जून, 1967 में कैलिफोर्निया के मोंटेरे में काउंटी फेयर ग्राउंड पर हजारों लोग एकत्र हुए थे। मंच पर सितार वादक पंडित रविशंकर दर्शकों के सामने भीमपलासी राग बजा रहे थे। यह वार्षिक मोंटेरे पाप फेस्टिवल का तीसरा और अंतिम दिन था। अंग्रेजी राक लीजेंड द हू, महान अमेरिकी गिटार वादक जिमी हेंड्रिक्स और अमेरिकी राक बैंड द ग्रेटफुल डेड को उसके बाद परफॉर्म करना था। संगीत कार्यक्रम के अंत में झाला राग बज रहा था उसी दौरान पंडित रविशंकर ने अपने दाएं ओर संगत कर रहे तबला वादक उस्ताद अल्ला रक्खा कुरैशी की ओर देखा। फिर उन्होंने अपना राग बंद कर दिया ताकि अल्लाह रक्खा के तबले से उठ रही ताल की आवाज पूरे मैदान में गूंजने लगे। उन्होंने छह मिनट तक सोलो परफार्म किया। इस कार्यक्रम के दौरान रविशंकर और अल्ला रक्खा की जुगलबंदी ने ऐसा समां बांधा कि दर्शकों उसे सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए
यह पंजाब के गुरदासपुर के संगीतज्ञ उस्ताद अल्ला रक्खा खान कुरैशी जिन्हें अल्ला रक्खा के नाम से जाना जाता है के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में से एक था। उस रविवार को सिर्फ रविशंकर ही नहीं अल्ला रक्खा भी इतिहास रच रहे थे। डीए पेनेबेकर द्वारा बनाई गई कांसर्ट फिल्म मोंटेरे पाप चार घंटे के असाधारण संगीत कार्यक्रम (जिसमें सभी कलाकारों को 40 मिनट का समय दिया गया था) की एक झलक देती है, जहां दो भारतीय उस्तादों की जुगलबंदी हेंड्रिक्स समेत सभी को मंत्रमुग्ध कर देती है। जब जुगलबंदी साथ संगीत कार्यक्रम समाप्त हुआ, तब तक अल्ला रक्खा ने तबले को संगत से केंद्र में लाने में कामयाबी हासिल कर ली थी। उसके बाद साल 1969 में न्यू यार्क में आयोजित होने वाले फिल्म फेस्टिवल वुडस्टाक और 1971 में बांग्लादेश के लिए रविशंकर के साथ किया गया कंसर्ट तबला को वैश्विक पहचान दिलाने में मददगार रहा। बाद में अल्ला रक्खा की इस विरासत को उनके बेटे जाकिर हुसैन ने आगे बढ़ाया।
एक सैनिक पिता की संतान अल्ला रक्खा की मां गृहणी थीं। बाद में उनके पिता ने खेती करना शुरू कर दिया था। जम्मू के एक छोटे से गांव घगवाल में 29 अप्रैल, 1919 को जन्मे अल्ला रक्खा को संगीत विरासत में नहीं मिला था। 12 साल की उम्र में उनका ध्यान संगीत की ओर आकर्षित हुआ था, जब वह गुरदासपुर में अपने चाचा से मिलने गए थे। उनके पिता को नाटक देखने का बहुत शौक था। पंजाब में अक्सर कई समूह परफार्म करने के लिए आया करते थे। पिता नाटक देखने के लिए अल्ला रक्खा को साथ ले जाते थे। अल्ला रक्खा को कलाकारों की आवाज के साथ बज रहा तबला काफी अच्छा लगता था, लेकिन करियर के रूप में संगीत उनके परिवार की पसंद नहीं था। इसलिए अल्ला रक्खा जम्मू से भाग कर गुरदासपुर में अपने चाचा के साथ में रहने लगे, लेकिन गुरदासपुर तो बस एक जरिया बनकर रह गया। वह पंजाब घराने के दिग्गज मियां कादर बख्श से सीखने के लिए लाहौर जाना चाहते था। दरअसल, एक दिन अखबार में उन्होंने कादर बख्श की तस्वीर देखी थी। तभी उन्होंने फैसला कर लिया कि उन्हें कादर बख्श से सीखना है भले ही उसके लिए घर से भागना पड़े। अपने सपने को पूरा करने के लिए एक दिन युवा अल्ला रक्खा ने गुरदासपुर से लाहौर की यात्रा की। तब उनकी उम्र करीब 13 साल थी। मियां कादर बख्श बहुत कड़क गुरु थे। उनके निर्देश स्पष्ट थे कि सर्दियों में छात्रों को सुबह पांच बजे सिर्फ एक बनियान और एक लंगोटी में अभ्यास करना होगा और तब तक जारी रखना होगा जब तक कि बनियान पसीने से तर नहीं हो जाती थी।
इसके बाद, अल्ला रक्खा एक छोटे से ढाबे पर काम करने जाते थे , ताकि वह अपने गुरु को उसकी शिक्षा देने के लिए नजराना दे सके। एक डोगरी भाषी लड़का, जल्द ही पंजाबी बोलने में पारंगत हो गया। फिर अल्ला रक्खा ने 10 वर्ष तक पटियाला घराना के उस्ताद आशिक अली खान से गायक के रूप में प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण ने उन्हें शास्त्रीय संगीत के विभिन्न पहलुओं में तबले की ताल ( कंपोजीशन) में नई सामग्री बनाने में मदद की। सभी लोग अल्ला रक्खा को प्यार से अब्बाजी बुलाते थे। वह दयालु, मजाकिया और बहुत स्नेही थे। वर्ष 1940 में लाहौर में, अल्ला रक्खा संगतकार के रूप में आल इंडिया रेडियो में शामिल हो गए। कुछ समय बाद वह दिल्ली चले गए। बावी बेगम से शादी की। फिर उन्हें बाम्बे (अब मुंबई) में आल इंडिया रेडियो में नौकरी मिल गई। वहां रेडियो स्टेशन के पहले एकल तबला वादक के रूप में वह पहली बार शंकर से मिले। आकाशवाणी में तीन साल काम करने के बाद, अल्ला रक्खा ने नौकरी छोड़ दी और संगीतकार के तौर पर फिल्म इंडस्ट्री में हाथ आजमाया।
