस सरकार के प्रधानमंत्री थे। ये गठबंधन बहुत लंबा नहीं चल सका। शिक्षा और रोजगार में अरबों को बराबरी का मौका देने के वादे पूरे नहीं हो पाए।
इजराइली चुनावों में तीन प्रमुख अरब दल भी हिस्सा लेते हैं। ये हैं हादाश ताल, राम (यूनाइटेड अरब लिस्ट) और बालाड। इस बार अरब दलों में फूट भी पड़ गई है। सितंबर में उम्मीदवारों के नाम घोषित करने की समय सीमा खत्म होने से ठीक पहले बालाड ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था। यह इलेक्शन में कुछ खास नहीं कर पाई।
इजराइल की संसद में कुल 120 सीटें हैं। बहुमत के लिए 61 सीटें चाहिए। देश में मल्टी पार्टी सिस्टम है और छोटी पार्टियां भी कुछ सीटें जीत जाती हैं। इसी वजह से किसी एक पार्टी को बहुमत पाना आसान नहीं होता। लिहाजा, अकसर प्री या पोस्ट पोल अलायंस होते हैं। इसके बावजूद सरकारें चल नहीं पातीं, क्योंकि सियासी हालात काफी मुश्किल हैं। कई मुद्दों पर पार्टियों में मतभेद बने रहते हैं।
भारत के लिए नेतन्याहू सरकार अच्छी खबर है क्योंकि नेतन्याहू प्रधानमंत्री मोदी को अपना सबसे अच्छा दोस्त बताते रहे हैं और इलेक्शन कैंपेन में उन्होंने भारत-इजराइल रिश्तों और मोदी का कई बार जिक्र भी किया था।
नेतन्याहू के सत्ता में आने से भारत और गल्फ नेशन्स को फायदा हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी और नेतन्याहू की दोस्ती मशहूर है। नेतन्याहू जब सत्ता में नहीं थे, तब भी दोनों नेता सोशल मीडिया या फोन के जरिए संपर्क में रहते थे।
डोनाल्ड ट्रम्प के दौर में इजराइल और अरब देशों के बीच ‘अब्राहम अकॉर्ड’ साइन हुआ था। UAE समेत चार मुस्लिम देशों ने इजराइल से डिप्लोमैटिक रिलेशन शुरू किए थे। माना जा रहा है कि अब सऊदी अरब भी बहुत जल्द इजराइल को बतौर राष्ट्र मान्यता दे सकता है। अमेरिका भी उस पर दबाव डालेगा। ईरान के मुद्दे पर ये सभी देश हमलावर रुख जारी रखेंगे।
नेतन्याहू उतने कट्टरपंथी नेता नहीं माने जाते, जितने इस बार उनके अलायंस में शामिल लीडर हैं। लिहाजा, फिलिस्तीन का मसला फिर तनाव बढ़ा सकता है। ये तमाम नेता ज्यूडिशियल सिस्टम को यहूदियों के हिसाब से बेहतर बनाना चाहते हैं। इसके अलावा फिलिस्तीन पर सख्त पाबंदियों की बात करते हैं। फिलिस्तीन को वेस्ट बैंक यानी पश्चिमी छोर से खदेड़ना चाहते हैं। जाहिर है ये सभी मुद्दे हमास जैसे आतंकी संगठन से तनाव बढ़ाएंगे और जंग का खतरा बढ़ेगा। ईरान तो हमास और फिलिस्तीन को हथियारों समेत हर तरह की मदद देता आया है।