सीमा अपने पति और दो बच्चों के साथ दिल्ली के एक इंडस्ट्रियल एरिया से सटी झुग्गी में रहती थी। पति के साथ एक फैक्ट्री में काम करती थी। 2020 के कोरोना लॉकडाउन ने पूरे परिवार को गांव लौटने पर मजबूर कर दिया। पिछले साल पति तो काम पर दिल्ली लौट गया, मगर अनिश्चितताओं के डर ने सीमा के कदम रोक दिए। यह नुकसान सिर्फ सीमा या उसके परिवार का नहीं… पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था का था।
दरअसल, कोरोनाकाल में भारतीय वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी घटकर 19% रह गई। अनुमान है कि 2022 में यह हिस्सेदारी महज 9% रह गई है। वैसे भी महिलाओं की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी 2005 से लगातार घटी ही है। 2005 में महिलाओं की हिस्सेदारी सर्वाधिक 32% थी। अब ग्लोबल अकाउंटिंग फर्म केपीएमजी का आकलन है कि वर्कफोर्स का यही जेंडर गैप हमारी तरक्की की चाबी है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान है कि भारत 5 ट्रिलियन डॉलर जीडीपी का सपना 2026-27 तक पूरा कर सकता है। केपीएमजी की स्टडी कहती है कि अगर भारत अपने वर्कफोर्स में बने जेंडर गैप को घटा ले तो 2026 तक जीडीपी अनुमान से भी 25% ज्यादा यानी 7 ट्रिलियन डॉलर से भी ज्यादा हो सकती है।
यह जेंडर गैप पूरी तरह पाटने के लिए 6.8 करोड़ महिलाओं को रोजगार से जोड़ना होगा। बढ़ती बेरोजगारी दर के सामने यह काम असंभव सा लगता जरूर है, मगर हमारे सामने पड़ोसी बांग्लादेश का उदाहरण भी है। महिलाओं के लेबर फोर्स में हिस्सेदारी के मामले में बांग्लादेश हमसे कहीं आगे है। यह बदलाव उसकी अर्थव्यवस्था के आंकड़ों में भी झलकता है। 18 वर्षों में उसकी जीडीपी करीब 600% बढ़ी है और वर्ल्ड बैंक भी मानता है कि इसकी बड़ी वजह वहां महिलाओं की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी बढ़ना है।