फिल्मों में काम करने से अच्छा पैसा और प्रसिद्धि मिली और उन्हें अपने संगीत ज्ञान को इस्तेमाल करने का मौका दिया। उन्होंने एआर कुरैशी के नाम से करीब 30 फिल्मों में काम किया। इन फिल्मों में राज कपूर और नरगिस अभिनीत बेवफा (1952), मां बाप (1960) और खानदान (1965) शामिल हैं। अल्ला रक्खा फिल्म निर्माता के. आसिफ के दोस्त थे। जाकिर ने क्लासिकल फिल्म ‘मुगल-ए-आजमÓ (1960) में युवा सलीम की भूमिका के लिए आडिशन भी दिया था, जिसे अंतत: जलाल आगा ने निभाया था। अल्ला रक्खा को अपनी बेगम से दो बेटियां खुर्शिद, रजिया और तीन बेटे जाकिर, फजल और तौफिक हुए। अल्ला रक्खा ने पाकिस्तान की जीनत बेगम से भी निकाह किया था, उनसे भी उन्हें दो बच्चे हुए। पिछली सदी के पांचवें और छठे दशक के दौरान संगत करने वाले कलाकारों को ज्यादा सामाजिक सम्मान नहीं मिलता था। संगीतकारों के नाम रिकार्ड या पोस्टर पर नहीं होते थे और उन्हें मुख्य कलाकार की तुलना में बहुत कम भुगतान किया जाता था। यहां तक कि तबला वादकों को मुख्य कलाकार के पीछे बैठाया जाता था। उस समय तबलाची शब्द का इस्तेमाल अपमानजनक तरीके से किया गया था। इसके बावजूद तबले के प्रति अल्लाह रक्खा का प्रेम बना रहा। छठवें दशक के मध्य में, उन्होंने पूरी तरह से शास्त्रीय संगीत पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया।
उन्होंने सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान के पिता हाफिज अली खान, बड़े गुलाम अली खान और रविशंकर जैसे कलाकारों के साथ काम करना शुरू किया। रविशंकर साथ उन्होंने कई यात्राएं की। अंग्रेजी में पारंगत रविशंकर ने पश्चिमी दर्शकों को भारतीय शास्त्रीय संगीत से परिचित कराया। कई जानकारों के मुताबिक रविशंकर पहले संगीतकार थे जिन्होंने एक कंसर्ट के दौरान अपना वाद्य यंत्र नीचे रखा, ताल दी और तबला वादक को वहां से आगे परफार्म करने का मौका दिया। वह चाहते थे कि दुनिया तबले के महत्व और सुंदरता को जाने। इसके लिए कई बार उनकी आलोचना भी हुई। दो वाद्ययंत्रों और कलाकारों के बीच जुगलबंदी या सवाल जवाब का प्रारूप, जो पहले नहीं था, पंडित रविशंकर और अल्ला रक्खा के एक साथ आने के बाद आदर्श बन गया। दुनिया भर में, तबला वादक उस दृष्टिकोण को अपनाना चाहते थे। अल्ला रक्खा के दूसरे बेटे फजल ने कहा था कि उन्होंने तबले को आम आदमी की नजरों में एक बड़ा नाम दिया। बहरहाल, प्रख्यात राक बैंड बीटल ग्रुप के जार्ज हैरिसन और 20वीं सदी के सबसे महान वायलिन वादकों में से एक येहुदी मेनुहिन अल्ला रक्खा की लय से चकित थे, तो राक बैंड द ग्रेटफुल डेड के महान ढोलकिया मिकी हार्ट ने अल्लाह रक्खा को ‘आइंस्टीन आफ रिदमÓ और उनकी तकनीक को ‘उच्चतमÓ कहा। उन्होंने मोंटेरे कंसर्ट की रिकार्डिंग देखी थी और चकित रह गए थे। बाद में उन्होंने अपने बैंड द ग्रेटफुल डेड के साथ इलेवन नामक एक मुखड़ा बनाया। यह अल्लाह रक्खा को ट्रिब्यूट था।
तबले के प्रति अल्ला रक्खा का प्रेम जगजाहिर था। जब जाकिर का जन्म हुआ तो अल्ला रक्खा ने कुरान की आयतों के बजाय अपने बेटे के कानों में तबले की ताल बोली। जब उनकी पत्नी ने इस बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा था कि तबले के बोल इबादत के उतने ही करीब थे, जितना वह उसके करीब हैं। फिर बड़े बेटे के तौर पर जाकिर ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी निभाई। अपने बच्चों के लिए, वह प्यार करने वाले पिता, छात्रों के लिए उदार गुरु तो अपने साथियों के लिए असाधारण कलाकार थे। तबले में निपुणता के साथ उनके नरमदिल स्वभाव ने उन्हें संगीत जगत में अमर बना दिया।