राहुल गांधी जो कुछ भी करने जाते हैं, कुछ उल्टा ही हो जाता है। अब ये समय का फेर है या किस्मत का, ये तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हो ऐसा ही रहा है। गुरुवार की घटना ही ले लीजिए। उनकी भारत जोड़ो यात्रा महाराष्ट्र के वाशिम में थी। मंच पर भाषण से पहले उन्होंने घोषणा की- अब राष्ट्रगीत बजेगा, लेकिन हुआ उल्टा। नेपाल का राष्ट्रगान बजने लगा। हालाँकि उन्होंने खुद ही इसे तुरंत रुकवा दिया।
सवाल उठता है कि उनके साथ ही ये क्यों होता है? क्या उनकी पार्टी के नेता या कार्यकर्ता ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेते? या वे खुद ही सावधानी नहीं बरतते। कुछ भी करने से पहले उसे ठोक-बजा कर नहीं देख पाते? अब भाजपा की सोशल मीडिया टीम तो उनके पीछे लगी ही रहती है। थोड़ी सी भी गलती हुई कि वायरल होने लगती है जैसे नेपाली राष्ट्रगान का ये वीडियो वायरल हो रहा है।
उधर राजस्थान में कांग्रेस का बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। अजय माकन के इस्तीफ़े के बाद पायलट ख़ेमे के विधायक ज़्यादा मुखर हो गए हैं। भाई लोग मान ही नहीं रहे। कह रहे हैं कि राहुल गांधी की यात्रा राजस्थान पहुँचे, इसके पहले नेता पद की बात जो पेंडिंग पड़ी है, उसका निदान होना चाहिए। उनके कहने का मतलब यह है कि फिर दो पर्यवेक्षक राजस्थान आएँ और विधायकों से एक-एक करके राय लें कि वे मुख्यमंत्री पद पर किसे देखना चाहते हैं! पायलट को या अशोक गहलोत को?
हालाँकि होना-जाना कुछ नहीं है। गहलोत ख़ेमे ने चुप्पी ज़रूर साध रखी है, लेकिन उन्होंने कोई कच्ची गोलियाँ तो खेली नहीं हैं। पर्यवेक्षक आएँ या कोई और, गहलोत को उनसे निबटना अच्छी तरह से आता है। सवाल यह है कि खुद सचिन पायलट अपने विधायकों को इस तरह की बयानबाज़ी से रोक क्यों नहीं रहे? और नहीं भी रोक रहे हैं तो इससे राजनीतिक परिपक्वता किसकी दिखाई दे रही है?
पार्टी लाइन तो कहती है कि समस्या सामने खड़ी हुई है, जो हाईकमान को करना हो, सो करे। आपके साथ तब कोई अन्याय हो तो फिर बोलिए। बेवक्त ढोल पीटने और पीटते रहने से क्या होगा? वैसे कांग्रेस में यह सब चलता रहता है और कांग्रेसी, अब आम आदमी की समस्याओं के लिए सड़क पर आने की बजाय गुटीय राजनीति करने के लिए सड़क पर आना ज़्यादा पसंद करते हैं। ये ऐसा वक्त है जब राजस्थान भाजपा पहली बार बिखरी हुई नज़र आ रही है।
ऐसे वक्त में भाजपा की कमजोरी का फ़ायदा उठाकर दोबारा सत्ता में आने की जी-जान से तैयारी करने की बजाय आपस में लड़ते रहना कौन सी समझदारी है, समझ में नहीं आता। उधर नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पुराने प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की तरह मौन साधे बैठे हैं। उन्हें लगता है मौन ही सबसे बड़ा समाधान है। समय खुद ही समस्या का हल निकाल लेगा।