सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि पीड़ित और दोषी के बीच किया गया समझौता सजा में बदलाव का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है। शीर्ष अदालत ने कहा, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के हिसाब से तय किया जाता है। क्योंकि गलत करने वाले को सजा देना आपराधिक वितरण प्रणाली का ‘दिल’ होता है।
कोर्ट ने कहा, गलत काम करने वाले को सजा देना आपराधिक वितरण प्रणाली का ‘दिल’
जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय एस ओका की पीठ ने ये कहते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ भगवान नारायण गायकवाड़ की याचिका को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने गायकवाड़ को पीड़ित का पैर और हाथ काटने के मामले में पांच वर्ष कैद की सजा सुनाई थी और पीड़ित को दो लाख रुपए का मुआवजा देने का आदेश दिया था।
गायकवाड़ ने अन्य लोगों के साथ मिलकर इस वारदात को अंजाम दिया था। शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में कहा, अपीलकर्ता के कृत्य अक्षम्य है क्योंकि उसने पीड़ित को स्थायी रूप से अक्षम बना दिया था।
गायकवाड़ के वकील महेश जेठमलानी ने कहा, उनके मुवक्किल अब 65 वर्ष के हैं और उन्होंने 28 साल पहले गलतफहमी के चलते अचानक आवेश में आकर पीड़ित पर हमला किया था। अब पीड़ित और दोषी के बीच के संबंध सौहार्दपूर्ण हो गए हैं और समय के बड़े अंतराल के कारण सभी द्वेष दूर हो गए हैं। पांच साल की सजा अनुचित है। पीड़ित के वकील ने भी कोर्ट से कहा, दोषी की सजा को कम किया जाए और दोषी द्वारा काटे गए पांच महीने की कैद को सजा मानकर रिहा कर दिया जाए। दोनों पक्षों की दलील को खारिज करते हुए पीठ ने कहा, सजा को कम करने के लिए तथ्यों और परिस्थितियों में जांचना पड़ता है।वह 13 जुलाई, 2021 को दायर समझौता हलफनामे पर अपनी संतुष्टि दर्ज नहीं कर सकती क्योंकि पीड़ित इतने लंबे समय से परेशानी से जूझ रहा है। 13 दिसंबर, 1993 को हुई इस घटना में पैर और हाथ कट जाने के कारण पीड़ित जीवन भर के लिए अपंग हो गया। पीठ ने कहा अगर समझौता घटना के बाद के चरण में या दोष सिद्धि के बाद भी किया होता तो वह सजा में हस्तक्षेप करने वाले कारकों में से एक हो सकता था। लेकिन समझौते को एक अकेला आधार नहीं माना जा सकता है जब तक कि अन्य कारक समर्थन न करते हो।